ADVERTISEMENTREMOVE AD

मणिपुर संकट का मिजोरम पर क्या असर? जनजातीय भाईचारा, स्वायत्तता की मांग में जवाब

Manipur Violence: मणिपुर की BJP सरकार के शासन में कुकियों के साथ कथित भेदभाव मिजो नागरिकों में असुरक्षा पैदा कर रहा.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर (Manipur) में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच जातीय हिंसा को शुरू हुए दो महीने से ज्यादा वक्त हो गया है. इसमें 130 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. इस हिंसा ने 40,000 से ज्यादा लोगों को विस्थापित कर दिया है और राज्य की पहले से मौजूद जातीय दुश्मनी की खाई को और चौड़ा कर दिया है. राज्य में अभी भी हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं.

मणिपुर संकट से मिजोरम (Mizoram) पर शरणार्थियों का बोझ बढ़ गया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मणिपुर अभी भी जल रहा है और इस हिंसा का असर अब पूर्वोत्तर क्षेत्र में महसूस किया जा रहा है, खासकर पड़ोसी राज्य मिजोरम में, जहां मणिपुर से 12,000 से ज्यादा विस्थापित कुकी (Kuki) लोगों ने शरण ले रखी है. इससे राज्य पर शरणार्थियों का बोझ बढ़ गया है.

मिजो और कुकी लोगों का भाईचारा

म्यांमार में सेना द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद से चिन समुदाय के करीब 35,000-40,000 लोग देश छोड़कर मिजोरम में शरण ले चुके हैं. इसके अलावा पिछले साल कुकी-चिन समुदाय के उग्रवादी संगठन कुकी-चिन नेशनल आर्मी और बांग्लादेश सेना के बीच हथियारबंद संघर्ष के बाद से 7000 से ज्यादा चिन-कुकी ने राज्य में शरण ली है. बांग्लादेश के चटगांव पहाड़ी क्षेत्र (Chittagong Hill Tract या CHT) में रहने वाले समुदाय के लोगों का यह संगठन आजादी की मांग कर रहा है.

मिजोरम के मिजो लोगों का म्यांमार के चिन, चटगांव हिल ट्रैक्ट के चिन-कुकी और मणिपुर के कुकी के साथ जातीय भाईचारा है. ये सभी जो जनजाति (Zo tribe) से जुड़े हैं. इनमें सांस्कृतिक समानताएं हैं और यह एक ही धर्म- ईसाई धर्म को मानते हैं.

मिजोरम 50,000 से ज्यादा शरणार्थियों के बोझ के साथ अब संसाधनों के बड़े संकट का सामना कर रहा है. राज्य के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो खत लिखे और राज्य में रहने वाले मणिपुर के विस्थापित लोगों के लिए आर्थिक मदद के तौर पर 10 करोड़ रुपये की मांग की. मगर केंद्र ने अभी तक राज्य को पैसा नहीं भेजा है. जिसके चलते मिजोरम सरकार ने मणिपुर के विस्थापितों की मदद के लिए राज्य के लोगों से दान देने की अपील की है.

असम को छोड़कर बाकी दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों की तरह मिजोरम भी आमतौर पर केंद्र की वित्तीय सहायता पर निर्भर है. केंद्र सरकार राज्य में चल रहे शरणार्थी संकट की ओर से आंखें नहीं मूंद सकती. इसे मिजो लोगों के साथ कुकी लोगों के जातीय एकरूपता को समझना होगा, जो मणिपुर में अपने जातीय भाइयों कुकी का हाल देखकर फिक्रमंद हैं.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

फिर उठी ग्रेटर मिजोरम की पुरानी मांग

मिजो लोगों की चिंता राज्य की राजनीति में दिखाई दे रही है, जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट (Mizo National Front) ने मणिपुर के 10 कुकी विधायकों की तरफ से उठाई गई अलग राज्य की मांग का समर्थन किया है. यहां तक कि राज्य की BJP इकाई ने भी मणिपुर में इस अलग राज्य की मांग का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है.

इससे पता चलता है कि मणिपुर की एन बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली BJP सरकार के शासन में किस तरह कुकी लोगों के साथ कथित भेदभाव राज्य के मिजो लोगों में असंतोष का कारण बन रहा है और नतीजन BJP की राज्य इकाई भी जनभावना के साथ जाने पर मजबूर हो गई है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

मणिपुर के कुकी समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग के लिए मिजो लोगों में बढ़ते समर्थन के बीच राज्य के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने भी ग्रेटर मिजोरम के लिए अपनी पार्टी की पुरानी मांग दोहराई है. जोरमथांगा मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) के प्रमुख भी हैं, यह मांग 1960 के दशक से चली आ रही है जब लालडेंगा ने MNF की स्थापना की थी, जो बाद में 1987 में राज्य के मुख्यमंत्री बने. इस मांग का मकसद मणिपुर के साथ ही असम और त्रिपुरा के जो-बहुल इलाकों का एकीकरण है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि यह दूसरी बार है जब जोरमथांगा ने ग्रेटर मिजोरम (Greater Mizoram) का मुद्दा उठाया है. मई में भी उन्होंने इसके बारे में चिंता जताई थी लेकिन तब वह सावधान थे क्योंकि उन्होंने कहा था कि मिजोरम मणिपुर के मामलों में दखल नहीं दे सकता है और एकीकरण की मांग मणिपुर के कुकी लोगों की ओर से आनी चाहिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

MNF का राजनीतिक जोड़-घटाव

ग्रेटर मिजोरम की यह मांग ग्रेटर नागालिम (Greater Nagalim) और ग्रेटर टिपरालैंड (Greater Tipraland) की मांगों जैसी है. इस तरह की मांगों में संबंधित समुदायों के साथ भावनात्मक जुड़ाव पैदा करने और चुनावों में भी भरपूर फायदा मिलने की काफी संभावना है, जैसा कि त्रिपुरा की क्षेत्रीय पार्टी टिपरा मोथा (TIPRA Motha) के उत्थान में देखा गया, जो पूरी तरह ग्रेटर टिपरालैंड की मांग पर जोर देकर एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी है. इस साल राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार चुनाव लड़ते हुए वह 13 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.

ग्रेटर मिजोरम का मुद्दा उठाने की MNF की अपनी राजनीतिक वजहें हैं. इस साल लुंगलेई नगर परिषद चुनाव में MNF को बड़ा झटका लगा है और वह अपना खाता तक खोलने में नाकाम रही. मुख्य विपक्षी दल जोरम पीपुल्स मूवमेंट (ZPM) ने परिषद की सभी 11 सीटें जीत लीं, जिससे पता चलता है कि सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर धीरे-धीरे मजबूत हो रही है.

ZPM परिषद चुनाव जीतने के लिए काफी आश्वस्त थी. वोट शेयर के मामले में भी ZPM 49.31% वोट हासिल कर MNF से काफी आगे रही, जिसे 29.4% वोट मिले. राजधानी आइजोल के बाद लुंगलेई राज्य का दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पांच साल की सत्ता विरोधी लहर का सामना करते हुए और ZPM के मजबूत होने की संकेतों के बीच मणिपुर में चल रहा घटनाक्रम MNF के लिए मौका है कि वह मणिपुर के अपने जातीय भाइयों कुकी के लिए पैदा हुई सहानुभूति का सहारा लेकर मिजो लोगों की भावनाओं का फायदा उठाए. यही वजह है कि जोरमथांगा मिजो लोगों को ग्रेटर मिजोरम के बैनर तले जो जनजातियों को एकजुट करने की अपनी पार्टी की पुरानी अधूरी ख्वाहिश की याद जगा रहे हैं.

यह देखते हुए कि ग्रेटर मिजोरम की मांग पर जोर देने से MNF को राजनीतिक फायदा मिलने की उम्मीद है, ZPM पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालदुहोमा ने हाल ही में सभी जो जनजातियों के एकीकरण के सपने का समर्थन किया है.

यह बयान ग्रेटर मिजोरम के हिमायती MNF द्वारा संभावित लाभ में सेंध लगाने के ZPM के इरादे का इशारा है. आखिरकार, चुनाव नजदीक होने पर जब मिजो लोगों की भावनाओं के दोहन की बात आती है, तो मुख्य विपक्षी दल भी पीछे नहीं रहना चाहेगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

केंद्र सरकार की जिम्मेदारी

मिजोरम से बाहर देखें तो मणिपुर, असम और त्रिपुरा में ग्रेटर मिजोरम के लिए अपनी क्षेत्रीय अखंडता में किसी भी बदलाव को स्वीकार करने की संभावना नहीं है. मणिपुर में पहले से ही मैतेई लोग जो राज्य के विभाजन के सख्त खिलाफ हैं, ग्रेटर मिजोरम के लिए मिजोरम के प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने से सतर्क हो गए हैं, जिससे हिंसाग्रस्त राज्य में और ज्यादा ध्रुवीकरण हो गया है, जो पहले से ही बहुत ज्यादा जातीय खेमेबंदियों में बंटा है.

इस साल चुनाव होने हैं, ऐसे में राजनीतिक दल अपने राजनीतिक फायदे के लिए मिजो लोगों की भावनाओं का दोहन करने की पूरी कोशिश करेंगे, लेकिन केंद्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि मिजोरम के शरणार्थी संकट को हल करने के लिए चुनावी राजनीति के जोड़-घटाव से ऊपर उठना उसकी जिम्मेदारी है.

ग्रेटर मिजोरम का मुद्दा, जिसमें क्षेत्र की स्थिरता को बिगाड़ने की पूरी क्षमता है, मणिपुर में जातीय हिंसा के चलते राजनीतिक लड़ाई में जगह बना रहा है. इस मुद्दे पर केंद्र के तत्काल प्रभावी राजनीतिक कदम उठाने का इंतजार है.

(सागरनील सिन्हा एक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @SagarneelSinha. यह एक ओपिनियन लेख है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×