क्या पाकिस्तान(Pakistan) के प्रधानमंत्री इमरान खान (Imran Khan), जिन्हें पाकिस्तान का कठपुतली प्रधानमंत्री माना जाता है, उन्हें जल्द ही 1957 के बाद पहली बार सरकार के ऐसे प्रमुख की पहचान मिलने वाली है जिन्हें अविश्वास प्रस्ताव की वजह से पद छोड़ना पड़ सकता है. साल 1957 में पाकिस्तान के छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर को उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के बाद पद से हटा दिया गया था
65 साल बाद, पाकिस्तान की मुख्य विपक्षी पार्टियां पाकिस्तान मुस्लिम लीग (N), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मौलाना फजलूर रहमान के नेतृत्व वाली Muttahida Majlis-e-Amal, चुंदरीगर वाली स्थिति ही पीएम इमरान खान पर भी थोपना चाहती हैं.
इसकी वजह ये है कि पाकिस्तान के करिश्माई क्रिकेटर इमरान खान अगस्त 2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद देश को प्रभावी ढंग से चलाने में नाकाम रहे हैं. 8 मार्च को विपक्षी पार्टियों ने प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ नेशनल असेंबली के स्पीकर के सामने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया.
पाकिस्तान के संविधान में अगर सदन को बुलाने की मांग एक चौथाई सदस्य करें तो स्पीकर को 14 दिनों के भीतर असेंबली बुलानी होती है.
अगर ऐसा होता है तो नेशनल असेंबली 22 मार्च को बैठेगी. पाकिस्तान डे के जश्न यानी 23 मार्च से ठीक एक दिन पहले.
राजनीतिक संस्था के तौर पर आर्मी
अभी ये माना जा रहा है कि सत्तासीन इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक इंसाफ (PTI) के असंतुष्ट अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करेंगे और इससे खान को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ सकता है. ये असंतुष्ट जहांगीर तारीन (Jahangir Tareen) के वफादार हैं, जिन्हें कभी इमरान का करीबी और मार्गदर्शक माना जाता था, लेकिन अब कट्टर दुश्मन माना जाता है. इसके अलावा अलीम खान भी हैं, जो पंजाब के एक प्रमुख राजनीतिज्ञ और PTI के नेता हैं और ये भी अपने समर्थकों को सदन में इमरान खान के खिलाफ वोटिंग करने के लिए मजबूर कर सकते हैं.
इन असंतुष्टों के समर्थन के बिना अविश्वास प्रस्ताव नीचे गिर सकता है. इसलिए तारीन और अलीम पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के अहम खिलाड़ी हैं.
इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान की सेना का रवैया क्या होगा. वैसे सेना ने हमेशा ये कहा है कि वो राजनीति में शामिल नहीं है. 10 मार्च को पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के डायरेक्टर जनरल, मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार (Babar Iftikhar) द्वारा रखी गई एक प्रेस ब्रीफिंग में एक पत्रकार ने कहा कि हाल की राजनीतिक स्थिति, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी है. इमरान खान ने कहा है कि आर्मी उनके साथ है. इसके जवाब में बाबर इफ्तिखार ने मीडिया को याद दिलाया कि उन्होंने अपनी पिछली प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्या कहा था. उन्होंने कहा कि सेना का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है. साथ ही उन्होंने ये भी आगाह किया कि आगे इस पर कोई गैरजरूरी चर्चा नहीं होनी चाहिए.
बाबर की ये आपत्ति मुश्किल से ही यकीन करने लायक है. क्योंकि, सच ये है कि पाकिस्तान में सेना सिर्फ एक प्रोफेशनल फोर्स नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक संस्था भी है.
कुछ राजनीतिक नेताओं को लेकर सेना का रवैया विरोधपूर्ण रहा है. उदाहरण के लिए पूर्व पीएम नवाज शरीफ. साल 2013 में नवाज शरीफ के चुनाव जीतने के बाद सेना ने वो सबकुछ किया जो उन्हें परेशान कर सकता था. सेना ने नवाज शरीफ को हराने और इमरान खान को जिताने में भी अहम भूमिका अदा की और उनका समर्थन किया, इसलिए इमरान खान को सेलेक्टेड कहा जाता है.
हालांकि अब ऐसा कहा जा रहा है कि इमरान खान की अकुशलता और नाजुक समय में सार्वजनिक बयानों को लेकर उनकी अक्षमता से आर्मी के जनरल परेशान हैं. जिसका ताजा उदाहरण है हाल में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर दिया गया उनका बयान
विवादित मॉस्को दौरा
पाकिस्तान के रूस के साथ रिश्ते हमेशा से ही उग्र और सामान्य रूप से देखें तो नकारात्मक ही रहे हैं. इसमें बीच बीच में ही कभी ऐसा हुआ कि दोनों देशों के संबंध अच्छे नजर आए. पिछले कुछ दशकों में अफगानिस्तान पर विचारों को लेकर सामंजस्य की वजह से दोनों देशों के बीच रिश्तों ने धीरे धीरे जमीन पकड़ी है
वहीं रूस और पाकिस्तान दोनों का चीन के साथ भी गठबंधन है. 23 और 24 फरवरी को पीएम इमरान के मॉस्को दौरे को लेकर पाकिस्तान की उम्मीदें ज्यादा थीं. यहां ये भी अहम है कि इमरान खान ऐसे तीसरे पाकिस्तानी नेता थे जो रूस के दौरे पर गए. इससे पहले जुल्फिकार अली भुट्टो दो बार, पहली बार साल 1972 में जब वो राष्ट्रपति थे और दूसरी बार साल 1974 में जब वो प्रधानमंत्री थे, रूस गए थे. फिर इसके 25 साल के लंबे अंतराल के बाद साल 1999 में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ रूस गए.
इस बार प्रधानमंत्री इमरान खान की मॉस्को जाने की तारीख ने पाकिस्तान को मुश्किल में डाल दिया है. खास तौर से इस कारण क्योंकि, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने 21 फरवरी को दोनेस्क और लुहांस्क को स्वतंत्र देश घोषित किया था. पश्चिमी देशों ने इसकी आलोचना की थी और हफ्तों पहले से ये देश इस बात की चेतावनी भी देते रहे कि रूस, यूक्रेन पर आक्रमण कर सकता है.
इसे ध्यान में रखते हुए इमरान खान को अपना दौरा स्थगित कर देना चाहिए था फिर चाहे ये रूस को नाराज ही करता. लेकिन इमरान खान ने पूर्व राजनयिकों और सेना से सलाह लेने के बाद इस दौरे पर जाना तय किया.
जब पुतिन ने यूक्रेन पर आक्रमण किया तब इमरान खान मॉस्को में थे. पाकिस्तान के पीएम का पुतिन से मिलना और इसे एक आधिकारिक दौरे का शिष्टाचार बताना पश्चिमी देशों की नाराजगी की वजह बन गया. वहीं यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध को खत्म करने के इमरान खान के बयान भी पश्चिम के साथ रिश्तों पर कुछ खास असर नहीं दिखा पा रहे हैं.
एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए यूरोपियन यूनियन के राजदूतों के समूह और करीब 20 देशों ने जिनमें फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश शामिल हैं, उन्होंने एक संयुक्त बयान के जरिए पाकिस्तान से कहा कि वो यूक्रेन पर रखी गई यूएन जनरल असेंबली डिबेट के दौरान रूस की आलोचना करे, लेकिन पाकिस्तान ने तय किया कि वो न तो इस डिबेट में हिस्सा लेगा और न किसी का पक्ष लेगा.
हर तरफ से दबाव झेल रहे पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने इस पर अप्रसन्नता जताई है. विदेश मंत्रालय ने एक बैठक में राजदूतों को याद दिलाया कि कूटनीति का ये कोई तरीका नहीं होना चाहिए.
मामला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था. ज्यादा से ज्यादा पाकिस्तान अपने राजदूतों के जरिए उन देशों तक अपनी नाखुशी का संदेश पहुंचवा सकता था
इन सबके बीच इमरान खान ने हस्तक्षेप करना तय किया. एक पब्लिक मीटिंग में उन्होंने विदेशी राजदूतों से पूछ दिया कि क्या हम गुलाम हैं और क्या हमें आपके हिसाब से काम करना चाहिए. उन्होंने ये भी पूछा कि क्या उनके देशों ने कभी जम्मू कश्मीर में भारत की कार्रवाई और भारत के साथ टूटे व्यापार संबंधों की आलोचना की?
इतना ही नहीं, उन्होंने जोर देते हुए कहा कि पूर्व की सरकारों के अफगानिस्तान में नाटो युद्ध में शामिल होने के फैसले की वजह से पाकिस्तान ने पहले ही बहुत बड़ी कीमत चुकाई है.
इमरान खान ये भूल गए कि यूक्रेन को लेकर रूस—नाटो की लड़ाई पर दिया उनका ये सीधा जवाब उनके पद और राजनीतिक व्यवहार कुशलता के हिसाब से ठीक नहीं है.ऐसा माना जा रहा है कि पाकिस्तान के जनरल, पीएम इमरान खान के इस अचानक फूटे गुस्से से नाखुश हैं. ये इस बात का एक और सबूत है कि इमरान खान संवेदनशील मामलों को कुशलतापूर्वक संभाल नहीं पाते.
इसमें कोई शक नहीं कि नाटो देशों ने, खास करके इमरान खान की इन बातों के बाद पाकिस्तान की सेना को उनकी आर्थिक कमजोरियों की याद दिला दी हो, जिसे लेकर पाकिस्तान को नाटो देशों की मदद की जरूरत पड़ सकती है. वहीं ये भी सच है कि न ही चीन, न सऊदी अरब International Monetary Fund (IMF) को लेकर वो मदद कर सकते हैं, जो पश्चिम कर सकता है.
इन सब बातों के अलावा पाकिस्तान अभी भी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट से बाहर नहीं हुआ है. इसमें पाकिस्तान की सेना एक संभाषी की तरह है न कि देश का राजनीतिक नेतृत्व. हालांकि फिर भी मंत्रियों को इसमें रखा जा सकता है.
इमरान खान के इन सभी गलत कदमों को देखें तो ऐसा लगता है कि सितारे उनका साथ नहीं दे रहे. गंभीर आतंरिक चुनौतियों और आर्थिक संकट के समय में, जो यूक्रेन युद्ध की वजह से और बढ़ सकता है, अंतत: आर्मी को ही राजनीति बदलाव की समझ को लेकर कोई अंतिम निर्णय लेना होगा.
क्या सेना फिलहाल राजनीतिक बदलाव या ऐसा कोई जोखिम उठाने से बचना चाहेगी? इमरान खान को इसमें राहत मिल सकती है, लेकिन इसके बाद भी अविश्वास प्रस्ताव का खतरा उन पर मंडरा रहा है और हो सकता है कि वो इससे बच न पाएं.
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