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मॉनसून सत्र से देश को क्या मिला? सिर्फ हंगामा और कन्फ्यूजन

Parliament Monsoon Session BJP राज्यसभा में भी आरामदायक स्थिति में है तो उसे विपक्ष की सलाह की फिक्र नहीं है

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सरकार से गुस्साए विपक्ष का सदन में लगातार हंगामा और लंबे वक्त तक नारेबाजी पिछले कुछ साल से संसद (Parliament) की रेगुलर पहचान बन गई है और हाल में समाप्त हुआ मॉनसून सत्र (Monsoon Session) भी कुछ ऐसा ही था. वही शोरगुल और ‘हो-हंगामा’ संसद के दोनों ही सदनों में दिखा, क्योंकि विपक्ष महंगाई पर चर्चा की मांग को लेकर सरकार से युद्धपथ के रास्ते पर चला गया था.

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हालांकि सरकार ने महंगाई पर चर्चा का शुरू में विरोध किया लेकिन आखिर बहस के लिए तैयार हुई पर शोर और गुस्सा नहीं थमा. दोनों सदनों के 23 विपक्षी सांसदों के अभूतपूर्व निलंबन से दोनों पक्षों के बीच की खाई और बढ़ गई. नतीजतन, इस सत्र में 2019 के बाद से सबसे कम कामकाज हुआ और यह वक्त से दो दिन पहले स्थगित कर दिया गया.

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  • नाराज विपक्ष का गुस्सा, संसद में लगातार हंगामा, लंबे समय तक नारेबाजी अब संसद की रेगुलर पहचान बन गई है. लेकिन फिर भी, यह सत्र कुछ मायने में अलग था. यह सत्र मोदी सरकार और विपक्ष के संबंध को और निचले स्तर तक लुढ़कने के लिए जाना जाएगा.

  • इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मोदी सरकार ने विपक्ष के साथ सुलह बनाने के लिए इस बार कोई गंभीर कोशिश की.

  • जहां विपक्षी पार्टियों ने निश्चित तौर पर बहुत उग्र कदम उठाए, ऐसा लगता है कि सरकार भी चाहती थी कि अराजकता बनी रहे ताकि वो उन्हें बदनाम कर सके और लोगों में ये प्रचारित कर सके कि विपक्ष कामकाज नहीं चाहता.

  • संसद में जाने या रहने के लिए मोदी के पास धैर्य नहीं है, यह उनके सत्ता में रहने और 8 साल की संसदीय कार्यवाही से साफ हो गया है.

  • अब जबकि बीजेपी संसद की ऊपरी सदन यानि राज्यसभा में भी आरामदायक स्थिति में है तो उसे विपक्ष की सलाह की फिक्र नहीं है. अब वो सामूहिक सलाह मश्विरा की चिंता भी नहीं करती है.

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सरकार-विपक्ष संबंध और हुए खराब

बेशक यह पहली बार नहीं है जब संसद में इतना हल्लागुल्ला और कामकाज में रुकावट देखा गया है. साथ ही यह निश्चित रूप से आखिरी नहीं होगा, चाहे कोई भी दल विपक्ष की बेंच पर बैठे. वास्तव में, भारतीय जनता पार्टी (BJP) के दिवंगत नेता अरुण जेटली ने टिप्पणी की थी कि संसद में हंगामा और रुकावट सरकार को झुकाने और कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए विपक्ष के हाथ में वैधानिक हथियार है.

साल 2010 में जब 2G घोटाले का शोर चल रहा था तब विपक्ष में बीजेपी थी और पूरा का पूरा शीतकालीन सत्र ही बिना कामकाज के समाप्त हो गया था. इसी तरह, जब 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बने तो विपक्ष यानि बीजेपी के विरोध की वजह से वो अपने कैबिनेट के सहयोगियों को संसद में इंट्रोड्यूस नहीं करा पाए.

ना ही वो राष्ट्रपति के धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के लिए जो रिवाज के मुताबिक भाषण होता है वो दे पाए. और फिर भी यह सत्र जरा हटकर था. इस सत्र में मोदी सरकार और विपक्ष के बीच रिश्ते खराब होकर और ज्यादा लुढ़क गए. दोनों के बीच बढ़ते भरोसे की कमी ने ना केवल उनकी मुश्किलें बढ़ाई हैं बल्कि अब दोनों में सहयोग के लिए समझौते की उम्मीद को लगभग असंभव है.
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सुलह के लिए कोई कोशिश नहीं

अब तक यह माना जाता था कि सरकार विपक्ष को विरोध करने और शुरुआती सप्ताह में कार्यवाही बाधित करने की "अनुमति" देगी, जिसके बाद दोनों पक्ष एक साथ बैठकर मुद्दे सुलझाकर आपसी सहयोग बढ़ाएंगे ताकि विधायी एंजेडे के मुताबिक कामकाज को निपटाया जा सके.

लेकिन अब ऐसा रहा नहीं. मॉनसून सत्र में हंगामे को लेकर सरकार की तरफ से विपक्ष के साथ सुलह स्थापित करने के लिए शायद ही कोई गंभीर कोशिश दिखी. ऐसा लगा कि दोनों ही पक्ष अपने अपने पर अड़े हैं और संवाद बनाने की कोई कोशिश किसी पक्ष ने नहीं की.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी सहित कई विपक्षी नेताओं को प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने जब पूछताछ के लिए बुलाया तो लड़ाई और ज्यादा निजी हो गई. जिस तरह से बीजेपी ने महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी (MVA) सरकार को गिराया और शिवसेना नेताओं को निशाना बनाया, उससे तनाव और बढ़ गया. .

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सरकारी रवैया भी जिम्मेदार

विपक्षी दलों ने बेशक अपनी बात रखने के लिए बहुत उग्र रास्ता अपनाया. लेकिन सरकार का रवैया भी बेहद गैरजिम्मेदाराना रहा. सरकार का यह दायित्व होता है कि वो संसद को सुचारू रुप से चलाने के लिए कदम उठाए लेकिन ऐसा लगा जैसे कि वो अराजकता बनाए रखना चाहती है. वास्तव में, ऐसा लग रहा था कि सरकार जानबूझकर विपक्षी दलों को हंगामे के रास्ते की ओर धकेल रही है ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके और उन्हें ‘विघटनकारी’ के तौर पर बता सके.

दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर जोरदार तरीके से हावी होने की कोशिश की और इससे संसदीय लोकतंत्र को गहरा आघात लगा है. विवादास्पद कृषि कानून, पेगासस स्पाइवेयर, चीन के साथ गतिरोध आदि जैसे प्रमुख मौजूदा मुद्दों पर चर्चा के लिए विपक्ष की मांगों को आम तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है, जबकि हंगामे और अराजकता के बीच बिल को बिना चर्चा के ही पारित कर दिया जाता है.

इस स्थिति के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. मोदी सरकार संसद को कमजोर करने, निर्वाचित सदस्यों की भूमिका को कम करने और संसद को केवल कानून पारित करने के लिए एक मंच में बदलने से यह नौबत आई है. अब यह अधिकांश मुख्यमंत्रियों का पसंदीदा काम करने का तरीका बन गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री थे इस मामले में कोई अपवाद नहीं हैं.

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नई इमारत मदद नहीं करेगी

मोदी के पास संसद में बैठने और संसदीय कार्यवाही में शामिल होने का धैर्य नहीं है. उनके सत्ता में रहने के आठ साल की संसदीय कार्यवाही से ये साफ पता चल जाता है. संसद में उन्हें तभी देखा और सुना जाता है जब उनकी उपस्थिति एकदम अनिवार्य हो जाती है. साथ ही संसदीय प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार की तरफ से लगातार कोशिशें होती रही हैं. राज्यसभा से बचने के लिए महत्वपूर्ण विधेयकों को धन विधेयकों में बदल दिया जाता है. पहले की सरकारों की तुलना में इस सरकार में अध्यादेश का रास्ता सबसे ज्यादा अपनाया गया है. विचार विमर्श के लिए विधेयकों को स्थायी समिति में नहीं भेजा जाता है.

2020 के मानसून सत्र से पहले मोदी सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों सहित 11 अध्यादेशों को लागू किया. इसने उस सत्र में COVID-19 महामारी के बहाने प्रश्नकाल को भी समाप्त कर दिया. विपक्ष के गुस्से को देखते हुए बाद में जो शीतकालीन सत्र होना था उसको बुलाया ही नहीं गया लेकिन इस सबका कोई फायदा नहीं हुआ.

2014 में जब मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला, तो सत्तारूढ़ गठबंधन को राज्यसभा में बहुमत नहीं था. नतीजतन, सरकार को अपने विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए राज्यसभा में बहुत चक्कर लगाने पड़ते थे. लेकिन अब जबकि बीजेपी, राज्यसभा में भी अच्छी स्थिति में है तो विपक्ष या सामूहिक परामर्श की प्रक्रिया की परवाह करने की आवश्यकता सरकार समझती नहीं है.

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