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क्‍या मायावती को विपक्ष की ओर से पीएम उम्‍मीदवार बनाया जाना चाहिए?

सपा और बीएसपी गठबंधन 2019 में मोदी जी की ताजपोशी का खेल बिगाड़ सकता है.

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क्या मायावती देश की प्रधानमंत्री हो सकती हैं? या उन्हें मौजूदा माहौल में विपक्ष को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना चाहिए?

मायावती! प्रधानमंत्री? इस सवाल पर बहुत सारे लोग बिदकेंगे. वो भी बिदकेंगे, जो विपक्षी एकता के पक्षधर हैं. वो भी, जो नहीं चाहते कि किसी भी तरह का समझौता मायावती के साथ हो.

इसके दो कारण हैं. सबसे बड़ा कारण है मायावती की छवि. एक बड़ा तबका ये मानता है कि मायावती की छवि ठीक नहीं है. उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. उन पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कभी भी कस सकता है.

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दूसरा वो तबका है, जो जहनी तौर पर इस 'क्रांतिकारी' कदम के लिये कभी तैयार नहीं होगा. वो एक दलित को कभी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा नहीं देख सकता. वो राष्ट्रपति के तौर पर तो स्वीकार कर सकता है, जैसे कि मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद या फिर केआर नारायणन. मुख्य न्यायाधीश के तौर केजी बालाकृष्‍णन को. इस तबके ने रोते-गाते स्वीकार कर लिया था, पर देश के सबसे ताकतवर पद पर किसी दलित को देखना ये तबका शायद कभी बर्दाश्‍त नहीं करेगा. इसका एकमात्र कारण है जातिवाद.

मायावती की छवि कड़क मुख्यमंत्री जैसी है

ये सच है कि मायावती की छवि एक भ्रष्ट नेता की रही है, पर एक कड़क मुख्यमंत्री के रूप में उनका लोहा सारे लोग मानते हैं. उनके विरोधी भी कहते हैं कि सरकार पर उनकी पकड़ कभी ढीली नहीं रहती. वो अकेली मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपने ही एक दागी दबंग सांसद को अपने निवास पर बुलाकर गिरफ्तार करवाया था. एक प्रशासक के तौर पर वो कुशल मानी जाती हैं, पर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिये कड़क होना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं हो सकती.

देश में कई ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें कुशल प्रशासक कहा जाता है. टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू की छवि भी अच्छे प्रशासक की है. जयललिता को भी बेहतर प्रशासक कहा जाता था. नीतीश बाबू भी हैं. पर अपने राज्य के बाहर ये वोटर को प्रभावित नहीं कर सकते. इनकी अपनी जाति या समाज का कोई नया वोटर राज्य के बाहर नहीं जुड़ता. मायावती के साथ ऐसा नहीं है.

आज के माहौल में जब कि सारा विपक्ष मोदी को हराने की जुगाड़ में लगा है, तब मायावती ताश का इक्का साबित हो सकती हैं. इसका सबसे बड़ा कारण होगा उनका दलित होना. उनकी दलित पृष्‍ठभूमि उन्‍हें चुनावी लिहाज से बाकी से अलग कर देती है.

दलित तबके में है काफी गुस्सा

देश में इस वक्त दलित तबके में काफी गुस्सा है. वो उद्वेलित है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से दलितों के मन में इस चेतना का विस्तार हुआ है कि जैसे-जैसे हिंदुत्व का दावा मजबूत होता जा रहा है, तैसे-तैसे उन पर अत्याचार बढ़े हैं. उनके अधिकारों को कम किया गया है.

अगर सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी कानून में बदलाव कर उनके साथ अन्याय किया, तो विश्वविद्यालयों में विश्वविद्यालयों स्तर की जगह विभागीय आधार पर दलितों की नियुक्ति के मोदी सरकार के आदेश ने उनमें ये सोच पैदा की है कि ये पिछले दरवाजे से दलितों की शिक्षण संस्थानों में मौजूदगी को कम करने का प्रयास है. पहले से ही वो इस बात को लेकर चिंतित था कि संस्थानों में उनके लिये आरक्षित सीटों को रिक्त छोड़ दिया जाता था, अब ये प्रक्रिया और तेज हो जायेगी. वो ये सोचता है कि मोदी सरकार ने उन्हे शिक्षण संस्थानों से बेदखल करने का उपक्रम रचा है. फिर हिंदुत्व के तीखेपन की वजह से दलितों पर हुये किसी भी अत्याचार को वो बीजेपी या आरएसएस की सोच से जोड़कर भी देखता है.

हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला हो या फिर ऊना में कैमरे में कैद दलितों की पिटाई. या सहारनपुर में राजपूत बनाम दलित के बीच का संघर्ष. सहारनपुर की घटना के विरोध में दलितों ने बड़ी संख्या में दिल्ली में रैली कर अपनी मजबूत उपस्थिति का एहसास कराया था. इस रैली का नेतृत्व भीम सेना की तरफ से चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण ने किया था.

बजाय सवर्ण जातियों के खिलाफ कार्रवाई करने के, चंद्रशेखर को ही राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. एक साल से अधिक हो गया उसको गिरफ्तार हुए. इसी तरह से भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल के सालगिरह के मौके पर हिंसा हुई. दलितों को ही निशाना बनाया गया.

उनके समर्थकों को नक्सली बताकर जेल भेज दिया गया. पर जो हिंसा के असली दोषी थे, जो हिंदुत्व का झंडे बुलंद किये थे, वो छुट्टे घूम रहे हैं. इस घटना ने भी उनमें काफी आक्रोश पैदा किया है. इस आक्रोश की एक झलक मुंबई जाम के समय देखने को मिली थी. और बाद में ये गुस्सा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में भारत बंद के सफल आह्वान में भी दिखा था.

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आखिर कहां से आता है ये गुस्सा?

पिछले सालों में दलित मुद्दों से जुड़ी सैकड़ों वेबसाइट खड़ी हो गई हैं. सोशल मीडिया ने दलितों के गुस्से को नया आयाम दिया है. उनमें नई एकता का संचार हुआ है. वो खुलकर अपने गुस्से का इजहार भी कर रहा है. ऐसे वेबसाइट पर हिट्स लगातार बढ़ रहे हैं.

ऊना की घटना के बाद अहमदाबाद में बिना किसी पार्टी या संगठन के लाखों दलितों का जुड़ना एक बड़ी घटना है. इस रैली ने दलितों को नया नेता दिया, जिसका नाम जिग्नेश मेवाणी है. जो पढ़ा लिखा है. मुद्दों को समझता है और बेहद ईमानदार है.

जिग्नेश और चंद्रशेखर जैसे लोग दरअसल नई दलित चेतना के वाहक हैं. उसके नये प्रतिबिंब है. ये वो तबका है, जो बाबासाहेब आंबेडकर को जमकर पढ़ रहा है. जिसके पास टेक्नोलॉजी की ताकत है. वो अपढ़ नहीं है. उसने पढ़ रखा है कि बाबासाहेब ने 'एनीहीलेशन ऑफ कास्ट' लिखकर ये बताया कि कैसे ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था ने दलितों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया, उसे पढ़ने लिखने से वंचित रखा, उसके लिये प्रगति के सारे रास्ते बंद कर दिये.

ये गुस्सा कहीं न कहीं तो निकलेगा. पर इस गुस्से को आकार देने के लिये बीएसपी के अलावा अभी भी कोई राजनीतिक दल नहीं है. महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी है, पर वो कई टुकड़ों में बंटी है. एक धड़ा बीजेपी के साथ है, जिसे वो पसंद नहीं करता.

बीएसपी अकेली ऐसी पार्टी है, जो आज भी अपना वजूद बनाकर रख सकी है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में हालांकि उसको मिलीं सिर्फ 18 सीटें, पर उसके वोटों का आंकड़ा समाजवादी पार्टी से थोड़ा आगे हैं, तकरीबन 22.2% . जबकि समाजवादी पार्टी को वोट मिले 21.8% !

(नोट: 2017 के यूपी चुनाव में SP केवल 300 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जबकि कांग्रेस ने 100+ सीटों पर उम्‍मीदवार उतारे थे. दूसरी ओर BSP सभी 400+ सीटों पर चुनाव लड़ी थी)

यानी ये प्रचार मिथ्या है कि यूपी में मायावती खत्म हो गई हैं. हां, उसकी सीटों की संख्या में जरूर अप्रत्याशित कमी आयी है. आंकड़े गवाह हैं कि बीएसपी का सामाजिक आधार जिंदा है.

इसके अलावा कांशीराम की मेहनत की वजह से कुछ राज्यों में उसके पास अच्छे खासे वोट हैं. राजस्थान, मध्यप्र देश और छत्तीसगढ़, जहां नवंबर-दिसंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं, अगर बीएसपी के वोटों को कांग्रेस से मिला दिया जाये, तो बीजेपी को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है. तीन में से दो राज्य बीजेपी के हाथ से निकल भी सकते हैं.

सबसे बड़ी बात ये है कि मायावती आज भी दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं, जिनके पास सबसे मजबूत संगठन है. उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल रहा है. अगर विपक्ष मायावती को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करे, तो देशभर का दलित उसके पीछे गोलबंद हो सकता है.

मायावती के रूप में विपक्ष के पास एक ऐसा ‘एक्स फैक्टर’ होगा, जिसकी काट बीजेपी के पास नहीं होगी. दलित होने के कारण उस पर तीखे हमला करना आसान नहीं होगा.
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2019 में खेल बदल सकता है दलित समुदाय

बीजेपी को इस बात का एहसास था कि दलित उससे नाराज हैं. इस नाराजगी को कम करने के लिये ही रामनाथ कोविंद को, एक दलित को राष्ट्रपति बनाया. और अभी पिछले हफ्ते राज्यसभा में पूर्वी यूपी से एक अनजान से दलित नेता, राम सकल को नॉमिनेट किया. ये इस बात का प्रमाण है कि बीजेपी चिंतित है, परेशान है. वो हर हाल में दलित आक्रोश को कम करना चाहती है. वो जानती है कि यूपी में उसका सूपड़ा साफ हो सकता है.

सपा और बीएसपी गठबंधन 2019 में मोदी जी की ताजपोशी का खेल बिगाड़ सकता है. और अगर मायावती को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए, तो यूपी में 'गैर-जाटव' वोट, जिसमें बीजेपी ने 2014 और 2017 में सेंध लगाई थी, वो पूरी तरह से विपक्ष के पास आ सकता है. ऐसा होते ही कम से कम यूपी में जहां बीजेपी को अपना दल समेत 73 सीटें मिली थीं, वो आंकड़ा पूरी तरह ध्वस्त हो सकता है. बीजेपी के लिये ये तबाही का सबब भी बन सकता है.

मायावती स्वाभाविक उम्मीदवार भी हो सकती हैं. यूपी में समाजवादी पार्टी से गठबंधन की स्थिति में उसके पास देश में कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सांसद भी हो सकते हैं. इस अनहोनी से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है. पर इसके लिये कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाना होगा. वैसा ही दिल जैसे कि कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना कर दिखाया.

ममता बनर्जी को भी अपनी महत्वाकांक्षा पर लगाम लगानी होगी. अखिलेश यादव को भी सब्र करना होगा. पर अगर विपक्ष ये मानता है कि मोदी और आरएसएस देश के लिये खतरनाक है और विपक्ष की पहली प्राथमिकता देश बचाना है, खुद प्रधानमंत्री बनना नहीं, तो ये तुरुप का पत्ता चला जा सकता है. ये देश के लोकतंत्र को लिये बड़ी बात होगी. 20% आबादी को आखिर कब तक प्रधानमंत्री की कुर्सी से दूर रखा जा सकता है?

1977 में एक मौका था, जब वो जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बना सकता था. तब विशुद्ध जातिवाद की वजह से देश ने वो मौका खो दिया है. पर आज इस घटना के 41 साल बाद इतिहास ये कदम क्यों नहीं उठा सकता? फासीवाद से लड़ने के लिये इस तरह के अप्रत्याशित कदम ही कारगर हो सकते हैं.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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