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Manipur Violence: दंगों को देख लगता है इतिहास खुद को अजीब तरीके से दोहराता है

Manipur violence: 3 मई की शाम से जो दंगे भड़के हैं वो अचानक नहीं हुए हैं, ये अप्रत्याशित भी नहीं हैं.

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इतिहास खुद को बहुत अजीब तरीके से दोहराता है, पूरे मणिपुर में फैले सांप्रदायिक दंगों को देखकर यह साफ हो गया है. दूसरे दंगों की तरह जो देश के अलग–अलग हिस्सों में समय-समय पर भड़कते रहते हैं, उससे अलग मणिपुर राज्य (Manipur) ने समय के साथ इन दंगों के लिए संस्थागत इको सिस्टम तैयार कर लिया है और इसे एक्टिव बनाए रखा है. भारत के प्रख्यात राजनीतिक विज्ञानी पॉल ब्रास इसे 'संस्थागत दंगा प्रणाली' बताते हैं.

हालांकि, इनमें एक बारीक फर्क है. भारत के दूसरे हिस्सों से उलट, मणिपुर में मौजूदा दंगे धार्मिक संघर्षों से नहीं भड़के हैं. यह राज्य के अति आक्रामक एकीकरणवादी प्रयासों और बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की मानसिकता वाले समूह में आदिवासियों को मिलाने और अनुच्छेद 371C के तहत मिले अंतर-राज्य संवैधानिक प्रावधानों को भंग करने के कारण हुए हैं. 371C प्रावधान आदिवासियों को भूमि अधिकार और पहचान की रक्षा का अधिकार देता है, और इसे भंग किए जाने के कारण ही दंगा भड़का है.

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अब जरा इतिहास में झांकें

अब जरा इस सदंर्भ को समझते हैं. साल 1835 में ब्रिटिश राज ने पहली संस्थागत व्यवस्था बनाई थी. यह मणिपुर के दक्षिणी भाग के अंदर 'क्रूर' आदिवासी समूहों की तरफ से लगातार छापे से बेपटरी हुए पहाड़-घाटी संबंधों को रेगुलेट करने के इरादे से बनाया गया था. एक बात तो यह है कि अंग्रेजों के समय के अभिलेखों (archives) को ठीक से देखने से पता चलता है कि ये छापे आदिवासियों ने घाटी के मैतेई राजाओं और उनके क्षेत्र में घुसपैठ के खिलाफ डाले थे. दूसरी बात यह है कि यह हिस्सा न तो अंग्रेजों के पूर्ण प्रभावी नियंत्रण में कभी रहा और ना ही इसकी सीमा का स्पष्ट सीमांकन किया गया था क्योंकि मणिपुर की सीमा मैतेई राजाओं के राजनीतिक भाग्य के उतारचढ़ाव पर निर्भर थी.

इस ऐतिहासिक हालात को समझते हुए विशिष्ट जातीय सांस्कृतिक पहचान, पहाड़ी जनजातियों के साथ मैतेई राजाओं के 'क्रूर व्यवहार' को देखते हुए प्रशासन को 'लोगों के करीब' लाने के लिए तत्कालीन राजनीतिक एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल जे शेक्सपियर ने एक विशिष्ट प्रशासनिक परिकल्पना मणिपुर के लिए 1907 में तैयार किया.

इस व्यवस्था के तहत ही पहाड़ी इलाकों का मैनेजमेंट और पहाड़ी जनजातियों की देखभाल के लिए खास फंडिंग और प्रशासनिक ढांचा बना और इसका कार्यभार ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट को सौंपा गया. यह एजेंट मणिपुर दरबार का वाइस प्रेसिंडेट होता था. इसके आधार पर ही 1947 का अलग से पहाड़ी प्रशासनिक व्यवस्था तैयार हुई और पहाड़ी इलाकों का एकीकरण किया गया और जब तक भारत का संविधान तैयार नहीं हुआ, तब तक मणिपुर के लिए अलग से संवैधानिक रूपरेखा तैयार की गई.

इस ऐतिहासिक संदर्भ को समझते हुए ही अंतर-राज्य संवैधानिक सिस्टम का रास्ता भी प्रशस्त हुआ, जिसमें अनुच्छेद 371C के तहत अलग जिला परिषदों और पहाड़ी क्षेत्र समिति (HAC) की परिकल्पना की गई थी. मणिपुर को जब 1972 में राज्य का दर्जा मिला तो आदिवासियों को इसी के तहत जमीन और पहचान का विशिष्ट अधिकार मिला. मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों का राजनीतिक एकीकरण इसी तरह किया गया था. लेकिन इस बात को बहुसंख्यक-मानसिकता वाले मैतेई सिविल सोसाइटी ऑर्गनाइजेशन (सीएसओ) और बीरेन सिंह की सरकार ने अनदेखा किया और इस प्रावधान को समय के साथ भंग करने का फैसला किया.

पहाड़ बनाम घाटी के लिए जमीन तैयार करना

इन संस्थानों को काम करने की पूरी आजादी नहीं मिली. आदिवासियों को नाममात्र की स्वायत्तता मिली, क्योंकि राज्य सरकार पहाड़ी क्षेत्रों में पर्याप्त शक्तियों को हस्तांतरित करने के लिए अनिच्छुक थी. विधानसभा के भीतर अंतर-आदिवासी और अंतर-दलीय असंतोष ने भी आदिवासी मामलों पर एक एकीकृत रुख लेने की संभावना को सीमित कर दिया, जो उनकी अस्थिरता को उजागर करता है. विशेष रूप से यह देखते हुए कि 60 सदस्यीय विधानसभा सीटों में से 40 पर आदिवासी अपना असर रखते हैं. इसके अलावा, पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित 'अनुसूचित मामलों' के रेगुलेशन के लिए जो व्यवस्था HAC को दी गई है , विधानसभा उसे भी अक्सर दरकिनार कर देती है.

इससे आदिवासी अपनी भूमि, अधिकारों और पहचानों को लेकर सशंकित और खुद को शक्तिहीन महसूस करते हैं. इसके साथ ही इसी वजह से रुक-रुक कर पहाड़ियों और दूसरी तरफ घाटी के लोगों के बीच रुक-रुक कर होने वाले संघर्षों के लिए मंच तैयार किया.
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2015 में, भयंकर संघर्ष तब हुआ जब आदिवासियों ने मणिपुर (भूमि राजस्व और भूमि सुधार) अधिनियम, 1961 सहित बिना किसी चर्चा के राज्य से पारित तीन विवादास्पद बिलों के खिलाफ अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन शुरू किया, क्योंकि उन्हें आदिवासियों के भूमि अधिकारों का हनन माना जाता था.

इस विरोध प्रदर्शन में नौ आदिवासी प्रदर्शनकारी मारे गए थे. इनमें से कथित पुलिस फायरिंग में सात की मौत हुई थी. इसके बाद आदिवासियों ने 632 दिनों तक स्वायत्तता और भूमि अधिकारों के लिए अपना आंदोलन किया था. एक दमदार विरोध करने के बावजूद, आदिवासियों को ज्यादा सफलता नहीं मिली, क्योंकि भीतरघात कुछ अपनों ने ही कर दिया था और राज्य सरकार ने उनके गुटों के कुछ नेताओं को तोड़ लिया. इसके बाद फूट डालो और राज करो की नीति पर सरकार चलने लगी.

मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की भूमिका

इस बढ़ते असंतोष के माहौल में बीरेन सिंह ने नागा पीपुल्स फ्रंट और नेशनल पीपुल्स पार्टी जैसे छोटे दलों के समर्थन से राज्य के पहले बीजेपी मुख्यमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल शुरू किया. उनकी सरकार पतली बर्फ पर स्केटिंग कर रही थी. इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उन्हें पार्टी के अंदर लगातार गुटबाजी का सामना करना पड़ रहा था, उन्होंने अपनी पसंदीदा परियोजना, 'गो टू द हिल्स' के माध्यम से व्यापक सामाजिक और राजनीतिक गठबंधन बनाने की कोशिश की. इसके साथ ही मैतेई के धार्मिक प्रतीकों को लागू करके आदिवासी क्षेत्रों में भूमि के पवित्रकरण को बढ़ावा देने के साथ-साथ चंद्रकीर्ति सिंह जैसे ऐतिहासिक प्रतीकों को पुनर्जीवित करने की कोशिश के साथ बहुसंख्यक भावनाओं को अपने पक्ष में जोड़ा.

इसके लिए, एक समावेशी नेता के रूप में बीरेन की छवि को मजबूत करने के लिए जिला मुख्यालयों में कैबिनेट बैठकों की श्रृंखला आयोजित की गई. उन्होंने पहाड़ी -घाटी की दूरी को पाटने के लिए कई बातें की.

हालांकि, बीरेन सिंह की इस एकीकरणवादी परियोजना को झटका जल्द लग गया. उनकी कोशिशों के पीछे की असली वजह सामने आने लगी. भारत-म्यांमार सीमा पर बेहियांग के पास, चिवु में चंद्रकीर्ति पार्क के निर्माण के लिए उनकी सरकार के प्रयासों पर विवाद छिड़ गया. पहाड़ी नेताओं के बीच पार्क के निर्माण के खिलाफ पहले से ही विरोध था लेकिन कुछ दब्बू आदिवासी नेताओं के बीच विकास का सपना दिखाकर पार्क योजना को आगे बढ़ा दिया गया था.

इसी तरह चिवू और कोब्रु में आदिवासी भूमि को पवित्र करने का भी प्रयास किया गया. यह क्रमशः चिवू नमक झील में थंगजिंग भगवान की आंतरायिक दृष्टि को पार्क के अंदर अपने पत्थर के मोनोलिथ को स्थापित करने के लिए और कोब्रु को लाईफम (प्रमुख मेइतेई भगवान, लेनिंगथो की सीट) के रूप में घोषित करने के लिए किया गया था. इन दो उदाहरणों ने आदिवासियों को उकसाया. क्योंकि उन्हें लगा कि इन्हें संरक्षित स्थलों के रूप में घोषित करके आदिवासी भूमि को चुपके से छीनने की कोशिश सरकार कर रही है.

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आदिवासी इलाकों को RF, PF और WS बताना

ये सब प्रस्ताव न केवल बहुसंख्यक विचारधारा वाले मैतेई चुनावी निर्वाचन क्षेत्र के बीच बीरेन सिंह की अपील को मजबूत करने में मददगार थे, बल्कि राज्य में बीजेपी की अंदरुनी गुटबाजी को बेअसर करने के लिए भी इनका इस्तेमाल किया गया. अपने बहुसंख्यक निर्वाचन क्षेत्र के लिए इनके प्रतीकात्मक महत्व और चुनावी जरूरत को महसूस करते हुए, बीरेन सिंह ने 1927 के भारतीय वन अधिनियम का विस्तार करके अपने एकीकरणवादी एजेंडे को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया.

पिछले साल के बाद से आरक्षित वन (RF), संरक्षित वन (PF), और वन्यजीव अभयारण्य (WS) के रूप में काफी जनजातीय क्षेत्रों की घोषणा इसी तरह हुई. जैसा कि आदिवासियों के विरोध और असहमति को कुचलने के लिए राज्य अक्सर ताकत का इस्तेमाल करती है... वैसे हालात से सांप्रदायिक दंगों के लिए जमीन तैयार हो जाती है... खास कर जब आदिवासियों को 'विदेशी', 'अवैध अप्रवासी' और 'अतिक्रमणकारियों' के रूप बताकर निशाना साधा जाए.

आश्चर्य की बात नहीं है कि जब हिल एरिया कमेटी यानी HAC ने हाल ही में कानून का हवाला देकर जनजातीय क्षेत्रों में RF, PF, और WS के व्यापक विस्तार पर सवाल उठाया तो मैतेई सीएसओ की तरफ से भी कड़ी प्रतिक्रिया आई. इस बीच, 20 फरवरी को सोंगजंग गांव में आदिवासियों के घरों को ढहाने के लिए बुलडोजर भेज दिया गया.

इम्फाल में शुरुआती अप्रैल में सूर्योदय से पहले पहले तीन जनजातीय चर्चों को ढहा दिया गया. इसमें कानून का खुला उल्लंघन किया गया. तोड़े जाने से पहले से कोई अल्टीमेटम नहीं दिया गया. मणिपुर उच्च न्यायालय में डाक चिट्ठा (कागजी दस्तावेज) को नियमित करने के लिए अपील करने का मौका भी नहीं दिया गया. जिसके बाद सब्र का बांध टूट गया और साम्प्रदायिक उन्माद भड़क उठा.

यहां तक की पहाड़ी आदिवासियों के सोशल मीडिया युद्धाओं और विभिन्न मैतेई CSO के बीच सांप्रदायिक लहजे में जमकर बहस हुई. हिंसा भड़काने के लिए जमीन तैयार हो चुकी थी. इस आग में घी डालने का काम तब हुआ, जब मणिपुर हाईकोर्ट ने मैतेई को ST का दर्जा देने के लिए केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय के ज्ञापन पर का 4 हफ्ते में जवाब देने के लिए राज्य को निर्देश दिया.

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हिंसा सहज और अप्रत्याशित नहीं

यह देखते हुए कि मैतेई ने पहले से ही अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और EWS धड़ों के आसपास सुरक्षात्मक भेदभाव को खत्म कर दिया है, मणिपुर में आदिवासियों के बीच भय और असुरक्षा की भावना और भड़क गई. मैतेई को ST का दर्जा मौजूदा हालात में अव्यवस्था फैलाने का सबसे सुरक्षित तरीका होगा. इसी के खिलाफ ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन, मणिपुर ने 3 मई को शांतिपूर्ण जनजातीय रैली निकाली.

लैमका में बाइक सवार को टक्कर मारने के बाद ट्रिपर ट्रक चालक की पिटाई के बाद लीसांग में मैतेई भीड़ ने एंग्लो-कुकी शताब्दी युद्ध स्मारक गेट को जलाने का प्रयास किया गया था, जिसके बाद हिंसा भड़क गई. कांगवई और टोरबंग इलाकों में कबायली प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़पें हुईं, जिसके कारण कई घरों में तोड़फोड़ हुई और आग लगा दी गई.

इसे ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखें तो 3 मई की शाम से हमने जो भीषण और बेरोकटोक साम्प्रदायिक दंगों की लहर देखी है, वह सहज और अप्रत्याशित नहीं है, लेकिन यह पूरे मणिपुर में सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए एक चिंगारी का इंतजार कर रहा था.

चूंकि दंगे से दोनों ही पक्ष को नुकसान होता है, कानून-व्यवस्था का बिगड़ना बहुत खराब होता है. कांगवई जो मोइरांग से 10 किमी दूर है को मणिपुर का दक्षिणी सिरा माना जाता है, हाल के सांप्रदायिक दंगों का केंद्र बन गया है, यह वास्तव में इतिहास का एक अजीब दोहराव है.

(खम खान सुआन हौसिंग हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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