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पद्मावती विवाद: फायदा तो भंसाली और करणी सेना का ही हुआ ना

पद्मावती फिल्म को लेकर उठा विवाद इस वजह से बढ़ता गया

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अब सब बोलेंगे- ऑल इज वेल देट एंड्स वेल. अंत भला तो सब भला. पद्मावती नए नाम से रिलीज होगी और बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड टूटेंगे.

पब्लिसिटी हो गई. नेताओं ने एक समुदाय के सामने अपने नंबर भी बढ़ा लिए. एक अदने से करणी सेना को स्टार स्टेटस मिल गया. और करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कल्वी, जिनका राजनीति में कई चुनाव हारने का और लगातार पार्टी बदलने का लंबा ट्रैक रिकॉर्ड है, की छवि चमक गई. जिनकी कुछ महीने पहले तक कोई पहचान नहीं थी, अब वो हैसियत वाले नेता हो गए हैं. राजस्थान में कुछ ही महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और कल्वी साहब की तो निकल पड़ी.

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संजय लीला भंसाली की फिल्म को वो भी देखने आएंगे, जिनको फिल्मों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है. अब मामला धर्म का है, इतिहास का है, राजपूतों की शान का है, देश के प्राइड का है. फिल्म की मेरिट का तो मसला ही नहीं रहा. एक्टिंग, सिनेमेटोग्राफी, डायरेक्शन, स्क्रिप्ट, एडिटिंग- इनसे क्या मतलब? फिल्म को फिल्म की तरह नहीं, देश की भव्य परंपरा की तरह देखा जाएगा. ऐसे में भंसाली जी की निकल पड़ी.

लेकिन कुछ तो है जो गड़बड़ है. उसमें सबसे आगे है भेड़चाल. किसी ने कह दिया कौवा कान लेकर उड़ गया तो सबने मान लिया. यहां तक की सरकारों ने भी मान लिया कि फिल्म पर प्रतिबंध लगेगा. वाह रे वाह.

जानते हैं इसका परिणाम क्या होगा. हम इसे मोबोक्रेसी कहते हैं. मतलब भीड़तंत्र. भीड़ में किसी ने चिल्लाया- मारो, मारो और सब लगे मारने. और राज्य सरकारों ने चिल्लाने वालों का साथ दिया. बिना जाने कि मामला क्या है? बिना जाने की इसका नतीजा क्या होगा? बिना इसका आंकलन किए कि इससे किस तरह की प्रवृर्तियों को शह मिलेगी? इसे कहते हैं नी जर्क रिएक्शन वाली सरकार. भावनाओं में बहने वाली सरकार.

खतरनाक है आस्था के नाम पर मोबोक्रेसी

इस बात पर बहस ही नहीं हुई कि पद्मावती रियल थीं या मिथक. मान लिया गया कि वो रियल थीं, अद्भुत थीं, मर्यादा बचाने के लिए जौहर करने वाली थीं. हो सकता है कि वो रियल थीं और अपने समय के हिसाब से अद्भुत भी. लेकिन इतिहास और आस्था अलग-अलग मसले नहीं है क्या? आस्था के नाम पर हम जौहर को भी सही मानने लगेंगे?

और इतना ही मौजू मसला है क्रिएटिव फ्रीडम की बाउंडरी तय करने का. हमेशा की तरह इस पर तो बहस ही नहीं हुई. यह मान लिया गया (बिना जाने, बिना समझे) कि आस्था को तो ठेस पहुंची है सो कान, नाक काटने का लाइसेंस है. मतलब मेरी आस्था और मेरी लाठी- इसे कब और कहां इस्तेमाल करना है इसका लाइसेंस भी मेरे पास. रूल ऑफ लॉ गया तेल लेने.

फर्ज कीजिए कि यही तौर तरीके हर क्षेत्र में चल पड़े तो. सब समझ लीजिए की केऑस.

यह सब नाटक जब चल रहा था हमारे बीच इस बात पर भी कभी-कभार चर्चा होती थी कि इतना बवाल करा कौन रहा है? हम सबके मन में फिर से वही सवाल उठेगा कि इतना बवाल कराया किसने? हम सबको इसका जवाब नहीं मिलेगा. लेकिन फायदा तो भंसाली, करणी सेना और मोबोक्रेसी को ही हुआ.

मोबोक्रेसी की बढ़ती पकड़ मेरे जैसे पुराने ख्याल वालों के लिए तो नॉट सो गुड न्यूज है.

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