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नैनो को खराब क्वालिटी से ज्यादा हमारी सामंती मानसिकता ने मारा

नैनो सस्ती तो थी लेकिन कई लिहाज से यह एक कमजोर कार थी

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नैनो अब अपनी आखिरी सांसें गिन रही है. टाटा मोटर्स को जून महीने में सिर्फ एक नैनो कार का ऑर्डर मिला. अगले कुछ महीनों में नई नैनो शायद ही सड़कों पर दिखे. यह सही है कि नैनो कोई ग्रेट प्रोडक्ट नहीं है. लोग इस प्रोडक्ट में टाटा की जिस क्वालिटी की उम्मीद कर रहे थे, वह उन्हें नहीं मिली. लेकिन सपने और उम्मीद जगाने वाली किसी टेक्नोलॉजी को मौत की ओर बढ़ते देखना तकलीफदेह है.

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सस्ती कार का टैग ले डूबा

नैनो की मार्केटिंग दुनिया की सबसे सस्ती कार के तौर पर की गई. कहा जा रहा है कि सस्ती होने का टैग ही इसे ले डूबा. खराब क्वालिटी का होने के साथ ही नैनो का बड़ा कसूर ये था कि यह गरीबों की कार बन कर सड़कों पर उतरी थी. गरीब जिसे हिन्दुस्तान का समाज बेहद हिकारत की नजर से देखता है.

रतन टाटा ने भी माना कि नैनो को सस्ती कार कह कर मार्केट करना उनकी गलती थी. लेकिन यह मार्केटिंग की ही गलती नहीं थी. नैनो सस्ती तो थी लेकिन कई लिहाज से यह एक कमजोर कार थी. फिर भी इसे सस्ती कार के तौर पर उतारना एक स्ट्रेटजिक भूल थी.

रतन टाटा भारतीय समाज की गुत्थियों को समझ नहीं पाए. नैनो को उसकी खराब क्वालिटी से ज्यादा भारतीय समाज में मौजूद सामंती मानसिकता ने मारा.
नैनो सस्ती तो थी लेकिन कई लिहाज से यह एक कमजोर कार थी
2008 में दिल्ली के ऑटो एक्सपो में नैनो का मुआयना करते राहुल गांधी 
फोटो ः रॉयटर्स 

सामंती पूर्वाग्रहों का मारा हुआ समाज

हिन्दुस्तानी समाज बुरी तरह सामंती पूर्वाग्रहों का मारा हुआ है. जिस समाज में कार में बैठते ही आदमी में एक खास तरह की सामंती ऐंठ आ जाती हो और जो सड़क पर पैदल चलने वालों, रिक्शों-ठेलों और अपनी गाड़ी से छोटी गाड़ियों पर रोब गांठता हुआ चलता हो, वहां नैनो जैसी छोटी गाड़ी में चलने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाना कोई अचरज की बात नहीं है.

शायद यही वजह है कि नौ-दस साल पहले इस लेखक के एक दोस्त ने नैनो खरीदी तो दफ्तर में सहकर्मियों ने न उससे मिठाई की मांग की और न पार्टी देने को कहा. वरना हमारे यहां नई कार खरीदने पर मिठाई खिलाने और पार्टी करने का चलन जगजाहिर है.

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खराब क्वालिटी भी बनी मुसीबत

नैनो का जबरदस्त प्रचार हुआ था. लेकिन इसके शुरुआती मॉडलों में ही खराबी दिखने लगी थी. इसके बाद इसमें आग लगने की घटनाओं ने भी इसका मार्केट खराब कर दिया. यह कार बिल्कुल हिन्दुस्तानी शहरों की जरूरत के हिसाब से बनाई गई थी, जहां सड़कों पर जगह कम है. पार्किंग का इंतजाम नहीं होता.लेकिन छोटी सी यह कार कम्फर्ट और लुक में ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाई. ऊपर से यह गरीबों की कार मान ली गई.

जब नैनो मार्केट में उतारी जानी थी तो इसके चर्चे पूरी दुनिया में थे. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत आए थे, तो उनसे रतन टाटा को यह कर मिलाया गया था कि ये वही शख्स हैं, जिन्होंने तीन हजार डॉलर की कार मार्केट में उतारी है. ओबामा रतन टाटा को देखते रह गए. माना कि खराब क्वालिटी की वजह से नैनो बाजार में नहीं चल पाई लेकिन लाखों भारतीयों को कार के सपने दिखाने वाली नैनो का यह हश्र देखना तकलीफदेह है.

एक इंटरव्यू में रतन टाटा ने कहा था कि उन्हें स्कूटर पर सवार एक परिवार को बारिश में भीगते हुए देख कर नैनो का आइडिया आया था.

टाटा ने भारत के मिडिल क्लास की सीढ़ियां चढ़ते उन लाखों परिवार की उम्मीदों, आकांक्षाओं और सपनों में नैनो का बाजार दिखाई दिया था. और उन्होंने इसे पूरा करने की हरचंद कोशिश की थी. लेकिन सस्ती कार बनाने के चक्कर में रतन टाटा ने गुणवत्ता और मजबूती पर जोर नहीं दिया.

ऊपर से सिंगुर प्लांट के जमीन अधिग्रहण लेकर पश्चिम बंगाल में उठे विरोध का खामियाजा भी इसे भुगतना पड़ा

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नैनो सस्ती तो थी लेकिन कई लिहाज से यह एक कमजोर कार थी
नैनो गरीबों की हसरतों की कार बन कर उभरी थी 
फोटो ः PTI

छोटा और सस्ता होना कमजोर होना है

रतन टाटा भारतीय समाज का अध्ययन करने में नाकाम साबित हुए. उन्हें इस पर थोड़ा गौर करना चाहिए था कि भारतीय समाज के बड़े हिस्से को जड़ें अब भी उन मूल्यों से गहरे जुड़ी हुई हैं, जो वर्चस्व के लिए ताकत का इस्तेमाल करती है. छोटा और सस्ता (गरीब) होना यहां कमजोर होना है.

भारतीय समाज अब भी अपने अर्धसामंती मूल्यों में जी रहा है. इसलिए बड़ी गाड़ियां यहां स्टेटस और ताकत की प्रतीक हैं. भले ही वे ज्यादा पेट्रोल खाती हों. उन्हें यहां की संकरी सड़कों पर चलाने और भीड़ भरे बाजारों में पार्क करना कितना भी मुश्किल क्यों न हों, वे लोगों की शान हैं.

रतन टाटा ने नैनो को रोजमर्रा के इस्तेमाल में होने वाले कार की तरह डिजाइन करवाया था. जिसे ‘यूटिलिटेरियन’ कहा जाता है. जबकि भारत ‘एस्पिरेशनल’ कारों का बाजार है. हालांकि ‘यूटिलिटेरियन’ कार के तौर पर भी यह खरी नहीं उतर पाई.

भारत में कार से यह उम्मीद की जाती है कि यह आपके स्टेटस का अहसास कराए. आपके पड़ोसियों को जलाए और जब रास्ते में चले तो अगल-बगल चलने वाली गाड़ियों को ताकत का अहसास कराए.

शायद भारतीय समाज लाखों लोगों को सशक्त करने के बजाय कुछ लोगों को ताकतवर होते देखना चाहता है. काश रतन टाटा भारतीय समाज की इस प्रवृति और गुत्थी को समझ पाते तो नैनो को सबसे सस्ती कार के तौर पर मार्केट करने की ‘गलती’ नहीं करते. सस्ती कार का मतलब यहां गरीबों की कार समझ ली गई. और यह कौन नहीं जानता भारत में गरीब होना कितना बड़ा सामाजिक कलंक है.

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