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क्रिकेट में अंपायर, फुटबॉल में रेफरी, संसद में प्रेसाइडिंग अफसर? ये ठीक नहीं

लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति संसद के कस्टोडियन हैं और उन्हें संसद के प्रदर्शन में सुधार करना चाहिए

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फुटबॉल के लिए रेफरी. क्रिकेट के लिए अंपायर. संसद के लिए प्रेसाइडिंग ऑफिसर्स? नहीं. इस तरह बिल्कुल भी नहीं होता. लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का चुनाव होता है. लोकसभा में सदस्य प्रेसाइडिंग ऑफिसर यानी पीठासीन अधिकारी को चुनते हैं. ऊपरी सदन में देश का निर्वाचित उप राष्ट्रपति, सभापति बनता है. दोनों ही मामलों में बहुमत वाली पार्टी ही पीठासीन अधिकारियों को चुनती है.

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चाहे संसद में बोलना हो, या कहीं लेख लिखना हो, संसद के सदस्य यानी एमपी लोकसभा और राज्यसभा के पीठासीन अधिकारियों की भूमिकाओं पर टिप्पणी करने में संयम बरतते हैं.

इस भाव के साथ, इस लेख में मैंने यह कोशिश कतई नहीं की है कि मैं उनके प्रदर्शन पर कोई पर्सनल रिपोर्ट कार्ड तैयार करूं. इसके बजाय मैं ये बताने की कोशिश कर रहा हूं कि संसद सदस्य इन उच्च पदों पर आसीन महानुभावों से क्या उम्मीद करते हैं. जब इन सदनों के चैंबर्स में कार्यवाही की बात आती है तो इन्हीं दोनों के हाथों में गाड़ी की चाबी होती है.

पीठासीन अधिकारी की मुख्य भूमिका है, ‘बोलने का मौका देना’

चुनौतियां कई हैं. सदस्य बोलने का अनुरोध करते हैं, व्यवधान होते रहते हैं. प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की बात उठाकर नियमों और परंपराओं के आधार पर फैसले लेने को कहा जाता है. इन सबसे निपटना पड़ता है- इसके लिए कार्यवाहियों को स्थगित करने का शॉर्टकट नहीं अपनाया जाता.

पीठासीन अधिकारी की सबसे बड़ी चुनौती ये होती है कि वो सभी सदस्यों को खुद को अभिव्यक्त करने का मौका दें. एक सांसद जो सदन में अपनी पार्टी का इकलौता या की इकलौती सदस्य है, उसे बोलने का मौका जरूर दिया जाना चाहिए और संसद के प्रभावी ढंग से काम करने के सीमित दिनों और घंटों में ऐसा करना एक मुश्किल काम है.

इस समय ऐसी करीब दो दर्जन पार्टियां हैं, जिनका संसद में सिर्फ एक प्रतिनिधि है और उनमें से हर एक को ये उम्मीद होती है कि उसे संसद में भागीदारी करने का मौका मिलेगा. इसलिए चेयर को ये तय करने का तरीका ढूंढना होगा कि बड़ी पार्टियों के लिए निर्धारित समय में कटौती किए बिना ऐसा हो सके.

पीठासीन अधिकारियों के पास ये ताकत होती है कि वे दोनों सदनों के मूल स्वाद को उभारें और नियम पुस्तिका का भी पालन करें. अगर किसी दिन के कार्य में कोई विवादास्पद मुद्दा तय किया जाता है तो उनके पास अपनी इच्छा के अनुसार कार्यवाही शुरू करने का विशेषाधिकार होता है.
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विपक्ष के निडर संकल्प ने संसद को हल खोजने के लिए किया मजबूर

संसद में दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के सदस्य के तौर पर मैं उन्हें सिर्फ इस मंत्र की याद दिला सकता हूं: 'विपक्ष को अपनी बात रखनी चाहिए, भले ही सरकार अपने तरीके से चले.'

2022 के मानसून सत्र में 12 दिनों के दौरान 43 घंटे रुकावटों के चलते बर्बाद हुए, क्योंकि सरकार ने कीमतों में बढ़ोतरी पर चर्चा करने से इनकार कर दिया. विपक्ष को संसद के बाहर गांधी जी की प्रतिमा के कदमों तले लगातार धरना देने को मजबूर होना पड़ा. ये पैंतरा काम आया और मूल्य वृद्धि पर चर्चा शुरू हुई.

लगता है कि इस शीतकालीन सत्र में सरकार ने पहले के सत्र से सबक सीख लिया था. शुक्रवार को सदन समाप्त हुआ (लगातार आठवीं बार निर्धारित समय से पहले), लेकिन ये एक लिहाज से कुछ बेहतर था. सरकार ने अनुदान मांगों पर चर्चा के दौरान विपक्षी सांसदों को विस्तार से बोलने की अनुमति दी (2022 के विनियोग विधेयक संख्या 4 और 5)- लोकसभा में 12 घंटे और राज्यसभा में आठ घंटे.

आप तय करें कि इसका श्रेय किसे दिया जाए- मोदी सरकार को या राज्यसभा के नए सभापति और लोकसभा अध्यक्ष को!

सरकार अच्छी तरह से जानती थी कि असल में विपक्ष इस बहस को राजनैतिक आर्थिक चर्चा में तब्दील कर देगा. फिर भी पीठासीन अधिकारियों ने इस पर पूर्ण चर्चा की इजाजत दी. विपक्षी पार्टियों के सदस्यों ने देश के सबसे बड़े मंच पर विचार विमर्श किया और सरकार की आलोचना की.
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पीठासीन अधिकारी माहौल और मूड बनाते हैं

राज्यसभा के नए सभापति ने हर सुबह 10 से 10.50 बजे के बीच एक 'ओपन हाउस' की शुरुआत की है, जब सभी दलों के सांसद दिन की कार्यवाही में सूचीबद्ध किसी मुद्दे पर बात रखने, अनुरोध करने या ध्यान आकर्षित करने के लिए उनसे मिल सकते हैं.

दिलचस्प बात ये है कि राज्यसभा के पूर्व सभापति हामिद अंसारी भी ऐसा ही करते थे. वो वरिष्ठ सदस्यों के साथ हर सुबह कॉफी पर मुलाकात करते थे. अभी ये फैसला करना जल्दबाजी होगी कि मौजूदा बैठकें सदन के पटल पर सार्थक, सकारात्मक परिणाम देंगी या नहीं? आखिर में संसद का फ्लोर ही मायने रखता है.

सदन की कार्यवाही का सुर क्या होगा, इसे तय करने में पीठासीन अधिकारी की बहुत बड़ी भूमिका होती है. उसकी तरफ से सकारात्मक, सुखद माहौल में हास्य विनोद और हाजिरजवाबी, लेकिन गंभीर तरीके से कार्य संचालन, अक्सर काम करता है. हाल का उदाहरण है- विनियोग विधेयकों पर जब मैं बोल रहा था तो चेयर ने मुझे मुस्कुराते हुए टोका, और कहा, ‘मेरा प्यारा बंगाल’ नहीं, ‘हमारा प्यारा बंगाल’.

उनके पूर्ववर्ती हामिद अंसारी, एक पूर्व राजनयिक और वेंकैया नायडू जो भारत के उपराष्ट्रपति चुने जाने से पहले एक राजनीतिक दिग्गज थे और वो भी काफी हास-परिहास किया करते थे. हालांकि अनायास टिप्पणियां कभी-कभी उलटी भी पड़ सकती हैं.

राजनीतिक मर्यादा बनाए रखने के लिए एक महीन रेखा खींचनी होती है. इस महान संस्थान को मजबूत करने के लिए कई मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है. लेकिन नए साल में दोनों पीठासीन अधिकारियों के लिए असली इम्तिहान ये होगा कि क्या वे तीन विशेष क्षेत्रों में संसद के प्रदर्शन में सुधार करने का काम करते हैं:

  • समीक्षा के लिए जाने वाले विधेयकों की संख्या बढ़नी चाहिए. 2004-09 में 14वीं लोकसभा के दौरान 60% विधेयकों को समीक्षा के लिए समितियों के पास भेजा जाता था, जबकि 17वीं लोकसभा में यह आंकड़ा 13% पर सिमट गया है.

  • विधेयकों पर चर्चा के लिए आबंटित समय में इजाफा करना होगा. पिछले मानसून सत्र में 27 विधेयकों में से प्रत्येक पर सिर्फ 10 मिनट औसत चर्चा हुई थी, और उन्हें पारित किया गया था!

  • अब पारित होने वाले प्रत्येक 10 विधेयकों में से लगभग चार अध्यादेश हैं. आजादी के बाद के पहले 30 वर्षों में पारित हुए प्रत्येक दस विधेयकों में से एक अध्यादेश होता था. फिर अगले 30 सालों के दौरान 10 में से दो अध्यादेश होते थे. मौजूदा ट्रैक रिकॉर्ड तो नाकाबिले बर्दाश्त है.

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इतिहास लोकसभा और राज्यसभा के दो मौजूदा कस्टोडियंस पर मेहरबान होगा, अगर वे इन आंकड़ों में सुधार कर सकें. मैं नए साल पर उन्हें बधाई देते हुए कामना करता हूं- महोदय, कृपया ऐसा संभव बनाएं.

(लेखक संसद सदस्य हैं और राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल के नेता. ये एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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