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रील से रियल तक UP का अपराध छाया, ‘मिर्जापुर’ के बाद पार्ट-2 आया

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-

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'दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं-जिंदा और मुर्दा और फिर होते हैं तीसरे घायल, हम से सब छीन लिए और फिर जिंदा छोड़ दिए, गलती किए'- इंतकाम के खुमार से भरपूर इस डायलॉग पर गोलियों के ग्राफिक्स से बनता हुआ 'मिर्जापुर'. कुछ इस तरह से अमेजन प्राइम वीडियो की वेब सीरीज मिर्जापुर-2 की तारीख मुकर्रर हुई है- 23 अक्टूबर.

विद्या बालन ने अपनी फिल्म डर्टी पिक्चर में एक डायलॉग बोला था, फिल्में सिर्फ तीन चीजों से चलती हैं- एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट. हालांकि, हाल-फिलहाल में OTT का जमाना आते ही फॉर्मूला थोड़ा बदला है, अब ये वेब सीरीज चल रही हैं- बदमाशी, दबंगई, गुंडागर्दी,मारधाड़ वाले एंटरटेनमेंट से, 'मिर्जापुर', 'सेक्रेड गेम्स' जैसे शो की लोकप्रियता इस फॉर्मूले की तस्दीक करते हैं. और जब ऐसे एंटरटेनमेंट में यूपी की कनपुरिया या पूरबिया भाषा की छौंक लग जाती है तो आपको ऑफिस में भी ऐसे लोग मिल ही जाते हैं, जो अचानक सीरीज देखकर आने के बाद आपसे- 'काबे, सुन रहे हो, चाचा ओ चाचा, कंटाप देंगे, हमको घंटा फरक नहीं पड़ता है' जैसी भाषा में बात करने लग जाएं.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-
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कहानी वही है जो आप जानते हैं!

खैर, ‘फिलॉस्पी’ से इतर बात करते हैं इस सीरीज की, ये कहानी है उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की. शो में बंदूक, ड्रग्स और जरायम की दुनिया की बात है. पहले पार्ट में सीरीज के विलेन या कहें तो हीरो कालीन भइया (पंकज त्रिपाठी) दबंग अपराधी हैं, कहानी उनके इर्द-गिर्द है. वहीं जब दो भाई, गुड्डू और बबलू (अली फजल और विक्रांत मैसी) उनके धंधे में शामिल होते हैं तो क्या-क्या होता है, दिखाया गया है. दिव्येंदु शर्मा बने हैं ‘मुन्ना भइया’ जो बिगड़ैल बाप के अति बिगड़ैल बेटे हैं, सीरीज के आखिर में कई लोगों को निपटा देते हैं और जो शुरू में घायल बचने की बात हो रही थी वो घायल बचते हैं गुड्डू माने अली फजल.

उम्मीद है कि इस सीरीज में गुड्डू अपने परिवार के कत्ल का बदला मुन्ना भइया से लेंगे, गैंगवार होगा, अतरंगी डायलॉग होंगे, ऐसा होगा सीजन-2.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-
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सत्या, गैंग्स ऑफ वासेपुर से मिर्जापुर तक...एक दौर है

साल 1997 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्म जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं- गैंगवार, गैंगस्टर पर बनी फिल्मों का चलन. इसके बाद इसी जॉनर की कई फिल्में आईं. 'वास्तव' जैसी कुछ बेहद शानदार फिल्में तो बाद में अधकचरी स्क्रिप्ट को लेकर अलबल टाइप की गैंगस्टर कहानियां भी बनाई जाने लगीं.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-

दूसरा दौर आया साल 2012 में, अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वॉसेपुर के साथ. इस फिल्म में बिहार-झारखंड और हिंदी पट्टी की बोली-भाषा-गाली-पहनावे का जमकर इस्तेमाल हुआ, फिल्म जबरदस्त साबित हुई तो इसने एक नई 'लहर' बनाई और इसी लहर से प्रभावित होने लगी हैं कुछ वेब सीरीज.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-

नेटफ्लिक्स की छोटे-शहरों में पॉपुलैरिटी का श्रेय भी ऐसी ही मारधाड़, हिंसा वाली फिल्म 'सेक्रेड गेम्स' को जाता है, हालांकि इसका प्लॉट मुंबई बेस्ड था, जो साल 2018 में आई थी. फिर, अमेजन प्राइम कैसे पीछे रह जाता आ गई साल 2018 में ही 'मिर्जापुर'. मिर्जापुर जैसी सीरीज का अक्खड़पन भी इसकी खासियत है, भले ही एक्टर क्षेत्रीय भाषाओं में उतने परिपक्व नहीं दिखते लेकिन यूपी-बिहार के तमाम ऐसे लोग जो अलग-अलग राज्यों में रह रहे हैं, काम कर रहे हैं, उनके लिए ये अपनी बोली टाइप की चीज खींचती है और फिर 'वर्ड ऑफ माउथ' पब्लिसिटी का कोई जवाब ही नहीं.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-
मिर्जापुर जैसी सीरीज का अक्खड़पन भी इसकी खासियत है
फोटो:Twitter 

यूपी-बिहार का अपराध जगत खजाना कैसे बन गया है!

गौर करिए कि हालिया कौन सी आपराधिक घटना का सबसे ज्यादा जिक्र आपने टीवी, अखबारों में सुना. जब दिमाग घुमाएंगे तो जवाब मिलेगा- 'कानपुर का बिकरू कांड, विकास दुबे एनकाउंटर केस'. अब न्यूज चैनलों पर इतनी चर्चा होने के बाद, क्राइम सीन क्रिएट-रीक्रिएट दिखाने के बाद कैसे ये वेब सीरीज के प्रोड्यूसर, इसको लेकर आकर्षित नहीं होंगे. कई वेब सीरीज इस प्लॉट पर भी तैयार होने लगी हैं, मशहूर फिल्म मेकर हंसल मेहता भी लगे हुए हैं.

साल 1997 में फिल्म आई थी सत्या. इसे कुछ फिल्मी जानकार बॉलीवुड में एक नए चलन को स्थापित करने वाली फिल्म बताते हैं-
कानपुर एनकाउंटर में 8 पुलिसकर्मियों की हत्या का आरोपी था विकास दुबे
(फोटो: Altered by Quint)

ये एक ‘कांड’ नहीं है, यूपी-बिहार का आपराधिक इतिहास ऐसी करतूतों से भरा हुआ है. श्री प्रकाश शुक्ला, मुन्ना बजरंगी, मुख्तार अंसारी, हरिशंकर तिवारी, बृजेश सिंह ऐसे ही नाम हैं, जिनके नाम और कांड पर वेब सीरीज बन चुकी हैं या बन रही हैं.

लेकिन इन सबके बीच एक 'मासूम सवाल' है- क्या ऐसी कहानियां या वेब सीरीज अपराध, अपराधी, कट्टा-बंदूक-गाली-हुड़दंग-छेड़खानी-रेप के नाम पर यूपी, बिहार के साख को चोट नहीं पहुंचा रहे हैं? क्रिएटिविटी में लिबर्टी का दांव फेंककर आप बात काट सकते हैं लेकिन क्या इससे बचा नहीं जा सकता है? शायद हम समझ नहीं रहे हैं कि कुछ तो हम में से परिपक्व हैं, उन्हें तो ये क्रिएटिविटी लग रही है, वाह-वाह कहकर मजे ले रहे हैं कि कमाल का क्राइम सीन था लेकिन एक ऐसा वर्ग भी है जिन्हें इससे इंस्पीरेशन मिल सकता है या मिल रहा है.

फेसबुक-ट्विटर इस्तेमाल करते हैं तो कुछ कमेंट पढ़िए, कुछ कमेंट ढूंढिए, ऐसे लोग हैं जो किसी चीज से इंस्पायर हो जाते हैं, इससे भी हो रहे हैं. बात-व्यवहार में उनकी हरकतों में बदलाव आ रहा है, आक्रामकता आ रही है. माहौल वैसे भी पहले से ही आक्रामक है, लाइव चैनल पर लोग गाली दे दे रहे हैं, कुछ लोग कबीर सिंह की तरह सिगरेट फूंकते दिख जा रहे हैं. वो क्या कम है कि 'हमें' काल्पनिक कहानियों की जरूरत पड़ जा रही है.

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