राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण 2021 (National Achievement Survey / NAS 2021) के आलोक में शिक्षा की स्थिति पर चिंता और बहस शुरू हो चुकी है. कौन राज्य आगे रहा, कौन पीछे- इस आधार पर राज्यों का मूल्यांकन और सियासत हो रही है. शिक्षा के मामले में जो प्रदेश फ्लॉप समझा जा रहा था वह टॉप पर दिख रहा है और टॉप पर दिखने का दावा करने वाला प्रदेश फ्लॉप नजर आ रहा है. क्या राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण 2021 वाकई प्रदेशों में और देश में शिक्षा की स्थिति का आईना है?
सिर्फ पास-फेल से बच्चों के स्तर का मूल्यांकन सही नहीं
अध्य्यन के परिणामस्वरूप (लर्निंग आउटकम) विकसित क्षमता को आंकने का प्रयास जरूर करता है NAS 2021 लेकिन इससे शिक्षा की स्थिति का पता चलता हो, इससे शिक्षाविद सहमत नहीं हैं.
प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सम्मान मैग्सेसे से सम्मानित संदीप पाण्डे का मानना है कि बच्चों की मेधा का टेस्ट अक्सर देश, प्रदेश और समाज के प्रतिष्ठित संस्थान अपनी जरूरतों के लिए करते हैं. इससे वास्तव में बच्चों की बेहतरी का कोई लेना-देना नहीं होता.
शिक्षा और परीक्षा दोनों अलग-अलग चीजें हैं. एक शिक्षक को अपने छात्रों की क्षमता का पता होता है और वह बगैर परीक्षा के ही उसकी ग्रेडिंग कर सकता है या फिर अंक दे सकता है. वास्तव में छात्रों को पास-फेल से दूर रखने की जरूरत है.
शिक्षकों की ग्रेडिंग जरूरी
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर संजय सिंह बघेल का मानना है कि शिक्षा की स्थिति को समझना हो तो हम यह देखें कि प्रायोगिक शिक्षा की स्थिति क्या है, शिक्षा उपलब्ध करा रहे स्कूल-कॉलेज में बुनियादी सुविधाएं हैं या नहीं? विदेश मे प्रचलित शिक्षकों की ग्रेडिंग की चर्चा करते हुए प्रो. बघेल कहते हैं
"छात्र अगर जीवन में उपलब्धि हासिल करता है तो उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की ग्रेडिंग में बढ़ोतरी होनी चाहिए. यह व्यवस्था ही शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाती है."
आईएएस की कोचिंग करा रहे शिक्षाविद सीबीपी श्रीवास्तव का मानना है कि छात्रों की परीक्षा लेने के बजाए शिक्षकों की परीक्षा ली जानी चाहिए. इसके नतीजों से ही शैक्षणिक व्यवस्था का मूल्यांकन हो जाता है. सीबीपी श्रीवास्तव पाठ्यक्रम की गुणवत्ता से भी शिक्षकों के मूल्यांकन को जोड़ते हैं.
"अगर पाठ्यक्रम में व्यावहारिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा समेत तमाम चीजों का समावेश है और उस पर अमल कराने के लिए योग्य शिक्षक और इन्फ्रास्ट्रक्चर हैं तो शिक्षा का स्तर कमतर होने का सवाल ही पैदा नहीं होता."सीबीपी श्रीवास्तव
पास परसेंट में जो राज्य टॉप वो सर्वे में फिसड्डी क्यों?
उत्तर प्रदेश में उच्चतर शिक्षा से जुड़े प्रोफेसर डॉ एके सिंह कहते हैं कि एनएएस 2021 का पैमाना चाहे जो हो लेकिन यह किसी प्रदेश में शिक्षा की स्थिति को बताने में सक्षम नहीं है। वे कहते हैं कि किसी विषय का गहराई से अध्ययन करने वाला छात्र संभव है कि परीक्षा में अच्छे अंक ना लाए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसके प्रदेश में शिक्षा का स्तर बुरा है
डॉ सिंह का मानना है कि गरीबों तक शिक्षा की पहुंच बनाना, इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास और शिक्षा को जीवन के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास समेत तमाम पहल होती हैं जिनसे किसी प्रदेश में शिक्षा के स्तर को मापा जा सकता है. डॉ सिंह सवाल करते हैं
"अगर एनएएस 2021 में दिल्ली फिसड्डी है तो सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा में 99 प्रतिशत परिणाम कैसे आ रहे हैं?"
सर्वे और कुछ सवाल
एजुकेशन वर्ल्ड इंडिया स्कूल रैंकिंग 2021-22 पर नजर डालें तो शीर्ष के 50 स्कूलों में पंजाब का सिर्फ एक स्कूल है जो 40वें नंबर पर है. दिल्ली का एक भी स्कूल टॉप 50 में जगह नहीं बना पाता है. इसका मतलब यह है कि सीबीएसई बोर्ड में 99 फीसदी परिणामों के बावजूद दिल्ली में शिक्षा का स्तर वह नहीं है जिससे स्कूल की रैंकिंग में सुधार हो. 99 फीसदी बच्चे पास तो हो जा रहे हैं लेकिन प्रतिभा के मामले में वे देश के शीर्ष स्कूलों के बच्चों से काफी पीछे हैं.
एनएएस 2021 में पंजाब टॉप पर होने के बावजूद स्कूल की रैंकिंग में बहुत पीछे है तो यहां भी शिक्षा के स्तर पर सवाल उठते हैं. स्पष्ट है कि एजुकेशन वर्ल्ड इंडिया स्कूल रैंकिंग 2021-22 से यह तो पता चलता है कि किन राज्यों में ऐसे सुविधा संपन्न स्कूल हैं जहां बच्चे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन इससे संबंधित प्रदेश में शिक्षा का स्तर कैसा है, इसका पता नहीं चलता.
शिक्षा का मकसद ज्ञान होना चाहिए
इन उदाहरणों से एक बात स्पष्ट हो रही है कि केवल छात्रों की मेरिट या प्रतिभा का परीक्षण करके शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. उल्लेखनीय यह भी है कि प्रतिभा के मूल्यांकन का आधार भी दोषरहित नहीं है. एक खास पैटर्न में सवाल पूछे जाने से प्रतिभाओं का सही मूल्यांकन हो, यह आवश्यक नहीं है.
शिक्षाविदों का मानना है कि स्कूलों में प्रोजेक्ट कार्य से बच्चों को जरूर जोड़ा जाता है मगर यह खानापूर्ति बनकर रह गया है. प्रोजेक्ट कार्य अब रेडीमेड मिलने लगे हैं या फिर बाजारों में मांग के अनुसार बनाए जाने लगे हैं. अभिभावक या तो स्वयं प्रोजेक्ट कार्य में बच्चों को मदद करते हैं या फिर बाजार से उसे खरीदकर उपलब्ध करा देते हैं.
ऐसे प्रोजेक्ट से जुड़कर भी बच्चे कुछ सीख पा रहे हों, ऐसा नहीं लगता. पूरा मकसद ही बेमकसद हो गया लगता है. निश्चित रूप से बच्चे नंबर ले आएंगे, स्कूल भी बेहतर दिखेंगे लेकिन वास्तव में यह सब खोखले दावों का हिस्सा बन कर रह गया है.
शिक्षाविदों का यह भी मानना है कि आज शिक्षक और छात्र दोनों दबाव में हैं. दोनों पर पढ़ाने और पढ़ने का दबाव है.
ज्ञान हासिल करने का मूल लक्ष्य भटकता नजर आ रहा है और केवल अंक जुटाने की होड़ दिख रही है. स्कूल अपनी परफॉर्मेंस खराब होते देखना नहीं चाहते और इसलिए अंक देने में कोई कंजूसी नहीं बरतते हैं.
वहीं, छात्र किसी तरह से होमवर्क करने और अपने शिक्षकों को संतुष्ट करने में जुटे हैं. इसके लिए कट-पेस्ट, कॉपी और प्रोजेक्ट वर्क की खरीद सबकुछ करने को वे तैयार हैं. ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कल्पना बनकर रह गयी है.
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