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मणिपुर हिंसा का एक साल: कुकी-जोमी-हमार और मैतेई के बीच कैसे बढ़ता गया क्षेत्रीय अलगाव?

Manipur Violence: हिंसा ने कुकी-जोमी-हमार और मैतेई के बीच क्षेत्रीय अलगाव को तेज और व्यापक कर दिया है.

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देश के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर (Manipur Violence) में 3 मई 2023 को भड़की हिंसा को एक साल हो गया है लेकिन प्रदेश में शांति अभी भी स्थापित नहीं पाई है क्योंकि अब तक इस संरचनात्मक हिंसा के स्रोत का पता नहीं चल पाया है.

इसे खत्म न करने की इच्छा और जिस तरह से इसे एक पक्षपातपूर्ण और बहुसंख्यकवादी सरकार ने जारी रखने की अनुमति दी है- इससे साफ है कि अरामबाई तेंगगोल (Arambai Tenggol) और प्रतिबंधित मैतेई सशस्त्र संगठनों जैसे सशस्त्र मिलिशिया को 'बफर जोन' से परे तलहटी में स्थित कुकी-जोमी-हमार गांवों को लगातार निशाना बनाने की खुली छूट दी जा रही है.

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हिंसा से अब तक 220 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. इस हिंसा में 60 हजार से अधिक आबादी विस्थापित हुई है. 176 मौतें, 360 चर्च, 7000 घर और 200 गांव जलाए जाने और 41,000 से अधिक लोगों के विस्थापन के साथ ही सबसे बड़ा खामियाजा कुकी-जोमी-हमार को भुगतना पड़ा है.

'बफर जोन' का विचार किसी और ने नहीं बल्कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा किया गया था. मई 2023 के अंत में अमित शाह की मणिपुर यात्रा के बाद से हिंसा को रोकने के लिए इसे एक सामरिक प्रयास के तौर पर लागू किया गया था. हालांकि, घाटी के मैतेई सशस्त्र समूहों द्वारा इन इलाकों में निरंतर और जानबूझकर किया गया अतिक्रमण हिंसा का प्रमुख स्रोत बना हुआ है.

कांगपोकपी जिले के फेलेंगमोल में 14 अप्रैल 2024 को कथित केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की गोलीबारी में कथित तौर पर मारे गए दो कुकी पीड़ितों का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक की हथेली और सिर को भयानक रूप से काटने और क्षत-विक्षत शव को घसीटते हुए दिखाया गया है.

8 अप्रैल 2024 को प्रधानमंत्री मोदी के दावा करते हुए कहा था कि केंद्र के 'समय पर हस्तक्षेप' और राज्य सरकार के प्रयासों से मणिपुर की 'स्थिति में उल्लेखनीय सुधार' हुआ है. हालांकि, आक्रामकता का ये नया रूप उस दावे के बिल्कुल उलट है.

बारीकी से देखने से पता चलता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की मिलीभगत के बिना हिंसा संभव नहीं थी.

तोड़-मरोड़कर पेश किया गया नैरेटिव

जून 2023 की शुरुआत से 'बफर जोन' में अपराधों का एक नियमित पैटर्न और ऐसे अपराधों को सही ठहराना, किसी भी समझदार पर्यवेक्षक को साफ-साफ दिखेगा. इन अपराधों को एक तोड़-मरोड़कर पेश किए गए नैरेटिव के जरिए सही ठहराया जाता है जो लगातार कुकियों को आक्रामक रूप में पेश करता है. यह नैरेटिव जानबूझकर 'बफर जोन' से परे आक्रामक हमलों को जारी रखने में मैतेई सशस्त्र समूहों की लगातार भूमिका को नजरअंदाज करती है.

इस तरह के विकृत नैरेटिव की आड़ में, राज्य पुलिस और अर्धसैनिक बलों की ओर से तलहटी में कई अभियान चलाए गए. इस तरह के ऑपरेशन, विशेष रूप से राज्य पुलिस कमांडो द्वारा किए गए ऑपरेशन, कथित तौर पर सशस्त्र मैतेई समूहों के साथ थे और परिणामस्वरूप कुकी गांवों में बड़े पैमाने पर आगजनी हुई.

सुगनू और मोरेह कस्बे सहित कई अन्य शहरों में घरों का व्यापक रूप से जलना इसका ज्वलंत उदाहरण है.

दुर्भाग्य से यह नैरेटिव तेजी से फैलता है और कुकियों पर ही दोष मढ़ता है. ये बात इम्फाल और मेनस्ट्रीम भारतीय मीडिया के साथ ही ऑफिशियल नैरेटिव का हिस्सा बन जाता है. इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अगस्त 2023 की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने एक बयान में इस नैरेटिव को उजागर किया था. जब उन्होंने खुले तौर पर दावा किया कि हिंसा फैलने के शुरुआती दिनों में सशस्त्र मैतेई भीड़ द्वारा मारे गए कुकी-जोमी-हमार समुदाय के लोग 'घुसपैठिए' थे.

सुप्रीम कोर्ट ने 28 नवंबर 2023 को राज्य सरकार को 87 शवों का 'सम्मानजनक तरीके से अंतिम संस्कार' की व्यवस्था करने का निर्देश दिया था. शीर्ष अदालत के निर्देश को तोड़-मरोड़कर पेश किए जा रहे नैरेटिव को खारिज करने और इम्फाल के अलग-अलग अस्पतालों के मुर्दाघरों में पड़े लावारिस शवों की नागरिकता की पुष्टि के रूप में देखा गया था. 21 दिसंबर 2023 को रात भर के सुरक्षा अभियान और उसके बाद इंफाल से चुराचांदपुर और कांगपोकपी तक एयरलिफ्ट करने के बाद शवों का अंतिम संस्कार हुआ.

वापस आते हैं, इस तरह की विकृत नैरेटिव का इस्तेमाल राज्य की जनसांख्यिकी, क्षेत्रीय अखंडता और भारत की सुरक्षा पर ऐसे अनाम 'घुसपैठियों' की ओर से पनपे कथित खतरे, ज्यादातर कल्पनाशील, के इर्द-गिर्द बड़े पैमाने पर उन्माद पैदा करने के लिए किया जाता है.

अप्रैल 2023 में राज्य कैबिनेट उप-समिति ने 2,000 से कुछ अधिक 'अवैध' अप्रवासियों की पहचान की थी लेकिन अब इस नैरेटिव को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए इस संख्या को तेजी से बढ़ाकर सैकड़ों-हजारों करने की कोशिश की जा रही है.

कुछ दिन पहले राज्य के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के अपने नए संदेश में कहा कि 'अवैध आप्रवासन' के नतीजे के तौर पर साल 2016 के बाद से 996 से अधिक नए कुकी गांव सामने आए हैं.

तथ्य यह है कि नए गांवों का कथित निर्माण बड़े पैमाने पर उनकी नाक के नीचे हुआ, जो आंशिक रूप से उनके पूर्ववर्ती और मुख्य रूप से उनकी सरकार की इस संभावना को रोकने में नाकामयाबी की ओर इशारा करता है. कुकी-जोमी-हमार समूह को चुनिंदा तरीके से निशाना बनाना और उनका जातीयकरण, राज्य सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचने के लिए एक बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

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एक और बात, कुकी-जोमी-हमार-प्रभुत्व वाले जिलों की 'अप्राकृतिक' दशकीय जनसंख्या बढ़ोतरी के साथ इन कथित नए गांवों की बढ़ती संख्या के बीच संबंध अभी भी आधिकारिक जनगणना डेटा द्वारा स्थापित नहीं किया गया है. यह बात इसलिए जरूरी है क्योंकि पिछले दो दशकीय जनगणना (1991 और 2011) में इन जिलों की जनसंख्या वृद्धि राज्य के औसत से काफी कम है.

बीरेन सिंह ने मणिपुर के साझा क्षेत्रों को तोड़ दिया है

वनों की कटाई और पर्यावरणीय क्षरण के प्रमुख कारण के रूप में नए गांवों के निर्माण और कुकी-जोमी-हमार समूह द्वारा पोस्ता की खेती को दोषी ठहराने का जबरदस्त प्रयास भी असल में मौजूदा वास्तविकताओं के साथ सही नहीं बैठता है.

वास्तव में सर जेम्स जॉनस्टोन, जिन्हें मैतेई समुदाय का हितैषी माना जाता है, सहित कई औपनिवेशिक नृवंशविज्ञान (Ethnographic) से पता चला है कि 19वीं शताब्दी के अंत में निर्माण और रेलवे उद्योगों में शहरी उछाल के साथ व्यापक वनों की कटाई पहले ही हो चुकी थी. एक तथ्य यह भी है कि 2017-2022 के दौरान नारकोटिक्स और सीमा मामलों के प्रभारी पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट मैतेई और 'कुकी-चिन' सहित सभी प्रमुख समुदायों की भागीदारी को दर्शाती है. साथ ही इस तरह की दुर्भावनापूर्ण नैरेटिव को भी उजागर करती है.

दिलचस्प बात यह है कि इस मुद्दे पर बीरेन सिंह का परस्पर-विरोधी बयान देखने को मिल रहा है. पांच साल पहले उन्होंने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के दौरान एक साक्षात्कार में दावा किया था कि मणिपुर में कोई भी 'अवैध अप्रवासी' मौजूद नहीं है और राज्य को असम जैसे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्ट्रार (NRC) की जरूरत नहीं है.

हालांकि उन्होंने इस इंटरव्यू में भारत-म्यांमार सीमा के जरिए बांग्लादेश और म्यांमार (रोहिंग्या) के अवैध अप्रवासी के रूप में राज्य में घुसपैठ करने को लेकर चिंता जताई थी. 'अवैध' कुकी अप्रवासियों के प्रति उनकी सनक 2019 के आसपास शुरू हुई और 2022 के दूसरे छमाही के आसपास अपने चरम पर पहुंच गई जब फ्रंटल मैतेई सिविल सोसाइट ग्रुप और राज्य सरकार द्वारा आक्रामक रूप से अपनाए गए बहुसंख्यकवादी एजेंडे ने एक-दूसरे को एकजुट और मजबूत किया.

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भारत के प्रख्यात विशेषज्ञ पॉल ब्रास से प्रेरणा लेते हुए मैंने तर्क दिया कि इस कंवर्जेंस और राज्य के आक्रामक बहुसंख्यकवादी एजेंडे ने 3 मई 2023 से मणिपुर में एक 'संस्थागत दंगा प्रणाली' के लिए जमीन तैयार की. बता दें, पॉल ब्रास ने उत्तर भारत के अलग-अलग हिस्सों में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के लिए आधार तैयार करने में राज्य की ओर से निभाई गई अहम भूमिका पर जोर दिया है.

आधिकारिक और बौद्धिक रूप से पूरे मामले को प्रमाणिक बनाने के लिए जस्टिफिकेशन के लिए तोड़-मरोड़कर नैरेटिव का इस्तेमाल बीरेन सिंह और भारतीय जनता पार्टी (BJP) को अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे और अपील को चुनावी रूप से मजबूत करने में मदद कर सकता है. राज्य की क्षेत्रीय अखंडता की पवित्रता बनाए रखने और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर 'अवैध आप्रवासी' कुकी द्वारा उत्पन्न कल्पनाशील खतरों को प्रदर्शित करने के लिए राजनीतिक रूप से भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.

फिर भी, यह नैरेटिव राज्य की मौजूदा हकीकत से परे है और कुकी-जोमी-हमार समूहों को समस्याग्रस्त 'अन्य' के रूप में टारगेट करती है.

राज्य की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने और अपने और बीजेपी के बहुसंख्यकवादी एजेंडे को मजबूत करने के अपने अति उत्साही प्रयास में बीरेन सिंह ने मणिपुर के साझा क्षेत्रों को तोड़ दिया है. तीव्र जातीय और क्षेत्रीय ओवरलैप, जो दिसंबर 2016 से जिला सीमाओं के पुनर्गठन के साथ-साथ जातीय/जनजाति की मांगों को पूरा करने और मौजूदा नौ जिलों में से सात अतिरिक्त जिलों को बनाकर राज्य की फूट डालो और राज करो की नीति का लाभ उठाने के लिए लागू हुआ, 2023 से मणिपुर में हिंसा भड़कने के एक साल बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई है.

पूर्वी यूरोपीय संदर्भ में हेनरी हेल ​​द्वारा किया गया अध्ययन मणिपुर के लिए एक अशुभ संकेत है, जैसा कि उन्होंने स्थापित किया है कि एक बहुजातीय राज्य के भीतर जातीय मूल क्षेत्र (क्षेत्रों) का उद्भव, जैसा कि 3 मई 2023 की हिंसा के बाद से मणिपुर में हुआ है, राज्य के पतन का एक कारक हो सकता है.

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अधिक चिंताजनक बात यह है कि इस हिंसा ने न केवल क्षेत्रीय विभाजन वाले समाजों का सैन्यीकरण किया है बल्कि कुकी-जोमी-हमार और मैतेई के बीच क्षेत्रीय अलगाव को भी तेज और व्यापक कर दिया है. अपनी-अपनी जमीनों और समुदायों की रक्षा के नाम पर युवाओं की बड़े पैमाने पर भर्ती और प्रशिक्षण से न केवल 'जातीय सुरक्षा दुविधा' बदतर होने वाली है बल्कि आपसी नफरत, संदेह और असुरक्षा की गहरी भावना भी पैदा हुई है.

यह अंतर-सांप्रदायिक शांति और एकजुटता के लिए अच्छा संकेत नहीं है और इससे बीरेन सिंह की राजनीतिक विरासत पर काला धब्बा लगना तय है. स्पष्ट रूप से, मणिपुर जैसे अत्यधिक विविध और विषम समाजों ने राष्ट्रवाद पर सबसे प्रतिष्ठित विशेषज्ञों में से एक, दिवंगत वॉकर कॉनर के बड़े पैमाने पर तुलनात्मक विश्वव्यापी अध्ययन से अपना सबक अच्छी तरह से नहीं सीखा है कि अत्याधिक विविध और विभाजित समाजों को समायोजित किए बिना 'राष्ट्र निर्माण' करने का परिणाम अक्सर 'राष्ट्र-तोड़ने' वाला होता है.

(खम खान सुआन हाउजिंग हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर और पूर्व प्रमुख हैं. वह सेंटर फॉर मल्टीलेवल फेडरलिज्म, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली के मानद वरिष्ठ फेलो भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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