‘हमें यह नहीं मालूम था कि जिस देश की सरहदों की रक्षा करते हुए हमने हजारों कुर्बानियां दीं, उसी देश में हमें अपने देशभक्त होने और यहां के नागरिक होने का सबूत देना होगा. अव्वल तो यह कि सरकार वे सबूत भी नहीं मानेगी और हमें अपनी नागरिकता हासिल करने के लिए दर-दर घूमना होगा. कोर्ट-कचहरी और सरकारी नुमाइंदों की परिक्रमा करनी होगी. मानो, वे सूर्य हों और हम सौरमंडल के कोई क्षुद्र ग्रह. सच तो यह है कि हम गोरखा लोग आपसे कहीं ज्यादा देशभक्त और भारतीय हैं.’
अपनी वीरता के लिए मशहूर गोरखा समुदाय के एक युवक की ये चार लाइनें असम में गोरखाओं के सामने आई ताजा परेशानियों की वैसी पेंटिंग है, जिसे वे फिर कभी नहीं देखना चाहते.
मीडिया रिपोर्टों में चर्चा है कि असम सरकार द्वारा बीते 31 अगस्त को जारी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची में गोरखा समुदाय के हजारों लोगों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं. असम भारतीय गोरखा परिसंघ ने दावा किया है कि करीब एक लाख गोरखा एनआरसी में शामिल नहीं हैं.
यह संख्या वहां कथित तौर पर रह रहे करीब 25 लाख गोरखा आबादी का चार फीसदी है. हालांकि इस दावे को लेकर विवाद है. परिसंघ के अध्यक्ष नित्यानंद उपाध्याय भी मानते हैं कि यह एक लम्प-सम आइडिया है, जो उन लोगों ने असम के विभिन्न इलाकों में रह रहे लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार किया है.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसी दावे के आधार पर कहा कि उन्हें इस बात की हैरानी है कि इतनी बड़ी संख्या में गोरखा लोगों के नाम एनआरसी से कैसे छंट गए. ऐसे लोगों को न्याय देना सरकार की जिम्मेदारी है.
हजारों गोरखा परेशान
बहरहाल, इस कारण वहां रह रहे गोरखा समुदाय के लोगों में भी क्षोभ है. असम सरकार इस स्थिति से निपट पाने में फिलहाल लाचार दिख रही है. 3 सितंबर को इसी मुद्दे पर पीस कमेटी की बैठक होने वाली है.
ऑल असम गोरखा स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएजीएसए) के अध्यक्ष प्रेम तमांग भी इसमें आमंत्रित किए गए हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि उनके संगठन ने असम के सभी 33 जिलों में मौजूद अपने पदाधिकारियों को एक फॉर्मेट भेजा है, ताकि एनआरसी से छूटे गोरखा लोगों की वास्तविक संख्या का पता लगाया जा सके.
उनका मानना है कि यह सख्या 60 -70 हजार या उससे कुछ अधिक हो सकती है. हमलोग अगले 6-7 दिन के अंदर सरकार को फाइलन डेटा (अंतिम सूची) उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं. अगर सरकार यह डेटा जुटाने में हमारी मदद करती, तो यह काम और पहले हो सकता है.
बकौल प्रेम तमांग, सारा विवाद उस ‘डी-वोटर’ श्रेणी को लेकर है, जो हजारों गोरखा लोगों को संदेह की श्रेणी में डालता है. उन्होंने कहा कि असम की सरकार के कुछ लापरवाह अधिकारियों ने गोरखा लोगों को भी 1971 के प्रावधानों की आड़ में डी-श्रेणी (डाउटफुल वोटर) में डाल दिया. अब बताइए कि मार्च 1971 में बांग्लादेश से आए लोगों के लिए तय प्रावधान हम गोरखा लोगों पर कैसे लागू हो सकते हैं.
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उन्होंने बताया कि भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सितंबर 2018 में दिए गए स्पष्ट आदेश के बावजूद असम सरकार ने गोरखा लोगों की भारतीय नागरिकता तय करने के लिए साल 1950 में हुई भारत-नेपाल संधि को आधार नहीं माना है.
गृह मंत्रालय ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारत का संविधान बनते वक्त गोरखा समुदाय के जो भी लोग भारत में रहते थे (भले ही उनके पास नेपाली नागरिकता रही हो) या जिनका जन्म भारत में हुआ, वे भारत के नागरिक हैं. उन्हें 1946 के फॉरनर्स ट्रिब्यूनल (प्रवासी कानून) के प्रावधानों के दायरे में नहीं रखा जा सकता.
जान दे दी, अब पहिचान का संकट
गोरखा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले छबीलाल उपाध्याय असम में कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया. इस कारण असम के लोग उनका नाम बड़ी प्रतिष्ठा से लेते हैं. लेकिन राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में उनकी परपौत्री मंजू देवी का नाम नहीं है.
असम आंदोलन के दौरान शहीद होने वाली पहली महिला बजयंती देवी और असम नेपाली साहित्य सभा की अध्यक्ष रह चुकीं दुर्गा खाटीवाड़ा के समस्त परिजनों के नाम भी इस लिस्ट में नहीं हैं. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है. विधायक रह चुके दलवीर सिंह लोहार के परिजन भी एनआरसी में अपना नाम नहीं देख पाने के बाद अपमानित महसूस कर रहे हैं. इन सब लोगों ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय मतदाता की हैसियत से अपना वोट डाला था.
गोरखा प्राइड का सवाल
बात गुवाहाटी से चलकर दार्जिलिंग और गंगटोक तक पहुंच चुकी है. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष और दार्जिलिंग पहाड़ी प्रदेश के सबसे बड़े नेता बिमल गुरुंग ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि असम में गोरखा समुदाय का इतिहास 200 साल पुराना है. असम की अर्थनीति, उसके विकास और सुरक्षा के मामलो में गोरखा समुदाय ने बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी निभाई है.
उन्होंने कहा, ''हमलोग खांटी भारतीय हैं, इसलिए हमने एनआरसी में गोरखा लोगों के नाम शामिल नहीं होने की वास्तविकता का पता लगाने के लिए दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को असम भेजने का निर्णय लिया है.''
आंकड़ों की राजनीति
इस बीच दार्जिलिंग के बीजेपी सांसद राजू बिष्ट ने कहा है कि उन्होंने इस मुद्दे पर असम और दिल्ली में पार्टी नेताओं से बातचीत की है. उन्होंने कहा कि एनआरसी में एक लाख लोगों के नाम शामिल नहीं होना दरअसल एक अफवाह है. सही आंकड़ों के लिए हमें कुछ दिनों का इंतजार करना होगा, क्योंकि वहां एनआरसी का काम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार कड़ाई से किया जा रहा है, जेनुईन लोगों की समस्याएं हर हाल में सुलझाई जाएंगी, इसलिए हमें धैर्य रखना चाहिए. अभी माहौल को शांत रखने की जरूरत है.
बहरहाल, आंकड़ों को लेकर किए जा रहे दावे-प्रतिदावे के बीच सबसे बड़ा सच यह है कि असम के हजारों गोरखा एनआरसी से बाहर हैं. गोरखाओं के समस्त संगठनों का मानना है कि अगर समय रहते इसका समाधान नहीं किया गया, तो स्थिति बिगड़ सकती है.
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(लेखक रवि प्रकाश कोलकाता के स्वतंत्र पत्रकार हैं. इनका टि्वटर हैंडल है @ravijharkhandi. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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