मेहुल चोकसी (Mehul Choksi) को वापस भारत लाकर ट्रायल शुरू करने से जुड़ी जटिलताएं इस तथ्य को साबित करती हैं कि प्रत्यर्पण पर अधिकांश निर्णय डिप्लोमेसी और कार्यकारी निर्णयों से जुड़े होते है.पिछले 15 दिनों में भारत का इस तर्क पर बल देना कि चोकसी अभी भी भारतीय नागरिक है और डोमिनिका (Dominica) में उसके 'प्रतिबंधित अप्रवासी' घोषित हो जाने के साथ इस संभावना को बल मिला है कि उसे जल्द ही भारत लाया जा सकेगा.
हालांकि डोमिनिका में कानून के शासन ,उचित प्रक्रिया और मौलिक/मानव अधिकार के मुद्दे पर चोकसी द्वारा आरंभिक कार्यकारी आदेश को चुनौती दिया जा सकता है. ये प्रावधान कार्यकारी शक्तियों को सीमित करके कार्यकारी निर्णयों से जुड़े दुरुपयोग को रोकने का काम करते हैं.
अक्सर इन कानूनी उपायों का प्रयोग भगोड़ों द्वारा उनकी वापसी को विफल करने या उस में देरी करने के लिए किया जाता है. सबकी नजर इस पर भी है कि कहीं चोकसी का स्वास्थ्य आधार पर अदालत की सुनवाई में मौजूद ना रहना उसको वापस लाने की प्रक्रिया में बाधा ना बने.
चोकसी जैसे लोगों को वापस लाने के विभिन्न तरीके
किसी वांटेड आरोपी को अपने न्याय क्षेत्र में लाने के लिए कई तरीकों या उपायों का प्रयोग किया जा सकता है- उठा लेना या अपहरण,Expulsion Simpliciter, अपने बॉर्डर के अंदर ढकेल देना, किसी देश में प्रवेश को मंजूरी नहीं देना, डिपोर्टेशन और प्रत्यर्पण. इनमें से कौन सा उपाय अपनाया जाएगा, वह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है.जैसे-
- जुर्म की संगीनता
- शामिल आरोपी
- शासन में खुलेपन और पारदर्शिता का स्तर
- पार्टनर स्टेट में न्यायिक सक्रियता का स्तर
- प्रेस और मीडिया की आजादी का स्तर
- शामिल देशों के बीच क्षेत्रीय निकटता
- शामिल देशों के बीच अपराध की परिभाषा और उस पर दोनों के बीच सहमति
वांटेड आरोपी की राष्ट्रीयता या शामिल देशों के नागरिकता संबंधी कानून भी महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं .इन कारकों के साथ अन्य कारक यह निर्धारित करते हैं कि वांटेड भगोड़े के वापसी की रफ्तार क्या होगी.एक बार जब वांटेड आरोपी वापस आ जाता है, तब उसे किस तरह से लाया गया-इसका न्यायिक कार्यवाही और सजा सुनाने में उतना महत्व नहीं रह जाता, विशेषकर तब जब आरोपी भगोड़ा अपराधी हो.
कभी-कभी राष्ट्रों के बीच मजबूत संबंध भी 'गैर अपराधी' भगोड़ों की वापसी में मददगार हों सकते हैं. हालांकि इस तरह की कार्यवाही घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेगेटिव पब्लिसिटी का कारण हो सकती है.अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नेगेटिव पब्लिसिटी भविष्य में भगोड़ों की वापसी के प्रयास को संभावित रूप से नुकसान पहुंचा सकती है.
अंतर्राष्ट्रीय कानून और प्रथाएं सार्वभौमिक तौर पर राजनीतिक अपराधों से संबंधित आरोपियों की वापसी को प्रतिबंधित करते हैं. यही कारण है कि चोकसी, नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे भगोड़े ‘राजनीतिक अपराध’ या ‘उत्पीड़न’ या ‘मुकदमों में पूर्वाग्रह की संभावना’,जेलों की स्थिति और ‘मीडिया ट्रायल’ ऐसे बहानों का सहारा लेते हैं.
प्रत्यर्पण की मांग के लिए दोहरी आपराधिकता स्थापित करना
प्रत्यर्पण-जोकि भगोड़ों की वापसी की कानूनी प्रक्रिया है- आमतौर पर दोहरी आपराधिकता के न्यायिक तंत्र द्वारा निर्धारित होती है. दोहरी आपराधिकता में यह शामिल है कि जो देश प्रत्यर्पण की मांग कर रहा है वह सामने वाले देश के न्यायिक अथॉरिटी को यह तथ्य साबित करने और समझाने में सक्षम हो कि अपराधी द्वारा किया गया जुर्म दोनों देश में अपराध है, चाहे दोनों जगह उसके अपराध के लिए अलग-अलग नाम हो. साथ ही प्रत्यर्पण की मांग करने वाले देश को सामने वाले देश के न्यायिक अथॉरिटी को यह साबित करने में सक्षम होना चाहिए कि कम से कम 'पहली नजर' में भगोड़े के अपराध को सिद्ध करने के लिए जरूरी साक्ष्य मौजूद हैं.
दोहरी अपराधिकता के पीछे का नैतिक और कानूनी तर्क यह है कि किसी भी देश की न्यायिक अथॉरिटी से, जिससे प्रत्यर्पण की मांग की गई है, किसी भगोड़े व्यक्ति के अधिकारों को अस्थाई रूप से प्रतिबंधित या उसे वापसी की अपेक्षा तबतक नहीं की जाती है जब तक कि उसके द्वारा किया गया कथित अपराध उस देश में भी अपराध की श्रेणी में ना आता हो. जब वह न्यायिक अथॉरिटी अपने स्वयं के कानून से आरोपी का अधिकार नहीं छीन सकती तब वह इसके लिए आरोपी को किसी अन्य देश को कैसे सौंप सकती है? यही इसके पीछे का मूल तर्क है.
क्यों डिपोर्टेशन की जगह प्रत्यर्पण ज्यादा कारगर विकल्प?
डिपोर्टेशन/निर्वासन दूसरे सिद्धांत पर काम करता है- कि आरोपी भगोड़े कि उस क्षेत्र या न्यायिक क्षेत्र में मौजूदगी स्वीकार्य नहीं है. डिपोर्टेशन एक व्यापक अवधारणा है,यह अपराधियों के साथ-साथ गैर-अपराधियों पर भी लागू हो सकती है. लेकिन डिपोर्टेशन अनिवार्य रूप से विदेशी नागरिकों का ही कर सकते हैं,अपने नागरिक का नहीं. संप्रभु राष्ट्र को किसी भी विदेशी को डिपोर्ट करने या उसको प्रवेश देने से इनकार करने का पूर्ण अधिकार है.
डिपोर्टेशन एक संप्रभु राष्ट्र का अधिकार है ना कि कर्तव्य.औपचारिक रूप से डिपोर्ट करने की मांग करना दरसल दूसरे देश से आपके पक्ष में अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए कहने के समान है. हालांकि राष्ट्र अपने स्वयं के नागरिकों को निर्वासित करने के लिए या उन्हें औपचारिक या अनौपचारिक रूप से सौंपने के लिए अपने पार्टनर राष्ट्र पर जोर डालते हैं .कहने की जरूरत नहीं है कि निर्वासित किए जा रहे व्यक्ति के पास भी ‘उचित प्रक्रिया’ या ‘रिट दायर’ करने जैसे लीगल विकल्प मौजूद होते हैं.
डिपोर्टेशन उस देश की इच्छा पर निर्भर करता है जिसके क्षेत्र में वांटेड आरोपी पाया गया है. बावजूद इसके आरोपी को सौंपने का निर्णय पार्टनर देश द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों के आधार पर लिया जाता है .अगर और सारी बातें समान हो तो भगोड़े की वापसी के लिए प्रत्यर्पण पसंदीदा विकल्प होना चाहिए क्योंकि यह अपने पैर पर चलने (खुद का सबूत) के समान होगा ना कि दूसरे के बैसाखी पर. अगर किसी को इतने से संतुष्टि नहीं है तो प्रत्यर्पण के साथ-साथ डिपोर्टेशन का भी प्रयास करना चाहिए, शायद मेहुल चोकसी के साथ भी.
भगोड़ों द्वारा लीगल विकल्पों के दुरुपयोग पर भारत को क्या करना चाहिए?
प्रत्यर्पण की मांग कर रहे देश और एजेंसियों को सामने वाले देश के पास आपराधिक मामलों के लिए 'म्यूचुअल लीगल असिस्टेंट'(MLA) का अनुरोध भेजना चाहिए ताकि बीच की अवधि में भगोड़े से अतिरिक्त सबूत और बयान प्राप्त किया जा सके.उसके बाद दोनों देश मिलकर आरोपी को उसके राष्ट्रीयता वाले देश में अपनी बाकी की सजा काटने के लिए स्थानांतरण करने की संभावना का पता लगा सकते हैं.
चोकसी, नीरव, माल्या और उनकी तरह अन्य भगोड़ों द्वारा अपने लीगल विकल्पों के दुरुपयोग को रोकने के लिए जिन देशों में वें मौजूद हैं ,वहीं कानूनी कार्यवाही शुरू करने की संभावना का भी पता लगाना चाहिए. विशेष रूप से जब आरोपी ने वहां की नागरिकता ले रखी हो या जहां प्रत्यर्पण का विकल्प मौजूद न हो.
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसी आधुनिक तकनीक का उपयोग दोनों MLA और प्रत्यर्पण कार्यवाही के लिए किया जाना चाहिए. इस तरह कार्यकारी एवं न्यायिक,दोनों चरणों में वर्चुअली शामिल होने से भगोड़े की वापसी में तेजी आ सकती है.
(रुपिन शर्मा 1992 बैच के IPS ऑफिसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @rupin1992. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं.क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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