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अकेली लड़ाई या बड़ा गेम प्लान, J&K चुनावों में NC के एकला चलो नीति के क्या मायने?

National Conference: राजनीतिक बदलाव के बीच घाटी की सबसे पुरानी पार्टी के चुनाव में प्रमुख दावेदार के रूप में उभरने की संभावना है.

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लोकसभा चुनाव 2024 (Loksabha Election 2024) से पहले जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir) में बहुत कुछ घट रहा है. यह आर्टिकल 370 को खत्म होने के लगभग पांच साल बाद यह पहला चुनाव होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने मंगलवार 20 फरवरी को कभी पूर्ण राज्य रहे प्रदेश का दौरे किया और जम्मू-कश्मीर में धीमी रफ्तार से बह रही हवाओं में हलचल भर दी. यह 2019 के बाद उनका दूसरा दौरा था. प्रधानमंत्री की यात्रा के मद्देनजर सरकार ने चुनाव से पहले केंद्र शासित प्रदेश में सशस्त्र बलों की करीब 635 कंपनियों के निवेश का भी खुलासा किया है.

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नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) जैसे बड़े क्षेत्रीय दलों पर तंज कसते हुए पीएम मोदी ने कहा कि उन्हें खुशी है कि केंद्र शासित प्रदेश को “परिवारवादी राजनीति से आजादी मिल रही है.” उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में लोगों को “दशकों तक परिवारवादी राजनीति का खामियाजा भुगतना पड़ा. उन्हें सिर्फ अपने परिवारों की चिंता है, आपके हितों, आपके परिवार की नहीं.”

लोकसभा चुनाव नजदीक आने के साथ ही राजनीतिक माहौल गर्माने पर जम्मू-कश्मीर में सभी दलों के राजनेता इसी तरह की छींटाकशी कर रहे हैं.

सीट बंटवारे पर खींचतान

खींचतान तब शुरू हुई जब पिछले हफ्ते नेशनल कॉन्फ्रेंस अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी, न कि दूसरे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक गठबंधन जिसका नेशनल कॉन्फ्रेंस हिस्सा है उनके साथ मिलकर. उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “जहां तक सीटों के बंटवारे का सवाल है, मैं एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अकेले चुनाव लड़ेगी.”

अब्दुल्ला के विरोधियों द्वारा उन पर अपने साथियों को धोखा देने का आरोप लगाने के बाद इस बयान पर राजनीतिक विवाद उमड़ पड़ा. नेशनल कॉन्फ्रेंस पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार (Gupkar) डिक्लेरेशन (PAGD) का हिस्सा है, जिसका गठन जम्मू-कश्मीर की खोई स्वायत्तता को फिर से बहाल करने के लिए किया गया था और केंद्र में सरकार बनाने के मकसद से INDIA गठबंधन बनाया गया था.

फारूक की टिप्पणी पर विवाद के तुरंत बाद उनके बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने पार्टी के चुनावी रणनीति के साथ खुलकर सामने आएं. उन्होंने कहा कि NC कश्मीर डिवीजन में तीन संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि जम्मू में सीटें दो सीटों पर सीट-बंटवारे की व्यवस्था पर “अनौपचारिक बातचीत” हो रही है.

नेशनल कॉन्फ्रेंस का इरादा साफ है

पूरे जम्मू-कश्मीर में NC की पांच संसदीय सीटें हैं. उनमें से तीन (श्रीनगर-बडगाम, बारामूला-कुपवाड़ा और अनंतनाग-राजौरी) कश्मीर में हैं, जबकि दो (जम्मू और उधमपुर) जम्मू में हैं.

PDP सांसद तारिक हमीद कर्रा के इस्तीफे से खाली हुई श्रीनगर सीट पर 2017 में फारूक अब्दुल्ला ने जीत हासिल कर ली. कर्रा ने 2016 के विरोध-प्रदर्शनों के दौरान सुरक्षा बलों के हाथों नागरिकों की मौत के विरोध में अपना इस्तीफा दे दिया था.

उपचुनाव में 7.14 प्रतिशत मतदान हुआ जो 30 सालों में सबसे कम मतदान था. बाद में 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर से यह सीट जीती, जिसमें 14.43 प्रतिशत मतदान हुआ. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने और दो सीटें भी जीतीं, जबकि जम्मू की दो सीटें BJP के खाते में गईं.

शायद इस यकीन के साथ कि इस बार चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा होगा. पार्टी कश्मीर में जीती तीन सीटों पर अपने सहयोगियों के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ने पर अड़ी हुई है.

उमर ने अपने बयान में दोहराया कि “उनकी पार्टी INDIA गठबंधन की सदस्य थी और बनी रहेगी. हालांकि सीट-शेयरिंग के सवाल पर उन्होंने कहा कि जिन सीटों पर बातचीत की जाएगी ये वे सीटें हैं जो BJP के पास हैं." उन्होंने आगे कहा, “हम इस बात पर अटल हैं.”

जम्मू-कश्मीर में चुनाव से पहले BJP की तैयारी

आर्टिकल 370 के समाप्त होने से केंद्र शासित प्रदेश में शक्ति संतुलन पूरी तरह बदल चुका है और इस बदले माहौल में जम्मू-कश्मीर चुनाव के लिए खुद को तैयार कर रहा है.

परिसीमन उपाय जिसने चुनावी सीटों को कई मायनों में बदल दिया है में BJP की नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ सरकार ने परंपरागत राजनीतिक के गणित को मुश्किल बना दिया है.

परिसीमन आयोग ने BJP के गढ़ जम्मू में 6 सीटें हासिल कर ली है, जिससे उनकी संख्या बढ़कर 43 हो गई. कश्मीर को सिर्फ एक सीट दी गई, जिससे मनमाने बदलाव के आरोप लगे.

आयोग ने इसके अलावा राजौरी और पुंछ के आदिवासी बहुल इलाकों को जम्मू लोकसभा सीट से हटा दिया और उन्हें कश्मीर में अनंतनाग लोकसभा सीट में मिला दिया. इससे परंपरागत दलों के लिए हालात और मुश्किल हो गए हैं क्योंकि अनंतनाग सीट में अब पीर पंजाल पहाड़ियों के दूसरी ओर के इलाके शामिल होंगे, “जहां एकदम अलग राजनीतिक और सामाजिक रुझान से मतदान होता है.”

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इसके अलावा जम्मू-कश्मीर की पहाड़ी भाषा बोलने वाली आबादी को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने वाले हालिया विधेयक के पारित होने से जातीय समूहों को लुभाकर परंपरागत पार्टियों के मतदाताओं को BJP अपने पाले में कर सकती है.

पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के तकरीबन 20,000 परिवार, जिनके मन में कश्मीरी पार्टियों के प्रति जुड़ाव अभी भी बरकरार है, को मताधिकार देने का कदम एक और बड़ा राजनीतिक पैंतरा है. जो निश्चित रूप से BJP को फायदा पहुंचाएगा.

नेशनल कॉन्फ्रेंस फिर एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रही है

राजनीतिक विश्लेषकों ने द क्विंट को बताया कि इन बदलावों के साथ जमीनी हालात में दूसरे बदलाव भी शामिल हैं. PDP जैसी लोकल पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुकाबले संगठन के तौर पर कमजोर हो रही हैं जिससे नेशनल कॉन्फ्रेंस फिर से एक मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभर रही है.

राजनीतिक हालात में भारी बदलावों के बीच घाटी की सबसे पुरानी पार्टी– नेशनल कॉन्फ्रेंस के चुनावों में भी बड़ी ताकत के रूप में उभरने की संभावना है.

वरिष्ठ संपादक और लेखक जफर चौधरी बताते हैं, “PDP 2018 से ही नेताओं के पार्टी छोड़ने के सिलसिले से जूझ रही है. यह नेशनल कॉन्फ्रेंस को अपने आप मजबूत स्थिति में पहुंचा देता है.” चौधरी कहते हैं कि अनंतनाग सीट में बदलाव को देखते हुए नए चुनावी गणित ने जम्मू-कश्मीर में पार्टियों को मुश्किल हालात में डाल दिया है. इससे उनपर दोतरफा मार पड़ रही है.

कश्मीर की तीनों लोकसभा सीटों के तहत कुल 55 विधानसभा सीटें आती हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस को भरोसा है कि वह 2019 में जीती बारामूला और श्रीनगर की दोनों लोकसभा सीटों को अपने पास बरकरार रखेगी.

जहां तक अनंतनाग सीट का सवाल है. अनंतनाग सीट के आबादी का ढांचा बदल गया है, और वह पहले PDP का गढ़ रही है वह नेशनल कॉन्फ्रेंस PDP के साथ यह सीट बांटने की चाहत नहीं दिखा रही है. कोई भी एक पार्टी जो इन तीनों लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करेगी, विधानसभा चुनाव होने पर उसके अगली सरकार बनाने की भी संभावना है. यही वजह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अपने दम पर यह सीट हासिल करना चाहती है.

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चौधरी कहते हैं, “महबूबा मुफ्ती पर लोग थोड़ा भरोसा करते हैं. लेकिन लोग जानते हैं कि अगर NC और PDP अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं, तो यह BJP के लिए फायदेमंद होगा. दक्षिण कश्मीर में पहले से ही हमेशा राजौरी के मुकाबले बहुत कम मतदान होता है (पिछले लोकसभा चुनाव में 9 प्रतिशत मतदान हुआ था). राजौरी में मतदान 70 प्रतिशत होता है. कश्मीर में किसी भी तरह के कम मतदान से BJP को जम्मू में सीधा फायदा होगा जहां उसे हिंदू मतदाताओं और हाल ही में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए गए पहाड़ियों का साथ मिलेगा.

दूसरी वजह यह है कि आर्टिकल 370 के खत्म होने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद गुपकार गठबंधन जैसे गुटों का राजनीतिक मकसद अप्रासंगिक हो गया है, जिसके नतीजे में नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी परंपरागत पार्टियां चुनावी राजनीति में वापस आ रही हैं.

पोलिटिकल साइंटिस्ट और जम्मू यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर रेखा चौधरी कहती हैं, “असल में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने आर्टिकल 370 और चुनाव में PAGD की क्या भूमिका होनी चाहिए, इसके बीच का फर्क सामने रख दिया है.”

जम्मू-कश्मीर में सियासी घमासान

इस चुनावी मौसम में सबसे भावनात्मक मुद्दों में से एक आर्टिकल 35ए का छिन जाना है, जो केंद्र शासित प्रदेश में जमीन का मालिकाना और सरकारी नौकरियों में सुरक्षा देता था.

आर्टिकल 370 के खात्म होने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति अब उलट गई है. वे अब आर्टिकल 370 को वापस लाने पर नहीं बल्कि ऐसे नियमों को लागू करने पर जोर दे रहे हैं जो गैर-स्थानीय लोगों के खिलाफ जमीन और नौकरियों की हिफाजत करें.

यह एक सुरक्षित रास्ता लगता है क्योंकि राजनेताओं का आकलन है कि ऐसी मांगों पर नई दिल्ली की नाराजगी कम होगी क्योंकि ऐसी मांग कारगिल और लद्दाख के लोगों की तरफ से भी उठाई गई है. यहां केंद्र ने बातचीत की ख्वाहिश जताई है.

दो साल पहले कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने 2001 के रोशनी एक्ट को बहाल करने का वादा किया है. इस विवादास्पद कानून को 2019 में जम्मू कश्मीर एंड लद्दाख हाई कोर्ट ने अवैध करार दिया था. इस कानून में सरकारी जमीन पर “अतिक्रमण” को मामूली शुल्क के बदले नियमित कर जम्मू-कश्मीर की बिजली परियोजनाओं को फाइनेंस करने के लिए इस्तेमाल करने का प्रावधान था.

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बंटवारे का घर 

अगस्त 2019 के ऐतिहासिक फैसले के बाद से कश्मीर के राजनीतिक हालात में कई तरह के बदलाव आए हैं. डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी (DPAP) और जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी (JKAP) जैसी नए राजनीतिक दलों के शुरुआत के साथ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि घाटी में राजनीतिक परिदृश्य जितना अधिक बंटा होगा, BJP को उतना ही चुनावी फायदा मिलेगा.

दूसरी तरफ, परंपरागत राजनेता शायद ही कोई साझा चेहरा पेश कर पाए हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस छोड़कर BJP में आए देवेंदर सिंह राणा ने पिछले हफ्ते अब्दुल्ला पर 2014 में सीएम पद हासिल करने के लिए BJP के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया था.

बाद में DPAP के गुलाम नबी आजाद ने भी इसी तरह के आरोप लगाए और पिता-बेटे पर सरकारी जांच से बचने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ रात में गुप्त बैठकें करने का आरोप लगाया.

गुपकार गठबंधन में साझीदार के रूप में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सहयोगी मानी जा रही PDP भी बहस में कूद पड़ी है. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने ट्वीट में लिखा, “night rendezvous” (रात की मुलाकात), जो आजाद के दावे का छिपे शब्दों में समर्थन कर रहा था.

यह बंटा-बंटा राजनीतिक नजारा और भी खराब होने की उम्मीद है क्योंकि अब्दुल्ला के राजनीतिक विपक्षी अपने अभियानों को इस दावे पर केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अगले विधानसभा चुनाव में BJP के साथ निश्चित रूप से हाथ मिलाने वाली है. मगर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अभी ऐसे हालात की भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी.

पोलिटिकल साइंटिस्ट रेखा चौधरी कहती हैं, “मुझे नहीं लगता कि नेशनल कॉन्फ्रेंस विधानसभा चुनाव से पहले गठबंधन पर कोई कदम उठाएगी. अभी तक वो बहुत व्यावहारिक रहे हैं."

(शाकिर मीर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह द वायर. इन, आर्टिकल 14, कारवां मैगजीन, फर्स्टपोस्ट, द टाइम्स ऑफ इंडिया और दूसरों के लिए भी लिखते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shakirmir है. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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