जब हम 'मुल्क' देखकर बाहर निकले, तो हमारे एक मित्र ने कहा कि 'मुल्क' जो बात कहती है, वह पूरे आत्मविश्वास के साथ आज का हिंदुस्तानी मुसलमान कहने की स्थिति में नहीं है. 'मुल्क' क्या कहती है? 'मुल्क' कहती है कि कोई मुसलमान अपनी देशभक्ति प्रमाणित कैसे करे? क्यों करे? वह खुद पर चस्पां कर दिये गये आतंकवादी कौम के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए क्या करे कि सरकार और हिंदू पड़ोसियों को लगे कि वह भी एक सच्चा भारतीय है? 'मुल्क' इन सवालों से निर्भीक होकर टकराती है और इसलिए टकरा पाती है, क्योंकि फिल्मकार अनुभव सिन्हा एक हिंदू हैं.
मौजूदा सरकार की मातृ-संस्था आरएसएस की विचारधारा के हिसाब से ‘एक तथाकथित और भटका हुआ हिंदू’ , जिसे अपने धर्म के उत्थान-पतन से ज्यादा इंसानियत के उत्थान-पतन की चिंता है. मैंने गौर किया कि न सिर्फ निर्देशक अनुभव सिन्हा, बल्कि 'मुल्क' में एक भी कलाकार मुसलमान नहीं है. चूंकि मैं अनुभव से पूछ सकता हूं, इसलिए मैंने पूछा तो उन्हें बिना किसी संकोच के यह जवाब दिया कि हां, यह एक सचेत कोशिश थी, क्योंकि 'मुल्क' जो बात कहती है, वह आज किसी मुसलमान से ज्यादा हिंदुओं को कहने की जरूरत है.
अनुभव सिन्हा ऐसे फिल्मकार रहे हैं, जिन्होंने आज तक एक भी राजनीतिक फिल्म नहीं बनायी थी. तुम बिन से अपने करियर की शुरुआत करने वाले अनुभव सिन्हा की फिल्मों का विषय रहा है, रोमांस, अपराध, सस्पेंस, थ्रिलर, साइंस फिक्शन वगैरा-वगैरा. सात बड़ी फिल्में बनाने के बावजूद उन्हें लगा कि वह फिल्मकार नहीं हैं, क्योंकि उसके पास एक दायित्व भी होता है. क्योंकि सब कुछ होने के बाद भी उनकी फिल्मों में उनका मुल्क, उनका समाज नहीं है. पिछले दिनों भारतीय राजनीति जिस तरह से अपने ही नागरिकों में फर्क करते हुए विद्वेष की बिसात बिछाने में दिलचस्पी लेने लगी, उनके निर्देशक मन ने अपनी शैली से यू-टर्न लेने की ठान ली.
इस लिहाज से मुल्क आज के समय की प्रतिनिधि फिल्म है, जो यह कहती है कि अच्छे और बुरे लोग हर कौम में समान मात्रा में होते हैं. इसलिए कुछ बुरे लोगों की वजह से हम एक कौम को नहीं घेर सकते और उनके लिए घेटो बनाने की तरफ नहीं बढ़ सकते. इसके लिए 'मुल्क' बहुत ही आसान टूल हमें थमाती है कि इतिहास को हम वॉट्सएप और फेसबुक-ट्विटर के जरिये न समझें, बल्कि इसके लिए विश्वसनीय किताबों की गली में जाएं. मंदिर में भाषण देना बंद करें और संसद में पूजा से बाज आएं.
अनुभव सिन्हा की फिल्म यह भी बताती है कि मुल्क आज जो है, उसकी नींव ही छुआछूत और सामाजिक वैमनस्यता से भरी हुई है. यही वजह है कि धार्मिक एजेंडे वाली राजनीतिक पार्टियों को मुल्क के भीतर मुल्क के तथाकथित दुश्मनों की पहचान करने में आसानी हो जाती है.
हमें बचपन से कुछ चीजें बतायी गयी हैं, जिसके चलते मिथ की तरह हम मानने लग जाते हैं कि मुसलमान गंदे होते हैं, उनके साथ अलग बर्तन का बर्ताव रखना चाहिए, वे एक से ज्यादा शादियां करते हैं और बेशुमार बच्चे पैदा करते हैं, पाकिस्तान के जीतने पर पटाखे फोड़ते हैं, मदरसों में आतंकवाद की पढ़ाई होती है और मस्जिदों में हिंसक जिहाद की रणनीति बनती है - आदि आदि. ये बातें चूंकि बचपन से हमारे दिमाग पर हावी रहती हैं, इसलिए इससे निकल पाना आसान नहीं होता.
सच्चाई तक पहुंचने के लिए हम मुस्लिम मोहल्लों में जाने से परहेज करते हैं और मुस्लिम दोस्त बनाने से भी. ठीक ऐसी ही समझदारी दलितों के बारे में हमारे भीतर डाली जाती है. 'मुल्क' बताती है कि इस गलतफहमी को हवा देना भी आतंकवाद है और गरीब-निर्दोष दलितों और आदिवासियों की हत्या करना भी आतंकवाद है.
'मुल्क' बनारस के एक मोहल्ले की कहानी है, जिसमें हिंदू आबादी भी है और मुसलमान आबादी भी. आपसी भाईचारे वह राजनीतिक नारा सेंध लगाता है, जो चीख कर कहता है कि हिंदू और मुसलमान एक नहीं हैं. हिंदू हम हैं और मुसलमान वे हैं. भारत सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं का है और मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए. इसलिए जब एक परिवार का नौजवान आतंकवादी बन जाता है, तो उसकी दीवार पर रात के अंधेरे में नारा लिख दिया जाता है कि पाकिस्तान जाओ.
फिल्म यह सवाल करती है कि अगर हिंदू परिवार का आतंकवादी होता, तो क्या उसकी दीवार पर भी यही नारा लिखा जाता? हालांकि इसका जवाब भी आजकल के पेड ट्रोलर्स देते रहते हैं कि ‘सेकुलर हिंदुओं’ को भी पाकिस्तान चले जाना चाहिए. जैसे अगर आप सच्चे हिंदू हैं, तो स्वाभाविक तौर आपको मुसलमानों के प्रति नफरत से भरा होना चाहिए. ‘मुल्क’ सच्चे हिंदू होने का अर्थ समझाने की कोशिश करती है. अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं में आस्था रखते हुए एक-दूसरे के साथ रहने और आपसी मोहब्बत की पटरी से न उतरने की वकालत करती है.
जब तक मैंने 'मुल्क' नहीं देखी थी, मुझे हैरानी हो रही थी कि सेंसर बोर्ड ने ऐसी फिल्म को प्रमाणपत्र कैसे दे दिया, जो आज के राजनीतिक माहौल में सरकार के सांप्रदायिक एजेंडे की हवा निकाल रही हो. लेकिन जब मैंने फिल्म देखी, तो मुझे लगा कि इसमें तर्क का ऐसा मजबूत महल खड़ा किया गया है, जिसे अफवाहों के तेज हथौड़ों से भी तोड़ा नहीं जा सकता.
आखिर में फिल्म का खलपात्र (खलनायक) कहता भी है कि आज फिर न्याय ने धर्म को चित्त कर दिया. 'मुल्क' एक तार्किक फिल्म है और सेंसर बोर्ड के लिए उन तर्कों पर कैंची चलाना लगभग असंभव था. अगर यह भावुक फिल्म होती, तो फिर इसे सरकार प्रायोजित सेंसर के सामने खुद को डिफेंड करना मुश्किल हो जाता.
एमएस सथ्यू की 'गरम हवा' के बाद 'मुल्क' ही वह फिल्म है, जो हिंदू-मुस्लिम के सामाजिक ताने-बाने को कायदे से समझती हुई दिखती है. उन देशों में भी साहसिक और प्रतिरोधपूर्ण राजनीतिक फिल्में बनाने की परंपरा है, जो भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश नहीं हैं. लेकिन भारत में ही ऐसी फिल्मों की कमी है. इस सदी में 'मुल्क' से एक बेहतर शुरुआत हुई है. अनुभव सिन्हा और उनकी पूरी टीम को बधाई.
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( पेशे से पत्रकार रहे अविनाश दास ने "अनारकली ऑफ आरा" के साथ अपनी दूसरी पारी फिल्म निर्देशक के रूप में शुरू की है.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है) )
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