रात के दो हैं,
दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,
पास-पास आती हुई घहराती गूंजती
किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज!!
किसी अनपेक्षित
असंभव घटना का भयानक संदेह,
अचेतन प्रतीक्षा,
कहीं कोई रेल-एक्सीडेण्ट न हो जाए
कवि मुक्तिबोध की ये मशहूर पंक्तियां अचानक से मेरे दिमाई में उस समय कौंध गई जब में 2 जून की रात ओडिशा के बालासोर और भद्राक के बीच ट्रेन हादसे की खबर को पढ़ा. जाहिर सी बात है कि मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ इस ट्रेन हादसे की भविष्यवाणी नहीं कर रही थी . लेकिन इन पंक्तियों ने एक अलग तरह के ‘रेल-हादसे’के बारे में शंका जताई थी , खैर हम उस पर आगे बात करेंगे.
हालांकि यह बहुत ह्दय विदारक घटना है. करीब 300 लोगों की मौत हुई है. सैकड़ों लोग अभी घायल हैं. आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं. जिन लोगों की मौत हुई है या घायल हुए हैं वो बहुत साधारण लोग हैं. वे कोरोमंडल एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों के सामान्य कोचों में सफर करते हैं.
सिर्फ यात्री ही नहीं बल्कि ऐसी ट्रेनों में चाय बेचकर गुजारा करने वाले हावड़ा निवासी पिनाकी राज मंडल जैसे लोगों ने भी जान गंवाई है. उनके साथ झालमुडी बेचने वाले सुजय जाना ने द टेलीग्राफ अखबार के संवाददाता को बताया कि पिनाकी मंडल बालासोर स्टेशन पर चाय बेचकर ट्रेन से उतरे थे, जैसा कि वह रोज करते थे. लेकिन उन्होंने देखा कि उनकी केतली में कुछ चाय बची हुई है. इसलिए बची हुई चाय को बेचकर कुछ और कमाने की सोच कर उन्होंने बालासोर से भद्रक जाने का निश्चय किया. सुजय को डिनर के लिए इंतजार करने के लिए कहकर वह फिर से ट्रेन में चढ़ गया. लेकिन ट्रेन भद्रक नहीं पहुंच सकी. सुजय उन दोनों के लिए मीट पका रहे थे. पिनाकी राज के नसीब में अपने साथी सुजय के साथ खाना खाना शायद नहीं लिखा था.
जवाबदेही के लिए सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए
यदि इस तरह के ब्यौरा सिर्फ आपकी आंखों में आंसू लाते हैं, तो उनके बारे में लिखना व्यर्थ है. हमें इस ट्रेन हादसे के बाद लोगों की प्रतिक्रिया से ज्यादा चिंतित होना चाहिए. क्योंकि वे उस 'रेल दुर्घटना' की ओर इशारा करते हैं, जिसकी ओर हमारी भारत की रेल दौड़ रही है, जैसा कि मुक्तिबोध की कविता में आशंका जताई गई है.
अलग-अलग दिशाओं से आ रही 3 ट्रेनों का आपस में टकराना एक असाधारण बात है. इसका क्या कारण हो सकता है? इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा? ये सवाल पूछे जाने चाहिए या नहीं?
कई लोग कह रहे हैं कि यह समय ऐसे सवालों का नहीं है. यह एक राष्ट्रीय त्रासदी है और वास्तव में इस समय किसी को भी इस तरह के सवाल नहीं पूछने चाहिए. हालांकि विपक्ष कुछ सवाल पूछ रहा है.
वह सरकार से पूछ रहा है कि हर दूसरे दिन प्रधानमंत्री एक नए 'वंदे भारत' को हरी झंडी दिखाकर स्टेशन से स्टेशन जा रहे हैं, भारत में बिजली की गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन लाने का दावा कर रहे हैं, जबकि बुनियादी बातों की आपराधिक उपेक्षा की जा रही है. रेलवे जैसी प्रणाली में सुरक्षा उपायों के बारे में क्या, जो पूरी तरह से प्रौद्योगिकियों के कोआर्डिनेशन पर निर्भर है?
क्या उन्हें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए या इसे अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर देना चाहिए? क्या विपक्ष ये सवाल केवल सरकार को शर्मिंदा करने के लिए, उसे अपमानित करने के लिए पूछ रहा है? मेनस्ट्रीम मीडिया की तरह इन सवालों को खारिज करने से ऐसे और हादसों के रास्ते खुलते हैं .
फंड और रखरखाव के संबंध में सवाल
जनता सिर्फ यही जानती है कि सरकार नई ट्रेनें ला रही हैं. उसे पता नहीं है कि भारत की सर्वोच्च लेखापरीक्षा संस्था CAG ने , जो सरकारी संस्थाओं की स्वयं निगरानी करने वाली संस्था है, रेलवे के बजट और खर्चों की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पिछले कई वर्षों से, विशेषकर पिछले 4 वर्षों से रेलवे के रखरखाव और सुरक्षा को ताक पर रख दिया गया है.
सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित राशि की तुलना में बहुत कम उपयोग किया गया है.
यह राशि सिग्नल सिस्टम, रेलवे ट्रैक के रखरखाव, मरम्मत आदि पर खर्च की जानी है. लेकिन जैसा कि CAG खुद कहता है, जांच से पता चलता है कि फंड का उपयोग नहीं किया गया है. कर्मचारियों की भी भारी कमी है. कैग की रिपोर्ट कहती है कि अधिकारियों का ध्यान गैर-प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की ओर भटका दिया जाता है. ये बातें पिछले 4 साल से बार-बार कही जा रही हैं. लेकिन सरकार रेलवे स्टेशनों को रोशन करके और 'वंदे भारत' ट्रेनों को हरी झंडी दिखाकर भारतीय रेल यात्रियों को गुमराह करना चाहती है.
यात्रियों की सुरक्षा की नगण्य देखभाल के साथ, यह दावा किया जाता है कि भारत अब रेलवे क्रांति के युग में है. शनिवार को भी प्रधानमंत्री को एक नई 'वंदे भारत' ट्रेन को हरी झंडी दिखानी थी. लेकिन इस हादसे ने सारी तैयारियों पर पानी फेर दिया.
एक समय था जब विपक्ष के साथ-साथ मुख्यधारा की मीडिया भी इस तरह के सवाल पूछा करता था. अब यह उन पर हमला करता है जो पूछने की हिम्मत करते हैं. पहले, सरकार सवालों और आलोचनाओं का जवाब देने के लिए मजबूर और बाध्य महसूस करती थी. अब इसमें ढील दी गई है क्योंकि सवाल पूछने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं.
सरकार जानती है कि उसे सवालों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसके समर्थन में बिग मीडिया है, जो उनसे निपटने के लिए तैयार है. लोग भूल गए हैं कि विपक्ष भी जनता का प्रतिनिधि होता है. यह एक युद्ध में पराजित राजा नहीं है जो एक विजयी राजा के शासन में अपना मुंह बंद रखने के लिए बाध्य है. लोगों के प्रति उनका कर्तव्य है कि वे सरकार को जवाबदेह बनाएं, उसे आत्मसंतुष्ट न होने दें.
प्रधानमंत्री का ‘मीडिया मैनेजमेंट’
जो बिग मीडिया हैं, वो अधिक चिंतित इस बात से लग रहे थे कि इस दुर्घटना से प्रधानमंत्री या यहां तक कि सरकार की छवि प्रभावित नहीं होनी चाहिए. इसे लेकर खुद प्रधानमंत्री चिंतित हैं. इसलिए उनके प्रचार विभाग ने जनता के लिए गंभीर मुद्रा में अधिकारियों के साथ प्रधानमंत्री की बातचीत की तस्वीरों को दिखाने की व्यवस्था की. बड़ी त्रासदी के इस क्षण में भी वे अधिकारियों के साथ अपनी बैठक को गंभीरता से दिखाने के लिए सभी कोणों से उचित कोरियोग्राफी और वीडियोग्राफी करवाना नहीं भूले.
यह उनकी आदत है, लेकिन इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि बैठक के बाद दुर्घटनास्थल पर उड़ान भरने से पहले उन्हें अपनी पोशाक बदलने का समय मिला. हम प्रधानमंत्री को एक खंभे के सहारे झुके हुए और बार-बार मोबाइल पर बात करते हुए देखते हैं. लेकिन यह किसी ने पूछने की हिम्मत नहीं की कि आखिर दुर्घटनास्थल पर पहुंचकर प्रधानमंत्री मोबाइल पर किससे और क्या जानकारी ले रहे हैं ..यह किसी ने नहीं पूछा
टेलीविजन चैनल तो इस बात से ज्यादा परेशान थे कि बेचारे प्रधानमंत्री को इतनी गरमी में दुर्घटनास्थल पर आना पड़ा. बहुत तकलीफ के साथ एंकरों ने उस प्रचंड गर्मी की बात की जिसमें, पीएम को साइट पर जाना पड़ा और उन्हें बहादुरी से इस असाधारण कार्य को करना पड़ा.
इन सबमें सबसे अश्लील तो वो एक खूबसूरत टेंट था जो प्रधानमंत्री के लिए दुर्घटनास्थल पर अधिकारियों से मिलने के लिए लगाया गया था, जबकि टेंट के ठीक बगल में लाशों के ढेर लगे थे. उन्हें ढकने के लिए कपड़े तक की व्यवस्था नहीं थी. लेकिन टेंट के अंदर कूलर लगे हुए थे. तो, आप जानते हैं कि अगर आप चाहें हर चीजें आपके लिए कराई जा सकती है.
एक अखबार ने रिपोर्ट किया कि प्रधानमंत्री ने कसम खाई है कि इस हादसे के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी. यहां 'प्रतिज्ञा या कसम' जैसे भारी-भरकम शब्द के प्रयोग की क्या आवश्यकता थी? क्या यह कोई युद्ध है या फिर वो किसी युद्ध के बीच में थे ? साथ ही क्या प्रधानमंत्री को बिना जांच के ही इस त्रासदी में कुछ लोगों के हाथ होने की जानकारी मिल गई है ?
आखिर कौन है जिम्मेदार ?
कौन दोषी है, और कौन जिम्मेदार है? कैग की रिपोर्ट से यह साफ हो गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि यात्रियों की सुरक्षा के लिए जरूरी खर्च नहीं किए जा रहे हैं और संसाधनों का उपयोग गैर-प्राथमिकता वाली चीजों के लिए किया जा रहा है..
कुशल शासन के लिए बार-बार 'डबल इंजन सरकार' का नारा बुलंद करने वाले प्रधानमंत्री क्या इसके दोषी नहीं हैं? क्या उनका हर समय का आडंबर और दिखावा, जो वास्तव में उनकी प्रशासनिक अक्षमता को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? या रेल मंत्री जो कभी किसी नई ट्रेन को हरी झंडी दिखाकर रवाना नहीं करते? कौन जिम्मेदार है? क्या यह मीडिया नहीं है जिसने सरकार को जवाबदेह ठहराना बंद कर दिया है और उसे लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने दिया है?
इस ट्रेन हादसे के लिए जिम्मेदारी तय करते हुए हमें पिनाकी राज की कहानी पर फिर से बात करनी चाहिए. वो 2017 से पहले राजस्थान में रियल एस्टेट के कारोबार में काम करते थे. नोटबंदी के बाद कारोबार ठप होने के बाद उन्होंने ट्रेनों में चाय बेचना शुरू कर दिया. नोटबंदी और इस ट्रेन हादसे में पिनाकी की मौत के बीच क्या संबंध हो सकता है?
कुशल शासन के लिए बार-बार 'डबल इंजन सरकार' का नारा बुलंद करने वाले प्रधानमंत्री क्या इसके दोषी नहीं हैं? क्या उनका हर समय का आडंबर और दिखावा, जो वास्तव में उनकी प्रशासनिक अक्षमता को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? या रेल मंत्री जो कभी किसी नई ट्रेन को हरी झंडी दिखाकर रवाना नहीं करते? कौन जिम्मेदार है? क्या यह मीडिया नहीं है जिसने सरकार को जवाबदेह ठहराना बंद कर दिया है और उसे लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने दिया है
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Apoorvanand__ है. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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