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'एक राष्ट्र एक चुनाव' दोधारी तलवार है, संघवाद की कीमत पर आर्थिक फायदे की गिनती?

'One Nation One Election' की यह हकीकत है कि यह हमेशा राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर ताकतवर राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद है.

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2024 के आम चुनाव से पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी वे सिफारिशें सौंप दी हैं, जिसमें “एक देश, एक चुनाव” (One Nation, One Election ) की अवधारणा को लागू करने और एक साथ चुनाव कराने की वकालत की गई है. इन प्रस्तावों को, सरकार के तमाम स्तरों पर चुनावों को व्यवस्थित बनाने के लक्ष्य के साथ, प्रशासनिक प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने और आर्थिक बोझ कम करने वाला बताया गया है.

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हालांकि ऊपर से सहज दिख रही इस पहल के पीछे भारत के विविधता से भरे राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक संभावित खतरा छिपा है. इसमें कोई शक नहीं कि चुनावों का एकीकरण खर्च को कम कर सकता है, क्योंकि मौजूदा समय में ढेर सारे चुनावों से हर स्तर पर बड़ा खर्च आता है. इसके बावजूद राजनीतिक दलों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ने को लेकर आशंकाएं हैं. यह तरीका अनचाहे में ही ज्यादा आर्थिक संसाधनों वाली पार्टियों को फायदा पहुंचा सकता है, जिससे चुनावी लड़ाई बराबरी की नहीं रह जाएगी. इसके अलावा आर्थिक चिंताओं से इतर भी चिंताएं हैं.

प्रस्तावित मॉडल के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुकूल होने की पड़ताल जरूरी है, खासकर उन बिंदुओं पर जहां निरंकुशता की प्रवृत्ति बढ़ने की आशंका है. एक साथ होने वाले चुनावों के नतीजे में निरंकुश सरकारों में सत्ता का केंद्रीकरण लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर सकता है और सत्तारूढ़ विशिष्ट वर्ग के हाथों में सत्ता सीमित हो सकती है.

इस तरह इस व्यवस्था के आर्थिक फायदे हैं, मगर राजनीतिक बहुलवाद और लोकतांत्रिक शासन के लिए इसके संभावित असर को कतई नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. नीति निर्माताओं को चुनाव सुधार की जरूरतों को दुरुस्त करने में दक्षता के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों की हिफाजत से भी संतुलन बिठाना चाहिए.

एक साथ चुनाव की दिशा में किसी भी बदलाव में सत्ता असंतुलन के जोखिम को कम करने के लिए बडे़ पैमाने पर विचार-विमर्श और सुरक्षा उपायों की जरूरत है. प्रशासनिक दक्षता की कोशिश किसी भी हाल में लोकतांत्रिक पवित्रता और भारत के राजनीतिक परिदृश्य की जीवंतता की कीमत पर नहीं होनी चाहिए.
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आर्थिक और प्रशासनिक फायदा

भारत में एक साथ चुनाव कराने में सबसे बड़ा तर्क आर्थिक फायदे का दिया जा रहा है. मौजूदा समय में देश में चुनावों की बहुतायत से भारी खर्च होता है. सरकार के विभिन्न स्तरों पर मतदान को एक साथ जोड़कर काफी बचत की जा सकती है, जिससे जनता को सीधे फायदा पहुंचाने वाले बहुत सी जरूरी विकास योजनाओं के लिए धन उपलब्ध कराया जा सकता है.

इसके अलावा लगातार चुनावों की शृंखला से प्रशासनिक संसाधनों पर जो दबाव पड़ता है, उसे भी कम किया जा सकता है. एक साथ मतदान से प्रशासनिक तंत्र लगातार चुनावी प्रक्रियाओं में उलझे रहने के बोझ से आजाद होकर ज्यादा कुशलता से काम कर सकता है. खासतौर से आदर्श आचार संहिता लागू होने से, जो चुनाव अवधि के दौरान नई परियोजनाओं को अस्थायी रूप से निलंबित कर देती है, प्रशासन की गतिशीलता में रुकावट कम हो जाएगी.

आलोचक इस तरह के बड़े बदलाव की व्यवहारिकता या संभावित नतीजों पर सवाल उठा सकते हैं. हालांकि आर्थिक जरूरत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जाना चाहिए. भारत की विकास संबंधी योजनाएं संसाधनों के समझदारी भरे आवंटन पर निर्भर करती हैं, और चुनावों का एकीकरण समझदारी से राजकोषीय खर्च के लिए बाध्य करेगा.

निस्संदेह मुश्किलें हैं, मगर एक साथ चुनाव कराना अपने चुनावी ढांचे को आधुनिक बनाने और प्रशासन दक्षता बढ़ाने के लिए भारत की प्रतिबद्धता का हिस्सा है. इस पहल को अपनाना केवल प्रशासनिक सुविधा का मामला नहीं है बल्कि देश की सामाजिक-आर्थिक क्षमता को हासिल करने की दिशा में एक रणनीतिक कदम है. आर्थिक दक्षता को प्राथमिकता देकर, भारत ज्यादा चुस्त और उत्तरदायी प्रशासनिक ढांचे का रास्ता आसान बना सकता है, जो अंत में अपनी विविधता वाली आबादी के हितों की सेवा करेगा.
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लेकिन स्थानीय प्राथमिकताएं उपेक्षित रह जाएंगी

भारत के मतदाताओं ने तमाम चुनावों में स्थानीय और राष्ट्रीय, दोनों मुद्दों के बारे में जबरदस्त जागरूकता का प्रदर्शन किया है. हालांकि, एक देश एक चुनाव के प्रस्ताव में स्थानीय प्राथमिकताओं का महत्व कम हो जाने का जोखिम है. स्थानीय चुनाव में मतदाता पार्टियों को उनके क्षेत्रीय प्रदर्शन के आधार पर आंकते हैं, जो कि अक्सर राष्ट्रीय मतदान पैटर्न से अलग होते हैं.

उदाहरण के लिए दिल्ली लगातार स्थानीय स्तर पर आम आदमी पार्टी का समर्थन करती है, लेकिन संसदीय चुनाव में अलग पार्टी को चुनती है.

लोकसभा चुनाव के दौरान स्थानीय मुद्दों को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रीय मुद्दों पर जोर होता है. बीजेपी का एक साथ चुनावों पर जोर देना केवल राष्ट्रीय विकास के इर्द-गिर्द चर्चा को केंद्रीकृत कर सकता है, जिससे क्षेत्रीय मुद्दों की गहराई से समझ कम हो सकती है. संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह राष्ट्रपति-प्रणाली की चुनावी प्रक्रिया की ओर बढ़ते इस कदम से विविधता की आवाजों के एकरंगी होने का जोखिम पैदा होगा, जो एक पार्टी का नैरेटिव पर एकाधिकार का मौका देगा.

एक देश एक चुनाव स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे की बड़ी छत के नीचे समेट कर जमीनी स्तर के लोकतंत्र के सारतत्व को खतरे में डालता है. हर क्षेत्र की अलग जरूरतें और आकांक्षाएं अलग-अलग चुनावी विचारों की मांग करती हैं.

स्थानीय लोकतंत्र की जीवंतता को बनाए रखने के लिए एक एकल राष्ट्रीय नैरेटिव में शक्ति और चर्चा को सीमित करने के बजाय विविधता के नजरिये को स्वीकार करने और जगह देने की जरूरत है.

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सिर्फ ताकतवर पार्टियों के लिए मददगार

एक देश एक चुनाव को लागू करना एक कठोर हकीकत पर निर्भर करता है: यह हमेशा राष्ट्रीय या क्षेत्रीय प्रभुत्व वाले ताकतवर राजनीतिक दलों के लिए मददगार होता है. पुराने उदाहरणों से पता चलता है कि जब भी एक साथ चुनाव हुए, यही रुझान उभर कर सामने आया. इस ढर्रे पर केंद्र में सत्तारूढ़ दल, जैसे कि बीजेपी, का दबदबा है. जबकि मजबूत क्षेत्रीय दल राज्य की राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं.

हालांकि, यह मॉडल स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देता है, जिससे कांग्रेस जैसी पार्टियों को नुकसान होता है, जो लोकसभा चुनावों में पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. इसी तरह एक साथ चुनाव से राज्यों में चुनावी बढ़त रखने वाले विपक्षी दलों के लिए मौजूदा सरकारों के खिलाफ लड़ाई कठिन हो सकती है.

पिछले चुनावों के नतीजे, खासतौर से 1967 और 2014 और 2019 में एक साथ हुए चुनाव इस पहलू को उजागर करते हैं. एक साथ होने वाले लोकसभा चुनाव में मजबूत क्षेत्रीय गुट फलते-फूलते हैं, क्योंकि वोट बंटने का रुझान कम हो जाता है, खासकर शहरी क्षेत्रों में.

कुल मिलाकर एक तरफ एक देश एक चुनाव का लक्ष्य संसाधनों का सही इस्तेमाल हासिल करना है, मगर इससे राजनीतिक बहुलवाद और लोकतांत्रिक नुमाइंदगी पर पड़ने वाले इसके नतीजों पर गहराई से विचार करने की जरूरत है. मजबूत पार्टियों का प्रभुत्व भारत की चुनावी राजनीति की विविधता और जीवंतता को कमजोर कर सकता है.

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संघवाद के लिए चुनौती

एक देश एक चुनाव का प्रस्ताव भारत के संघीय ढांचे पर काफी गहरा असर डालेगा, जो राज्यों की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर सकता है. लोकसभा या किसी भी राज्य विधानसभा के समय से पहले भंग होने की स्थिति में, फिर से एक साथ चुनाव कराना जरूरी होगा, जिससे राष्ट्रपति शासन की आशंका बढ़ जाएगी. इससे राज्य की संप्रभुता खत्म हो जाएगी और लोकतांत्रिक मूल्य को चोट पहुंचेगी.

समय-समय पर होने वाले चुनाव सत्तारूढ़ दलों को जवाबदेह बनाने और जनता की जरूरतों के प्रति सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण मैकेनिज्म के रूप में काम करते हैं. मगर एक देश एक चुनाव के तहत चुनावों का एकीकरण चुनावों के दोहराव को कम करके इस जवाबदेही को कम कर सकता है. चुने हुए जनप्रतिनिधि आत्मसंतुष्ट हो सकते हैं, मतदाताओं की चिंताओं से बेफिक्र हो सकते हैं और अपने जनादेश के प्रति कम जवाबदेह हो सकते हैं.

इसके अलावा चुनावों का कम दोहराव उस लोकतांत्रिक जीवंतता में रुकावट बन सकता है, जो भारत की राजनीति की खासियत है. संघवाद की बुनियाद सत्ता का विकेंद्रीकरण है, जो यह सुनिश्चित करता है कि राज्यों की स्वायत्तता बनी रहेगी और आबादी की विविध आकांक्षाएं सामने आएंगी.

एक देश एक चुनाव से चुनावी प्रक्रियाओं के केंद्रीकरण का खतरा है, जिसके नतीजे में क्षेत्रीय आवाजें कमजोर पड़ सकती हैं और स्थानीय जरूरतों के प्रति सरकार की जवाबदेही कम हो सकती है.
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जबकि भारत चुनावी सुधारों की ओर कदम बढ़ा रहा है, उसे प्रशासनिक दक्षता की ओर बढ़ते हुए संघवाद के सिद्धांतों और लोकतांत्रिक जवाबदेही की हिफाजत के साथ संतुलन बनाना होगा. एक साथ चुनावों की दिशा में कोई भी बदलाव करते हुए देश के लोकतांत्रिक ढांचे और संघीय अखंडता पर इसके असर पर सावधानी से विचार करने की जरूरत है.

केंद्र में हैं मोदी

एक देश एक चुनाव की चर्चा के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी की बड़ी रणनीति है. चुनावी अभियानों में पीएम मोदी की जबरदस्त लोकप्रियता के साथ बीजेपी के ट्रैक रिकॉर्ड में तमाम राज्यों के चुनावी मैदानों में जीत और हार का एक अजीब मिश्रण दिखता है.

आलोचक चेतावनी देते हैं कि एक साथ चुनावों के लिए बीजेपी का जुनून एक शातिर एजेंडे को पूरा करने के लिए है- एक ऐसा राजनीतिक मंच तैयार करना जहां हर वोट पर पीएम मोदी का नाम हो. उनकी दलील है कि इस नाटकीय चाल का मकसद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की चमक में स्थानीय सवालों को छिपाते हुए सत्ता का केंद्रीकरण करना है.

चुनावों को मोदी-केंद्रित बनाकर, बीजेपी एकरूपता की वकालत कर रही है, जिसमें क्षेत्रीय विविधता की खास पहचानें मिट जाएंगी. मगर असहमति की आवाजें इस एकरंगी नैरेटिव को लेकर सतर्क करती हैं, और ऐसे गुल-गपाड़े से सावधान करती हैं जो भारत के संघीय ताने-बाने के जीवंत रंगों को खत्म कर सकता है.

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जैसे-जैसे इस चुनावी नाटक पर से पर्दा उठ रहा है, भारत का लोकतांत्रिक मंच अगले कदम का इंतजार कर रहा है. क्या बीजेपी का एकांकी शासन को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा या क्षेत्रीय स्वायत्तता को खत्म कर देगा? भारत के बहुरंगी चुनावी मंच पर राजनीति किस करवट बैठती, यह समय ही बताएगा.

(लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (ऑटोनोमस), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं, और कॉलमनिस्ट हैं (उनका ट्विटर हैंडल @sayantan_gh हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. क्विंट हिंदी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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