भारत की आंतरिक सुरक्षा का परिवेश बहुत जटिल और चुनौतीपूर्ण है. इस पर बाहरी और घरेलू, दोनों हालात का असर होता है. आर्थिक भिन्नताओं, सामाजिक भेदभाव और दूसरे कई कारणों ने इन समस्याओं को जन्म दिया है. हमारे पड़ोसियों की दुश्मनी ने वित्तीय और लॉजिस्टिक मदद देकर इसे और बढ़ाया है. यह धारणा भी बनी है कि आदिवासियों को उनके अधिकारों से बेदखल करने की वजह से मध्य भारत में लंबे समय से माओवादी बगावत ने सिर उठाया है.
आजादी के बाद से हम लगातार आंतरिक सुरक्षा कि किसी न किसी समस्या से जूझ रहे हैं. यह अलग बात है कि भारत ने मिजोरम, असम और पंजाब जैसे राज्यों में विद्रोहों को काबू में किया है और नगालैंड में भी शांति कायम करके, खुद को मजबूत और एकजुट दर्शाया है.
यूं भारत एक विशाल देश है, यहां की आबादी बड़ी है और सामाजिक-आर्थिक परिवेश भी अलग-अलग है, जिसके चलते नई-नई चुनौतियां सामने आती रहती हैं. हमें इनके बारे में सतर्क रहना चाहिए और सैन्य, सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक पहल करके, इनसे निपटना चाहिए.
दो महीने से मणिपुर अशांत
मणिपुर में हिंसा का अंतहीन सिलसिला इस समय भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. जब मणिपुर हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि लंबे समय से मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग पर कार्रवाई की जाए, तो वहां जातीय हिंसा भड़क गई.
यह 3 मई की बात है. इस हिंसा में 130 जानें गईं, 60 हजार से ज्यादा लोग विस्थापित हुए. करोड़ों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ.
सीमावर्ती राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति अनिश्चित है. ये हालात सांप्रदायिक रंग ले सकते हैं. क्योंकि, 200 से अधिक गिरिजाघरों और 20 के करीब मंदिरों को जलाया जा चुका है. निरंतर हिंसा पूर्वोत्तर में अलगाववादी विद्रोह को फिर से जन्म दे सकती है, जिसमें नगा लोग ग्रेटर नागालिम की मांग, और अब कुकी आदिवासी अलग प्रशासनिक क्षेत्र/राज्य की मांग कर रहे हैं.
गवर्नेंस की कमी और सुरक्षा बलों की तैनाती में देरी, इन दो वजहों से हालात लंबे समय तक बेकाबू रहे. सरकार को दृढ़तापूर्वक काम करना चाहिए और समुदायों के बीच मेल-मिलाप कराना चाहिए. सुरक्षा बलों को भी निष्पक्ष तरीके से काम करना चाहिए और हर जातीय समुदाय का विश्वास जीतना चाहिए.
जम्मू कश्मीर की राजनैतिक अस्थिरता और पंजाब का अलगाववादी तनाव
जम्मू-कश्मीर में हालात अब काफी बेहतर हैं, लेकिन चुनौती बरकरार है. हालांकि, स्थिरता लाने के लिए जल्द से जल्द चुनाव कराए जाने चाहिए और राजनीतिक गतिविधियों को दोबारा शुरू किया जाना चाहिए.
हां, हमें अपने हथियार नहीं डालने चाहिए- क्योंकि पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी इन स्थितियों का फायदा उठा सकते हैं. इस दौरान इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कोई गलत कदम न उठाए जाएं.
पिछले दिनों खबर आई थी कि एक मेजर ने मस्जिद में लोगों से "जय श्री राम" के नारे लगवाए. इन कारस्तानियों से बचा जाना चाहिए. विकास का एजेंडा लागू किया जाना चाहिए और उद्योगपतियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे पर्यावरणीय प्रभाव को ध्यान में रखते हुए निवेश करें.
जल्द चुनाव से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास पैदा होगा और आशंकाओं को दूर करने में मदद मिलेगी.
पंजाब के हालात पर भी कड़ी नजर रखने की जरूरत है और एक बार फिर अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा देने की अमीर प्रवासियों की कोशिशों को नाकाम किया जाना चाहिए.
मीडिया को सावधानी बरतनी चाहिए और छोटी-छोटी घटनाओं को अलगाववादी रंग देकर उन्हें तूल नहीं देना चाहिए. पंजाब में अलगाववादियों के पास जमीनी स्तर पर समर्थन नहीं है. हालांकि, रोजगार के अवसरों की कमी और बड़े पैमाने पर नशीली दवाओं का सेवन कुछ ऐसे कारण हैं जिन पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए.
खुफिया और सीमा सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहना चाहिए और सीमा पार से आतंकवादियों की घुसपैठ के साथ-साथ लॉजिस्टिक्स को भी रोकना चाहिए.
खबर है कि पाकिस्तान ड्रोन की मदद से आतंकवादियों को लॉजिस्टिक्स पहुंचा सकता है, इस खतरे से निपटने के लिए तकनीकी समाधान ढूंढे जाने चाहिए.
माओवादी उग्रवाद से निपटना
मध्य भारत में माओवाद प्रभावित क्षेत्र में उग्रवाद हमारे संसाधनों को उलीच कर रहा है. हिंसा के स्तर को धीरे-धीरे नियंत्रण में लाया गया है.
इसकी शुरुआत 2009 में सीपीआई (माओवादी) पर प्रतिबंध लगाकर और पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए राज्यों को मदद देने के साथ हुई.
2009 में ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ को शुरू किया गया और धीरे-धीरे माओवाद प्रभावित क्षेत्रों तक इसे बढ़ाया गया.
मल्टी एजेंसी सेंटर (एमएसी) और राज्य एमएसी जैसे केंद्रों के माध्यम से खुफिया एजेंसियों के बीच समन्वय किया गया और सुरक्षा बलों का नैतिक उत्थान हुआ. इस प्रकार आतंकवादी गतिविधियों पर रोक लगी.
इसके अतिरिक्त सुरक्षा पर खर्च करने के लिए बड़ी धनराशि स्वीकृत की गई, जैसे पुलिस का आधुनिकीकरण, आत्मसमर्पण, राहत, पुनर्वास आदि.
बेहतर सड़क नेटवर्क तैयार करने और मोबाइल टावरों की स्थापना से संचार बेहतर हुआ. बेहतर प्रशिक्षण पर ध्यान देने और विशेष बलों को बढ़ाने से सुरक्षा बलों की क्षमता वृद्धि हुई. उनका प्रभाव बढ़ा.
जन-केंद्रित कार्यों ने बुनियादी ढांचे के विकास, गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य सेवा, नवोदय विद्यालयों के माध्यम से सुलभ शिक्षा और लड़कियों के लिए हॉस्टल बनाने पर ध्यान केंद्रित किया है, जिससे मानव विकास संकेतकों को बेहतर बनाने में मदद मिली है.
राज्य की छवि हिंसक और शोषणकारी रही है. इसे बदलने की कोशिश की जा रही है. इसके लिए वन और पुलिस कर्मियों को संवेदनशील बनाया जा रहा है और उन दो करोड़ आदिवासियों को उनके हक दिलाने की पहल की जा रही है, जो खनन कार्यों के चलते बेदखल हो रहे हैं.
पेसा (पंचायत विस्तार अधिनियम), वन अधिकार एक्ट 2006 और भूमि अधिग्रहण 2013 के जरिए कानूनी सुधार किए गए हैं, और आदिवासियों को सशक्त बनाया गया है. पेसा यह प्रावधान करता है कि आदिवासी बस्तियां भूमि की प्राथमिक हितधारक/मालिक हैं और उनकी राय जाने बिना, उन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता है.
सरकार ने 2015 में “एलडब्ल्यूई हेतु राष्ट्रीय रणनीति एवं कार्रवाई योजना” के अलावा समाधान (स्मार्ट लीडरशिप, एग्रेसिव स्ट्रैटेजी, मोटिवेशन एंड ट्रेनिंग, एक्शनेबल इंटेलिजेंस, डैशबोर्ड-बेस्ड केआरए, की परफॉर्मेंस इंडिकेटर्स एंड नो एक्सेस टू फाइनांसेज़) को भी लागू किया.
इसने हिंसा को कम किया. 2021 में नक्सलवादी घटनाओं की संख्या 674 थी, जो 2022 में घटकर 598 हो गई. इसके अलावा 2021 में 533 माओवादियों ने हथियार छोड़े थे. यह संख्या 2022 में बढ़कर 2853 हो गई.
यह कामयाबी इस आधार पर हासिल होनी चाहिए कि विकास के लाभ स्थानीय लोगों को मिलें और स्थानीय नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत सुरक्षा एवं जन केंद्रित पहल के सहयोग से की जाए. इसके अलावा इन इलाकों में राजनैतिक गतिविधियों के अभाव में जो खालीपन पैदा हुआ है, उसे भरा जाए.
कुछ उभरते संकट
आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी जिन सैन्यवादी चुनौतियों का जिक्र ऊपर किया गया है, उसके अलावा भी कई गैर पारंपरिक खतरे हैं. इनमें क्षेत्रीय और भाषा आधारित संघर्ष शामिल हैं.
दक्षिण भारत में लोगों को लग रहा है कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है, और वे इस बात का विरोध कर रहे हैं. क्षेत्रीय अंधराष्ट्रवाद के कारण 2010 में महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का, और 2012 में पूर्वोत्तर और बेंगलुरू से लोगों का पलायन हुआ.
इसकी वजह यह सोच थी कि राज्य के बाहर के लोग स्थानीय लोगों को उपलब्ध रोजगार के सीमित अवसरों को हड़प लेते हैं.
संवैधानिक गारंटी के बावजूद तथाकथित निचली जातियों के साथ बड़े पैमाने पर दुर्व्यवहार आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बन रहा है और इस पर संजीदगी से सोचा जाना चाहिए.
बढ़ती बेरोजगारी और समाज में कट्टरपंथ के कारण हमारी बड़ी जनसंख्या, जो हमारे लिए फायदेमंद हो सकती है, नुकसान में तब्दील हो रही है. बेरोजगार नौजवान तेजी से नशे की लत में फंस रहे हैं, जिससे छोटी-मोटी चोरी की घटनाएं बढ़ रही हैं.
बहुत से बेरोजगार युवा कानून अपने हाथ में ले रहे हैं और गंभीर अपराध कर रहे हैं, जैसे गोरक्षा और मवेशियों का व्यापार करने वालों की लिंचिंग, मॉरल पुलिसिंग वगैरह.
राजनैतिक दलों के लिए इन नौजवानों को शिकार बनाना आसान है, ताकि उनके सांप्रदायिक एजेंडा को फैलाया जा सके. इससे विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास पैदा हो रहा है.
सांप्रदायिकता हमारे देश की अखंडता के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है. हमें युवाओं के लिए पर्याप्त रोजगार सुनिश्चित करना होगा, जिससे उनकी ऊर्जा को राष्ट्र निर्माण में लगाया जा सके.
कम शब्दों में कहा जाए तो भारत आंतरिक सुरक्षा की कई चुनौतियों का सामना कर रहा है जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है. सरकार और समाज को सतर्क रहना चाहिए और इन मुद्दों को हल करने के लिए ठोस प्रयास करने चाहिए. ऐसा समग्र विकास, जिसमें सभी शामिल हों, भारत में उस विकास को हासिल करने का यही एक तरीका है.
(संजीव कृष्ण सूद (सेवानिवृत्त) ने बीएसएफ के अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में कार्य किया है और वह एसपीजी के साथ भी जुड़े थे. वह @sood_2 पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही है उसके लिए जिम्मेदार.)
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