मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) के अस्थिर मुद्दे ने महाराष्ट्र (Maharashtra) में स्थापित राजनीतिक खिलाड़ियों और उनकी राजनीति पर पानी फेर दिया है.
यह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे सहित सत्ता में बैठे लोगों के एक वर्ग के लिए विशेष रूप से सच है, जो पहले से ही दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्यवाही का सामना कर रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभा अध्यक्ष को 31 दिसंबर तक 16 विधायकों के भाग्य का फैसला करने का निर्देश दिया है.
पिछड़े मराठवाड़ा क्षेत्र से मनोज जरांगे पाटिल चार करोड़ की आबादी वाले समुदाय के लिए एक अप्रत्याशित नायक के रूप में उभरे हैं, यहां के युवा नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के लिए बेचैन हैं.
मनोज जरांगे पाटिल का उदय
महाराष्ट्र में कोई भी पार्टी दूर-दूर तक फैले मराठों के खिलाफ एक शब्द भी बोलने का जोखिम नहीं उठा सकती, जिनका राज्य की आबादी में 32 से 34 प्रतिशत हिस्सा है.
हालांकि, सभी पार्टियां मराठों के लिए आरक्षण चाहती हैं, लेकिन वे राज्य में ओबीसी को नाराज नहीं करना चाहतीं, जिनकी संख्या तो अच्छी-खासी है, लेकिन वे एकजुट चेहरा पेश करने में नाकाम रहे हैं.
मराठा भले ही एक मार्शल समुदाय होने का दावा कर रहे हों, लेकिन विशेष रूप से उनमें से 'जो नहीं हैं' वह लोग चाहते हैं कि उनके समुदाय को पिछड़ों में शामिल किया जाए. हालांकि, यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है.
41 वर्षीय पाटिल ने शक्तिशाली राज्य सरकार को घुटनों पर ला दिया है. कई सांसद और विधायक ग्रामीण इलाकों में अपने घरों में नहीं जा पा रहे हैं, जबकि कई गांवों में राजनेताओं के प्रवेश पर रोक के बोर्ड लगे हैं. दो सांसदों ने इस्तीफा दे दिया है.
अब, पाटिल ने अपना अनशन दो महीने के लिए स्थगित कर दिया है ताकि राज्य सरकार, जहां भी संभव हो, मराठों को कुनबी जाति प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए कदम उठा सके, ताकि वे ओबीसी के रूप में आरक्षण का लाभ उठा सकें.
लेकिन यह मानना कि प्रक्रिया पूरी होने से मराठा आरक्षण का मुद्दा खत्म हो जाएगा, कम से कम मूर्खतापूर्ण है. संकटग्रस्त मुख्यमंत्री को दो महीने के लिए शांति मिल गई है.
मराठों और ओबीसी को लेकर सियासी गणित
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की चुप्पी बहुत कुछ कहती है. महाराष्ट्र में चुनावी झटका अगले पांच महीनों में होने वाले आम चुनाव में उनकी शक्ति की गणना को बिगाड़ सकता है.
हालांकि, कोई भी इसे सार्वजनिक रूप से नहीं कहेगा, लेकिन बीजेपी, जिसने राज्य में ओबीसी को कड़ी मेहनत से साधा है, वह मराठों को ज्यादा बोलने का मौका नहीं देगी.
मराठा परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे हैं और शरद पवार के अलग होने के बाद से वे एनसीपी के साथ भी हैं, जिसे काफी हद तक मराठा पार्टी के रूप में देखा जाता है.
वे एक प्रमुख समुदाय बनाते हैं जो हर विधानसभा के साथ-साथ हर लोकसभा क्षेत्र में मायने रखता है. पाटिल एक ऐसा उपनाम है जो ज्यादातर मराठों में पाया जाता है, विधायकों में उनकी संख्या सबसे ज्यादा रही है, चाहे विधानसभा कोई भी हो.
ज्यादातर मुख्यमंत्री मराठा और गैर-मराठा रहे हैं, और राज्य के गठन के बाद से उन्हें मराठों को हमेशा खुश रखना पड़ा है. शायद ही किसी अन्य राज्य में किसी अन्य समुदाय को इतनी ज्यादा राजनीतिक शक्ति प्राप्त हुई हो. जबकि शिंदे दृढ़ प्रयास कर रहे हैं, एक-तरफा प्रयास भी किए गए हैं.
बीजेपी के एक वर्ग का मानना है कि करीब 16 महीने पहले शिवसेना से अलग हुए शिंदे इस काम में सफल हो जाते हैं तो वो बीजेपी से अलग अपने-आप में एक बड़े नेता बन जाएंगे.
राजनीति अब भी जारी है. शिंदे के बॉस से दुश्मन बने पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को 1 नवंबर को हुई सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था. अपनी ओर से, ठाकरे ने आरक्षण मुद्दे पर संसद के विशेष सत्र की मांग करके मुश्किल हालात में फसाने की कोशिश की है. बीजेपी अन्य राज्यों में अन्य समुदायों के लिए आरक्षण की मांग को फिर से उठाने को बर्दाश्त नहीं करेगी. विपक्ष के एक वर्ग ने राज्य विधानमंडल का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है.
बीजेपी की त्रासदी यह है कि अजित पवार उसके गठबंधन में सबसे बड़े मराठा नेता होने के बावजूद आंदोलन को देखते हुए महत्वहीन साबित हुए हैं. मराठों और चीनी (शक्कर) के उत्पादन से लैस पश्चिमी महाराष्ट्र में पैठ बनाने के लिए इस साल की शुरुआत में बीजेपी ने पवार को डिप्टी सीएम बनाया था.
महाराष्ट्र बना अनिश्चित राज्य
अजीब बात है कि महाराष्ट्र एक तरफ जारांगे पाटिल की समय सीमा में फंस गया है, और दूसरी तरफ राजनीतिक वर्ग की पूरी असहायता है, खासकर सत्ता में बैठे लोग जो इस बात पर जोर देते हैं कि फुलप्रूफ आरक्षण देने के लिए प्रक्रियाओं को समय देने की जरूरत है.
बीजेपी के पास एक मजबूत मराठा नेता की कमी है और इसी वजह से एक साल पहले शिंदे को सीएम और हाल ही में अजित पवार को डिप्टी सीएम बनाया गया है. ये दोनों नेता मराठा हैं, और पवार चीनी (शक्कर) समृद्ध पश्चिमी महाराष्ट्र से आते हैं, जो इस महत्वपूर्ण राज्य में सत्ता की चावी रखता है.
राज्य में ओबीसी का एक बड़ा वर्ग है और वे फिलहाल ज्यादा कुछ नहीं कह रहे हैं, लेकिन उन्हें मराठों द्वारा उनके कोटा में सेंध लगाने की कोशिश पसंद नहीं है. वे अपने समय का इंतजार कर रहे हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि महाराष्ट्र एक 'असंभव संकट' में और फंस गया है, जिसे राजनीतिक वर्ग ने पिछले दो दशकों में पैदा किया है. इस बार, ज्यादा अशुभ रूप से, मराठा-ओबीसी टकराव के काले बादल मंडरा रहे हैं.
कुछ समय पहले, सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के उस कानून के खिलाफ फैसला सुनाया था जिसमें मराठों को उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर कोटा देने की मांग की गई थी. क्यूरेटिव पिटीशन दायर की गई है.
मराठों के एक वर्ग का मानना है कि समुदाय का 'ओबीसी-करण' सबसे अच्छा विकल्प है. चिंताजनक संकेत यह है कि आंदोलनकारियों का धैर्य जवाब दे रहा है क्योंकि पिछले दो दशकों से दिया जा रहा आरक्षण का वादा महज एक लटकती हुई उम्मीद बनकर रह गया है.
महाराष्ट्र, जो 2019 से राजनीतिक अस्थिरता, विभाजन और पलायन के साथ-साथ महामारी और अब सूखे के दौर से गुजर रहा है, राजनीतिक आकाओं के लिए यह एक अनिश्चित राज्य बन गया है.
जैसे-जैसे राज्य इस मुद्दे से जूझ रहा है, राजनीतिक वर्ग को शांतिपूर्ण और स्थायी समाधान खोजने के लिए एक कठिन लड़ाई का सामना करना पड़ेगा.
(सुनील गाताडे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के पूर्व एसोसिएट एडिटर हैं. वेंकटेश केसरी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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