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ग्रामीण महिलाओं की पीड़ा और हिम्मत का आईना मैत्रेयी पुष्पा  

आज ही के दिन यानी 30 नवंबर, 1944 को यूपी के अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा नामक गांव में मैत्रेयी पुष्पा का जन्म हुआ था

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आज ही के दिन यानी 30 नवंबर, 1944 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा नामक गांव में जन्मी मैत्रेयी पुष्पा हिंदी साहित्य में एक ऐसा न भूलने वाला नाम है, जिन्होंने स्त्री-जीवन के समस्त पक्षों को उघाड़कर रख दिया. अपने बेबाक अंदाज के लिए लोकप्रिय मैत्रेयी जी ने ऐसी कृतियों की रचना की, जो साहित्य-इतिहास में अमर हो गईं, मैत्रेयी जी ने ऐसे सामाजिक मूल्यों, विशेष रूप स्त्री-जीवन से संबंधित मूल्यों को गढ़ा, जिन पर पहले कम ही लिखा गया और जिस बेबाकी से उन्होंने अपनी बात रखी, वह बाद की पीढ़ी की लेखिकाओं को एक नया खुला आसमान देने की मानिंद है.

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मैत्रेयी जी ने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर उत्पीड़न, यातना और अपमान का प्रत्यक्ष चरित्र-चित्रण किया है, वहीं उन्होंने आत्मविश्वास और स्वाभिमान जैसी ऊर्जा को अंतर्मन में बिठाने का भी काम किया है. वे रूढ़िवादी परंपराओं में जकड़े वर्चस्वादी समाज को सोते से जगाने का काम बखूबी करती दिखाई देती हैं.

बुंदेलखंड की माटी में पली-बढ़ी मैत्रेयी जी ने समाज की उस सोच पर गहरी चोट की, जहां स्त्री को केवल एक गुड़िया के तौर पर देखा जाता रहा है, एक सजने-संवरने वाली गुड़िया माना जाता रहा है. वे समाज की इस सोच को तोड़ने के प्रयास में बहुत हद तक सफल भी रही हैं, उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से स्त्री को उसके अस्तित्व से परिचित कराया. उसे वह पहचान दिलाने का प्रयास किया, जिसकी वह अधिकारिणी है. जीवन को परखती-खंगालती उनकी रचनाएं सामाजिक रीतियों-कुरीतियों के अनेक पक्षों को अपने में समेटे हुए हैं. समाज द्वारा स्त्री को अयोग्य ठहराने को लेकर उनके लेखन में गहरी पीड़ा देखने को मिलती है.

साहित्यिक गलियारों में मैत्रेयी जी हमेशा चर्चाओं में रहीं, फिर चाहे उनका स्त्री-जीवन एवं उसके अस्तित्व पर बेबाक अंदाज में मुखर स्वर में बोलना हो या फिर अमर साहित्यकार राजेंद्र यादव जी और उनके बारे में लोगों की फुसफुसाहट हो, जितनी बाते राजेंद्र यादव जी और मैत्रेयी जी लेकर होती रही हैं, उतनी बातें शायद ही किसी और के बारे में हुई हों. लोगों का क्या है! लोग तो बातें बनाते ही हैं, लेकिन अगर वास्तविकता को स्वीकारा जाए तो राजेंद्र यादव जी वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने एक मार्गदर्शक, प्रेरक और गुरु के रूप में मैत्रेयी जी का मार्ग प्रशस्त किया.

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अपने लेखन में मैत्रेयी जी ने स्त्री को अपने जीवन में, अपने विचारों में और अपनी सोच में बदलाव लाने की बात जोर देकर कही है, वे लिखती हैं कि मुझे स्त्री-जीवन की वह छवि पेश नहीं करनी है, जो मर्यादा, शील-शुचिता और इज्जत के नाम पर स्त्री की नकली तस्वीर है. इसके विपरीत वे चाहती हैं कि स्त्री अपनी महत्ता का एहसास कराए. अपने आपको उस कारे से बाहर निकाले, जिसमें पुरुष के वर्चस्वादी समाज ने उसे घेरकर रखा हुआ है और उसकी सोच एवं भावनाओं को संकुचित किया हुआ है। वे चाहती हैं कि स्त्री को इसी संकुचन वाले घेरे को ही तो तोड़ना है, ताकि वह भी उड़ान भर सके और अपना योगदान देते हुए अपनी गाथा लिख सके.

मैत्रेयी जी की प्रमुख कृतियां हैं: स्मृति दंश, चाक, अल्मा कबूतरी, कहैं ईसुरी फाग, बेतवा बहती रही, चिन्‍हार, इदन्‍नमम, गुनाह बेगुनाह, कस्‍तूरी कुण्‍डल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया, ललमनियाँ तथा अन्‍य कहानियां, त्रिया हठ, फैसला, सिस्टर, सेंध, अब फूल नहीं खिलते, बोझ, पगला गई है भागवती, छांह, तुम किसकी हो बिन्नी, लकीरें, अगनपाखी, खुली खिड़कियां आदि. उनके लेखन में देश का अत्यंत पिछड़ा अंचल बुंदेलखंड जीवंत हो उठता है.

वे हिंदी अकादमी के साहित्य कृति सम्मान, कहानी ‘फैसला’ पर कथा पुरस्कार, ‘बेतवा बहती रही’ उपन्यास पर यूपी. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद सम्मान, ‘इदन्नमम’ उपन्यास पर शाश्वती संस्था बेंगलुरू द्वारा नंजनागुडु तिरुमालंबा पुरस्कार, म.प्र. साहित्य परिषद द्वारा वीरसिंह देव सम्मान, वनमाली सम्‍मान, ‘सुधा स्मृति सम्मान’ इत्यादि से सम्मानित हो चुकी हैं.

मैत्रेयी जी ने हिंदी साहित्य की जिस प्रकार सेवा की और जिस प्रकार की रचनाएं उन्होंने रचीं, उससे हिंदी साहित्य तो समृद्ध हुआ ही है, साथ ही स्त्री-विमर्श को उन्होंने नई उड़ान भी दी है। उनका रचना-संसार बहुत ही विशाल है, जिसमें उनकी ऐसी-ऐसी रचनाएं समाहित हैं जिन्होंने स्त्री-जीवन को नई दिशा देने का काम किया है। मेरे विचार से मैत्रेयी जी ऐसी पहली साहित्यकार हैं, जिनकी लगभग सभी रचनाएं ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। यह अपने आपमें एक बहुत ही बड़ी बात है कि उन्होंने ग्राम्य अंचल की महिलाओं को अपनी रचनाओं की नायिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए स्त्री-विरोधी और पितृ-सत्तात्मक समाज को चुनौती देने का काम किया. अगर मैं यह कहूं कि मैत्रेयी जी एक ऐसी निर्भीक एवं निडर लेखिका हैं कि उन्होंने वही लिखा, जो उन्होंने महसूस किया या देखा, तो कोई गलत बात न होगी.

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मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि मैत्रेयी जी की लेखनी यूं ही चलती रहे और हमें और हमारे समाज को उनकी ज्वलंत रचनाएं मिलती रहें. मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि समाज में साहित्यकार की जरूरत हमेशा बनी रहनी चाहिए, क्योंकि साहित्यकार वह दर्पण होता है, जो समाज को और उसमें बसने वाले लोगों को वास्तविकता से समय-समय पर अवगत कराता रहता है और मैत्रेयी जी ने वास्तव में उसी दर्पण की भांति काम किया है, इसमें कोई संदेह वाली बात नहीं. आज मैत्रेयी जी ने अपने जीवन के 76 बसंत पूरे कर लिये, तो इस अवसर पर उन्हें अनेकानेक शुभकामनाएं! बेबाक और जिंदादिल महान लेखिका को हार्दिक शुभकानाएं!!

समीर हिंदी साहित्य से जुड़े प्रकाशनों में संपादक रह चुके हैं, कई किताबें लिख चुके हैं और वर्षों का समीक्षा का अनुभव है

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