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खास पेशों से जुड़े होने का आर्थिक फायदा मुस्लिमों को मिला है?

सवाल है कि मुस्लिम समुदाय एकदम निचले पायदान से थोड़ा ऊपर कैसे आ पाया है.

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हमें पता है कि देश का मुस्लिम समुदाय सारे आर्थिक मापदंडों पर दूसरे वर्गों की तुलना में अब भी पीछे है. लेकिन हाल के वर्षों में मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन में थोड़ी कमी आई है. और जैसा कि मैंने पिछले लेख (क्या मुसलमानों की थोड़ी सी तरक्की है देश में दंगों की एक वजह?) में लिखा था कि नये रिसर्च के मुताबिक हिंदुओं की तुलना में मुस्लिम समुदाय में थोड़ी तरक्की का मतलब है हिंसक दंगों में बढ़ोतरी.

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लेकिन सवाल है कि मुस्लिम समुदाय एकदम निचले पायदान से थोड़ा ऊपर कैसे आ पाया है. इसके लिए ये जानना जरूरी है कि औसत मुस्लिम किस पेशे से जुड़ा है और उस पेशे से होने वाली आमदनी में हाल के दिनों में कुछ बदलाव हुआ है क्या?

मुसलमान पारंपरिक रूप से खेती से दूर रहे हैं

औसत मुस्लिम कौन सा काम करते हैं, इसका कुछ संकेत हमें सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में मिलता है. यूपीए 1 के दौरान मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक हालत को जानने के लिए सच्चर कमेटी का गठन हुआ था.

इसमें कहा गया है कि दूसरे वर्गों के मुकाबले मुस्लिम समुदाय की खेती में भागीदारी अपनी जनसंख्या के अनुपात से काफी कम है. लेकिन इस समुदाय की ट्रेड, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल और होलसेल ट्रेड, ट्रांसपोर्ट, ऑटो रिपेयर, तंबाकू, टेक्सटाइल और फैब्रिकेटेड मेटल के कारोबार में भागीदारी दूसरे वर्गों की तुलना में काफी ज्यादा है. कुछ राज्यों में तो ये 25 परसेंट तक है.

और देश का आर्थिक इतिहास बताता है कि 1990 के बाद से खेती से होने वाली कमाई में लगातार कमी आ रही है, जबकि स्किल्ड वर्कर्स की मांग भी बढ़ी है और आमदनी भी. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी इस बात का संकेत है. इसमें कहा गया है 1994 से 2001 के बीच जिन सेक्टर्स में नौकरी के मौके काफी तेजी से बढ़े वो हैं तंबाकू, टेक्सटाइल, ऑटो रिपेयर्स और इलेक्ट्रिक मशीनरी. रिपोर्ट पुरानी है इसीलिए आंकड़े भी पुराने हैं. लेकिन हाल के आंकड़ों को देखकर भी यही संकेत मिलता है. ये नौकरी फॉर्मल और इनफॉर्मल दोनों ही सेक्टर्स के हैं.

पहले का कमाई वाला पेशा बनाम स्किल्ड वर्कर्स

2019 में टीमलीज की एक स्टडी इकनॉमिक टाइम्स में छपी थी जिसकी हेडलाइन ‘एमबीए बनना चाहते हैं? इलेक्ट्रिशियन क्यों नहीं’ काफी कुछ बताता है. इसकी मुख्य बातें कुछ इस तरह हैं-

  1. औसत से खराब रेटिंग वाले इंस्टीट्यूट से एमबीए या इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर नौकरी करने वालों की सैलरी करीब-करीब उतनी ही है जितने इलेक्ट्रिशियन जैसे स्किल्ड वर्कर्स की है.
  2. 2016 से 2018 के बीच जहां ट्रेंड इलेक्ट्रिशियन की कमाई में 40 परसेंट से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई, एमबीए डिग्री वालों की सैलरी में 30 परसेंट का इजाफा हुआ. पांच साल के अनुभव वाले इंजीनियर की सैलरी इसी दौरान औसतन मात्र 10 परसेंट बढ़ी.
  3. अगले पांच साल में स्किल्ड वर्कर्स की मांग और तेजी से बढ़ने वाली है और उनकी सैलरी में तेज बढ़ोतरी की उम्मीद लगाई जा रही है.

इस स्टडी का साफ संकेत है कि किसी भी इंस्टीट्यूट से एमबीए या इंजीनियरिंग करने वालों की मांग में लगातार गिरावट हुई है. स्टडी में यह साफ तौर पर बताया गया है कि इन इंस्टीट्यूट से निकलने वाले औसत छात्र की स्किल सेट ऐसी नहीं होती है कि वो दिए गए काम को ठीक से कर पाए. इसीलिए अक्सर उनको काफी कम सैलरी से ही संतोष करना पड़ता है. दूसरी तरफ सर्विस सेक्टर में तेज बढ़ोतरी की वजह से स्किल्ड वर्कर्स कई सालों से काफी मांग में रहे हैं और उनकी सैलरी तेजी से बढ़ी है.

स्किल्ड वर्कर्स की मांग बढ़ने का फायदा मुसलमानों को

टीमलीज की स्टडी को सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के उस भाग के साथ पढ़िए, जहां बताया गया है कि औसत मुस्लिम किस तरह का काम करते हैं. इसमें आप अपने आसपास जो देखते हैं उसका भी इनपुट डाल दीजिए.

वर्ण व्यवस्था की वजह से हिंदू समुदाय में काश्तकारी को बड़ा दर्जा नहीं दिया गया था. ज्यादा जोर बड़ी डिग्री हासिल कर अच्छी नौकरी पाने पर रहा है. लेकिन दूसरी तरफ काश्तकारी यानी स्किल्ड वर्क की तरफ मुसलमानों का शुरू से ही झुकाव रहा है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी यही बताती है. यही वजह है कि हर फॉर्मल क्षेत्र की नौकरियों में हिंदुओं की हिस्सेदारी मुसलमानों की तुलना में काफी ज्यादा रही है. लेकिन इसी वजह से मुसलमानों का झुकाव स्वरोजगार पर रहा है, जिसमें काश्तकारी के काम आते हैं.

2000 के बाद हमने करीब हर साल देखा है कि रोजगार के मौके उतनी तेजी से नहीं बढ़ रहे हैं जितनी जरूरत है. इसीलिए कुछेक सालों को छोड़कर सैलरी भी काफी कम ही बढ़ी हैं. इसी दौरान टीमलीज की हर स्टडी से साफ होता है कि स्किल्ड वर्कर्स की मांग तेजी से बढ़ ही रही है.

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तो क्या खास पेशों से पारंपरिक रूप से जुड़े होने की वजह से मुस्लिम समुदाय के लोगों के पिछड़ेपन में तुलनात्मक रूप से थोड़ी कमी आ रही है? आंकड़े तो यही बताते हैं. और इसी वजह से समुदायों के बीच दिलों में दूरियां बढ़ रही है जिसका हिंसक परिणाम हमने दिल्ली में देखा?

इस नफरत को कम करने का एक ही उपाय है- अपने विकास के मॉडल में ऐसा बदलाव जिसमें हमें जॉबलेस ग्रोथ से छुटकारा मिले.

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