मणिपुर में 23 सितंबर को मोबाइल इंटरनेट सेवाओं से पाबंदी हटाई गई. यानी राज्य में 3 मई को जातीय हिंसा भड़कने के बाद बंद की गयीं इंटरनेट सेवाओं को लगभग पांच महीने बाद शुरू किया गया था. लेकिन ऐसे में किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि बहुत जल्द यह कदम सदमे की नई लहर लाने वाला है.
पाबंदी हटाए जाने के दो दिन से भी कम समय में, कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं: दो नौजवान नाबालिगों की मौत से पहले और बाद की तस्वीरें सामने आईं. राज्य सरकार ने पुष्टि की है कि उनकी हत्या की गई.
लुवांगबी लिनथोइनगांबी हिजाम (उम्र 17 साल) और फिजाम हेमनजीत सिंह (20) वो दो स्टूडेंट थे, जिनके इस साल जुलाई में लापता होने की खबर मिली थी. जैसा कि पुलिस ने बताया, उन्हें आखिरी बार चुराचांदपुर की तरफ जाने वाली सड़क पर जिंदा देखा गया था. चुराचांदपुर एक ऐसे समुदाय के वर्चस्व वाला इलाका है, जिसका मृतक स्टूडेंट्स के समुदाय के साथ संघर्ष चल रहा है.
तम्फासाना गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में हिजाम ने पिछले साल तक पढ़ाई की थी. वहां के स्टूडेंट्स ने गम के माहौल में एक शोकसभा की. “टीचर और स्टूडेंट... हम सभी रो रहे थे. गहरा दुःख था लेकिन बेबसी पर गुस्सा भी था. उन्होंने ऐसा क्या गलत किया कि उन्हें मार डाला गया?” यह सवाल है एक स्टूडेंट का.
सामूहिक नाराजगी के साथ स्कूल (जो राज्यपाल के घर से चंद कदमों की दूरी पर है) के स्टूडेंट्स कक्षाओं से बाहर निकल आए और उन्होंने मानव श्रृंखला बनाई. जबकि कुछ शिक्षकों के साथ 30 से ज्यादा छात्रों का एक समूह लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर सरकारी संग्रहालय में एक शैक्षिक कार्यक्रम में शामिल होने पैदल जा रहा था.
तभी मानव श्रृंखला में शामिल स्टूडेंट्स पर गोली चलाई गई, जिसके बाद पास के दो स्कूलों– जॉनस्टोन हायर सेकेंडरी स्कूल और चूराचांदपुर हायर सेकेंडरी स्कूल के स्टूडेंट्स एकजुटता दिखाते हुए लड़कियों के स्कूल की ओर दौड़ पड़े. सुरक्षा बलों के जवानों ने एक स्कूल के ठीक सामने छात्रों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करते हुए लाठियों और आंसू गैस का इस्तेमाल किया जिससे लगभग 40 स्टूडेंट्स, जिनमें अधिकतर लड़कियां थीं, घायल हो गए.
शाम तक शिक्षा निदेशक (स्कूल्स) की तरफ से जारी एक सरकारी सूचना में बताया गया कि “राज्य सरकार के, राज्य सरकार से सहायता प्राप्त, निजी गैरसहायता प्राप्त स्कूल 27 और 29 सितंबर को बंद रहेंगे.” इससे छात्रों का गुस्सा और भड़क गया.
नाओबा (बदला हुआ नाम, 17 वर्ष) बताते हैं, “मंगलवार को ज्यादातर इलाकों में सिर्फ तीन स्कूलों के स्टूडेंट्स थे. लेकिन जिस तरह से सुरक्षा बलों ने हमारे साथ बर्बरता की, हम सभी ने अपने दोस्तों के नेटवर्क में एक-दूसरे से संपर्क किया. हम सबको एक साथ आने की जरूरत महसूस हुई और इस तरह बुधवार को एक रैली बुलाई गई.”
11वीं कक्षा के स्टूडेंट नाओबा बताते हैं, “हम सिर्फ यही चाहते थे कि मुख्यमंत्री हमें भरोसा दें कि हिजाम और फिजाम के लिए इंसाफ होगा. हम चाहते थे कि वह हमारी चिंताओं से वाकिफ हों और सुरक्षा बलों के उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई हो जिन्होंने छात्रों को बेरहमी से पीटा था. काकचिंग जिले के रहने वाले नाओबा और 30 दूसरे लोग रैली स्थल तक बस से आए थे.
हर कोई बिना खाना खाए स्कूल यूनिफॉर्म में ही पहुंचा था क्योंकि रैली का फैसला सुबह ही हुआ था और सभा का समय सुबह 8.30 बजे तय किया गया था. उनके स्कूल के आईडी कार्ड उनकी पहचान बता रहे थे. लेकिन किसी को भी न स्कूल की ड्रेस और न ही स्टूडेंट आईडी कार्ड, सुरक्षा बलों (राज्य पुलिस, आरएएफ, सेना) द्वारा फैलाए आतंक से बचा पाए.
सरकारी सूत्रों का दावा है कि छात्रों पर ‘न्यूनतम बल प्रयोग किया गया’, मगर पब्लिक डोमेन में ऐसे कई वीडियो और तस्वीरें हैं जो साफ दिखाते हैं कि छात्रों की सभा पर लाठीचार्ज, स्मोक बम और आंसू गैस छोड़ी गई थी. छात्रों पर इस्तेमाल किए गए आंसू गैस के गोलों के फोटो गवाही दे रहे हैं कि उनकी एक्सपायरी 2021 की थी.
मेडिकल रिपोर्ट से पता चलता है कि शायद बड़े पैमाने पर करीब से चलाई गई पैलेट बुलेट के इस्तेमाल से गंभीर चोटें आईं. सरकारी अस्पतालों में इमरजेंसी वार्ड में जगह कम पड़ गई, क्योंकि ऐसे लोग बहुत ज्यादा थे, जिन्हें ऑक्सीजन सपोर्ट और दूसरी इमरजेंसी मेडिकल केयर की जरूरत थी.
नागरिकों पर आंसू गैस बरसाना वैध?
आंसू गैस नॉन-लीथल वेपंस (NLW) कैटेगरी में आती है, जिसका मकसद मौत या स्थायी चोट पहुंचाए बिना, आसपास के वातावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाते हुए, लोगों को रोकना है. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के साथ-साथ दुनिया के कई इलाकों में कुछ अन्य मामलों में भी इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था.
कई देशों ने रासायनिक हथियारों पर पाबंदी से संबंधित अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर दस्तखत किए हैं, खासतौर से 1922 की वाशिंगटन संधि और 1925 के जेनेवा प्रोटोकॉल में आंसू गैस को दुर्लभ और बेहद कम मामलों में इस्तेमाल के तौर वर्गीकृत किया गया है, लेकिन साफ-साफ पाबंदी नहीं लगाई गई है. भारत में सीधी चोट से बचने के लिए आंसू गैस को करीब 45 डिग्री के कोण से दागा जाता है. इसे भीड़ पर सीधे नहीं दागा जाना चाहिए. इसमें शक नहीं कि पूरे देश में इसका उल्लंघन किया गया है.
मणिपुर के बाल अधिकार संरक्षण आयोग के एक पूर्व सदस्य ने अपना नाम छापने से मना करते हुए कहा, “आयोग के अध्यक्ष की तरफ से की गई अपील एक बेअसर कार्रवाई है. संघर्ष में बच्चे बिना वजह शिकार बनते हैं और सब जानते हैं तो किस तरह सुरक्षा बलों के जवान अपनी सीमा लांघने के आदी हैं. अर्धसैनिक बलों सहित कानून लागू करने वाली एजेंसियों को मई के शुरू में ही निर्देश भेज दिए जाने चाहिए थे और आयोग को जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत कानूनों का उल्लंघन करने के लिए सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेते हुए मामला अपने हाथ में लेना चाहिए. यहां तक कि अगर किसी नाबालिग ने अपराध किया हो, तब भी उसे वर्दी पहने पुलिसवाले द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता है. नाबालिगों पर लाठीचार्ज नहीं किया जा सकता है और उन्हें हट जाने की चेतावनी देनी चाहिए थी.”
विरोध प्रदर्शनों या उन्हें दबाने के लिए बहुत ज्यादा बल के प्रयोग से मणिपुर अनजान नहीं है. फिर ऐसा क्या था जिसने प्रदर्शनकारी छात्रों को यह जानते हुए भी कि हिंसा हो सकती है, रैली के लिए निकलने की हिम्मत दी? यह एक ऐसा सवाल था जिसे पूछा जाना चाहिए. तम्फासाना गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल की एक स्टूडेंट ने कहा, “क्या हमें उस दुख और निराशा को जाहिर करने की भी इजाजत नहीं है जिसे हम मणिपुर के नौजवान महसूस करते हैं? उन्होंने निहत्थे स्टूडेंट्स पर अंधाधुंध गोलीबारी क्यों की?”
फोन पर बात करते हुए उसकी आवाज भर जाती है और फिर थोड़ी देर की खामोशी के बाद 17 वर्षीय स्टूडेंट अपनी बात जारी रखते हुए कहती है, “हमें कभी भी कोई सच्ची उम्मीद नहीं थी कि वे (हिजाम और फिजाम) इतने समय के बाद भी सही सलामत मिल जाएंगे लेकिन उन्हें मारे जाने से कुछ लम्हे पहले की और उनके शवों की वायरल तस्वीरें... आप हमसे इससे बेअसर रहने की उम्मीद कैसे करते हैं?
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट तांगजा यामबेम लंबे समय तक सैन्य बलों की तैनाती और हिंसा के नतीजों के प्रति आगाह करती हैं. “आस-पास जो कुछ भी हो रहा है युवा वर्ग उससे मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से प्रभावित होते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि अकेले ही अनसुलझे सदमे का बोझ उठाते हुए लंबे समय तक हिंसा का सामना करने से उनका इंसानियत से भरोसा उठ सकता है. सुरक्षाकर्मियों द्वारा स्टूडेंट्स के खिलाफ हिंसा का रवैया पूरी तरह अस्वीकार्य है और इससे शासन व्यवस्था पर से भरोसा उठ सकता है.”
बुधवार के विरोध प्रदर्शन में शामिल इंफाल कॉलेज के प्रथम वर्ष के एक स्टूडेंट का कहना था, “जब हमने मारे गए दो स्टूडेंट की तस्वीरें देखीं, तो हमें महसूस हुआ कि अंतिम लम्हों में उनके चेहरे पर कितनी लाचारी के भाव थे. वे निहत्थे थे, उनका इरादा किसी को चोट पहुंचाने का नहीं था! उनके साथ ज्यादती की गई. हमें हर तरफ से निराशा मिली है.”
एक और स्टूडेंट ने बताया कि कैसे रैली के रास्ते पर एकदम अनजान लोगों ने उन स्टूडेंट्स के लिए अपने घर के दरवाजे खोल दिए जो सुरक्षा बलों की कार्रवाई शुरू होने के बाद इधर-उधर भाग रहे थे. उसने बताया कि, “हमें बदलने के लिए कपड़े दिए गए ताकि हम स्टूडेंट के रूप में पहचाने न जा सकें. हम उन्हीं की वजह से सुरक्षित अपने घर पहुंच सके.”
(Chitra Ahanthem नई दिल्ली में एक फ्रीलांस पत्रकार हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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