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#MeToo से देश की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा!

अगर वर्कप्लेस में महिलाओं को सुरक्षित माहौल मिलता है, तो इससे कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ेगी और देश तरक्की करेगा

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भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां वर्क फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद कम, लगभग 25 परसेंट है. जिन 131 देशों में इस बारे में आंकड़े जुटाए जाते हैं, उनमें भारत 121वें नंबर पर है. दक्षिण एशियाई यानी अड़ोस-पड़ोस के देशों में हम सिर्फ पाकिस्तान से अंगुल भर ऊपर है. लेकिन मुश्किल यह कि जहां पाकिस्तान में वर्क प्लेस में महिलाओ की हिस्सेदारी सुस्त रफ्तार से ही सही, लेकिन बढ़ रही है, वहीं भारत की त्रासदी यह है कि यहां वर्क फोर्स में महिलाओं की हिस्सदारी घट रही है. यानी भारत में महिलाएं कामकाजी बनने की जगह, घर के दरवाजे के अंदर बंद होती जा रही है.

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विश्व बैंक के एक रिसर्च पेपर में भारत में नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि उदारीकरण के बाद के दौर में महिलाओं की उत्पादक कामकाज में हिस्सेदारी लगातार घट रही है. ये गिरावट ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है, जबकि शहरी इलाके ठहराव का सामना कर रहे हैं. अर्थशास्त्री आम राय से मानते हैं कि अगर ज्यादा से ज्यादा महिलाएं कामकाज से जुड़ेंगी, तो देश तेजी से तरक्की करेगा.

मैकेंजी एंड कंपनी की एक रिपोर्ट द पावर ऑफ पैरिटी के मुताबिक, अगर भारत में वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी में 10 परसेंट की भी बढ़ोतरी होती है, तो देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 770 अरब डॉलर की बढ़ोतरी होगी और इस तरह देश की विकास दर 16 फीसदी की छलांग लगाकर सालाना 9 परसेंट के आसपास पहुंच जाएगी.

इस दर से विकास करना ही भारत का सपना है. अभी महिलाएं देश की जीडीपी में सिर्फ 17 परसेंट का योगदान करती हैं, जबकि दुनिया की जीडीपी में महिलाओं का योगदान 37 परसेंट है. ऐसा नहीं है कि भारतीय महिलाएं काम नहीं करतीं, या मेहनती नहीं हैं. समस्या यह है कि वे जिस घरेलू कामकाज में अकसर जिंदगी लगा देती हैं, उस काम का जीडीपी की गणना में इस्तेमाल नहीं है.

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विकास के आंकड़ों का #MeToo से क्या लेना देना?

लेना-देना है. भारतीय महिलाओं का कामकाजी न होना, बल्कि कामकाजी महिलाओं का लाखों की संख्या में फुल टाइम गृहिणी की जिंदगी में लौट जाना एक गंभीर चिंता की बात है. #MeToo आंदोलन से इस समस्या के समाधान का एक रास्ता निकल सकता है. #MeToo और भारत की तरक्की के रिश्ते को समझने से पहले एक बार #MeToo के बारे में जान लेते हैं. इस पूरे मामले को इन शब्दों में समझा जा सकता है –

“मीटू महिलाओं का अपने शरीर और अपने अस्तित्व पर अपने हक को दर्ज कराने का सोशल मीडिया पर चला अभियान है, जिसमें वे उन नई-पुरानी घटनाओं को लिख-बता रही हैं, जब कभी किसी पुरुष ने उनकी सहमति के बिना उनके साथ शाब्दिक, या शारीरिक या दूसरे किस्म की जबर्दस्ती की और उनके शरीर या उनके अस्तित्व पर उनके अधिकार के सिद्धांत का उल्लंघन किया.”
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#MeToo कामकाजी महिलाओं का कैंपेन है

#MeToo को लेकर सोशल मीडिया पर चली मुहिम में एक बात कॉमन है. यौन उत्पीड़न के खिलाफ ये आवाज शहरी, पढ़ी-लिखी, कामकाजी और प्रोफेशनल महिलाओं ने उठाई है. ये महिलाएं एंटरटनेमेंट, फिल्म, टीवी प्रोग्रामिंग, न्यूज मीडिया, लॉ, एडवर्टाइजिंग और एकेडमिक दुनिया और मिलते जुलते सेक्टर्स से जुड़ी हैं, जो तेज विकास के क्षेत्र हैं. इन सेक्टर्स में महिलाएं बड़ी संख्या में आई हैं, लेकिन ऊपर के पदों पर पुरुष अभी भी छाए हुए हैं. आने वाले दिनों में दूसरे क्षेत्रों की महिलाएं भी जुबान खोल सकती हैं. #MeToo की ज्यादातर शिकायतें सबॉर्डिनेट महिलाओं ने अपने पुरुष बॉस के खिलाफ की है. जाहिर है कि वर्क प्लेस में यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं. ऐसी घटनाओं का वर्क प्लेस में महिलाओं की मौजूदगी और उनकी तरक्की पर बुरा असर पड़ता है.

वर्क प्लेस में यौन उत्पीड़न उन बड़ी वजहों में है, जिसकी वजह से महिलाएं घर से बाहर आकर कामकाज नहीं करना चाहती हैं. #MeToo को लेकर शिकायत करने वाली कई महिलाओं को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी और कईयों ने तो अपना प्रोफेशन ही बदल लिया. विश्व बैंक और मैकेंजी एंड कंपनी ने भारत में कामकाजी महिलाओं की कमी पर अपनी रिपोर्ट लिखते समय वर्क प्लेस में यौन उत्पीड़न को इस समस्या की एक वजह के तौर पर चिन्हित किया है.

यौन उत्पीड़न की हर घटना बेशक एक महिला को प्रभावित करती है, लेकिन इससे वर्क प्लेस की छवि पर भी असर पड़ता है और मां-बाप लड़कियों को काम पर भेजने से कतराते हैं. खासकर शादी के बाद पति और परिवार के कहने पर बड़ी संख्या में महिलाएं नौकरी पर जाना बंद कर देती हैं. परिवार के इस फैसले के पीछे काम की जगहों को लेकर प्रचलित छवि का भी योगदान होता है. ये धारणा यूं ही नहीं बनी है कि खाते-पीते परिवार की बहुएं काम पर नहीं जातीं. इसके पीछे जिम्मेदार वे घटनाएं भी हैं, जिनका जिक्र #MeToo के जरिए सामने आ रहा है.

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अब अगर ऐसी घटनाओं को लेकर अवयरनेस बढ़ती है और खासकर पुरुष अफसर और बॉस यौन उत्पीड़न से बाज आते हैं या उनके मन में किसी तरह का डर बैठता है कि पीड़ित औरत बाद में भी मुंह खोल सकती है, तो इन घटनाओं में कमी आ सकती है. इसलिए बेहद जरूरी है कि #MeToo अभियान असरदार हो और दोषियों को न सिर्फ कानून सजा दे, बल्कि समाज की नजर में भी ऐसे लोगों का सम्मान खत्म हो. अगर वर्क प्लेस में यौन उत्पीड़न को लेकर ज्यादा स्पष्ट कानून और दिशानिर्देश बनाने की दिशा में सरकार पहल करती है, तो इससे महिलाओं के कामकाजी होने में आसानी होगी.

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महिलाओं का कामकाजी होना कई तरह से महत्वपूर्ण है. एक महिला जैसे ही नौकरी या कामकाज के सिलसिले में आठ या दस घंटे घर के बाहर रहने लगती हैं, उसके परिवार में एक और रोजगार की संभावना बन जाती है. ऐसी महिलाएं अक्सर अपने घर में कुक, सफाई के लिए हेल्पर और बेबी सिटर को काम पर रख लेती हैं. यानी एक महिला का नौकरी पर होना कई और महिलाओं के लिए कामकाज की संभावनाएं लेकर आता है.

वहीं पुरुष के नौकरी करने का मतलब यह होता है कि घर औरत संभाल लेगी. इससे कोई नया रोजगार पैदा नहीं होता. तक्षशिला इंस्टिट्यूशन की एक रिसर्च के मुताबिक एक महिला जब नौकरी छोड़ती है तो इससे औसत 1.3 लोगों का रोजगार प्रभावित हो जाता है. इसलिए बेहद जरूरी है कि यौन उत्पीड़न के कारण देश में एक भी औरत को काम छोड़ने की नौबत न आए और कामकाज के स्थान के बारे में ये छवि न बने की ये जगहें औरतों के लिए सुरक्षित नहीं हैं और कि वहां यौन उत्पीड़न करके लोग बच निकलते हैं.

भारत में कामकाजी महिलाओं की कम संख्या तमाम और कारणों से भी है. लेकिन #MeToo ने उनमें से एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर लोगों का ध्यान खींचा है. अगर ये मुहिम आगे बढ़ती है और असरदार साबित होती है, तो इससे ज्यादा महिलाएं नौकरी करने के लिए आएंगी. आप जानते हैं कि भारत की जीडीपी बढ़ाने और देश की तरक्की के लिए ये कितना जरूरी है.

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