ADVERTISEMENTREMOVE AD

बायकॉट मुहिम के बावजूद शाहरुख खान की 'पठान' की कामयाबी के पीछे कई गहरी बातें हैं

Pathaan से शाहरुख खान ने न सिर्फ बॉयकॉट गैंग को जवाब दिया है बल्कि बॉलीवुड में सूखा भी खत्म हुआ है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

शाहरुख खान (Shahrukh Khan) हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सितारों में से एक हैं. करीब चार साल बाद उनकी कोई फिल्म रिलीज हुई है. बॉक्स ऑफिस पर 'पठान' ने बायकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ दिया है और मुश्किल में पड़े बॉलीवुड की उसके सबसे बड़े सुपरस्टार के साथ वापसी हो गयी है. लेकिन जिस प्रकार से शाहरुख और उनकी फिल्म को सांप्रदायिक घृणा का निशाना बनाया गया, उसने 'पठान' को एक आम हिंदी फिल्म से कहीं अधिक बना दिया है. जाने-अनजाने ये एक सहिष्णु बनाम असहिष्णु भारत की लड़ाई का एक सिनेमाई प्रतीक बनकर उभरी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस फिल्म का बायकॉट करने का सबसे पहला ऐलान अगस्त 2020 में फिल्म की आधिकारिक घोषणा से पहले ही कर दी गयी थी. पठान के बायकॉट के पीछे दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा से जुड़े और 'सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय' की मांग करने वाले लोग प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. 

क्यों झूमा पठान ?

'पठान' शाहरुख खान की कमबैक फिल्म है. इससे पहले उनकी 'जीरो', 'फैन', जैसी अलग मिजाज की फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया गया था, इसलिए चार साल बाद वो पूरी तैयारी के साथ वापस आएं और अपने वापसी के लिए ऐसी फिल्म को चुना जिसे जनता डिजर्व या पसंद करती है. शायद उन्होंने सलमान खान के उस शिकायत को बहुत गंभीरता से ले लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'हमारी फिल्मों का साउथ वालों की फिल्मों की तरह नहीं चलने का एक कारण ये भी है कि वो लोग हीरोगिरी को खूब बढ़ावा देते हैं.' कोविड के बाद अब दर्शकों को सिनेमा घरों की तरफ वापस लाना आसान नहीं है, अब उनके पास घर पर ही कई विकल्प हैं ऐसे में उन्हें दोबारा वापस लाने के लिए 'भव्यता' और 'लार्जर दैन लाइफ महानायकों' की जरूरत है.

ये फिलहाल हिंदी सिनेमा नहीं कर पा रहा था. इसके बरक्स दक्षिण भाषाओं की फिल्में ये काम बखूबी कर रही हैं और उनके सफल होने का एक प्रमुख कारण भी यही है. पिछले करीब एक दशक से सलमान खान अकेले ऐसे बॉलीवुड सितारे हैं, तो मसाला और 'लार्जर दैन लाइफ' फिल्में बना रहे हैं. हालांकि उनकी दबंग जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ कर अधिकतर साउथ की फिल्मों की रीमेक या उनसे प्रभावित हैं, इसलिए वो आज के समय में हिंदी सिनेमा के सबसे सफल सितारे भी रहे हैं.

'पठान' के टाइटल में है खास बात

पठान अपनी अंदरूनी बनावट में एक साधारण फिल्म है, जिसे बहुत ही स्टाइलिश तरीके से बनाया गया है, ये कोई महान या क्लासिक फिल्म नहीं, बल्कि एक विशुद्ध मसाला फिल्म है, जिसे बॉक्स आफिस के चलन को ध्यान में रखकर बनाया गया है. फिल्म की कहानी बहुत लचर है और सारा जोर एक्शन, रफ्तार, लोकेशंस और हीरोपंती पर है. लेकिन इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसकी बाहरी बनावट है. मोटे तौर पर तीन चीजें है तो इसे खास बनाती है-

पहला खुद फिल्म का टाइटल 'पठान' जो अपने आप में एक अलग 'पहचान' पेश करता है, वो भी एक ऐसे बहुसंख्यकवादी भारत के माहौल में जिसका सबसे बड़ा निशाना यही पहचान है. लेकिन बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है, इस फिल्म का नाम ही नहीं मुख्य किरदार भी 'पठान' है. इसी कड़ी में एक और बात जुड़ती हैं, फिल्म का हीरो ना केवल पठान है, बल्कि वो देशभक्त 'पठान' है जो भारत को अपनी मां मानता है और डायलॉग मारता है कि 'पार्टी पठान के घर में रखोगे, तो मेहमान नवाजी के लिए पठान तो आएगा और साथ में पठाखे भी लाएगा.' इन सब में एक बुनियादी वजह फिल्म में एक ऐसे सुपरस्टार का होना है जिसका उपनाम खान है.

हिंदी सिनेमा मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा

ये बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि हिंदी सिनेमा पहले से ही देश के मुस्लिम समाज को परदे पर पेश करने के मामले में कंजूस रहा है और ऐसे मौके बहुत कम आते हैं, जब किसी मुसलमान को मुख्य किरदार या हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया जाता हो. अमूमन हिंदी सिनेमा के परदे पर मुस्लिम समुदाय या तो ज्यादातर गायब रहे हैं या अगर दिखे भी हैं तो नवाब, हीरो के वफादार दोस्त, रहीम चाचा और आतंकवादी जैसी भूमिकाओं में.

90 के दशक से हिंदी सिनेमा में 'खान तिकड़ी' का आगमन के बाद तो सिल्वर स्क्रीन पर मुस्लिम किरदारों के प्रस्तुतिकरण में और गिरावट होती है, इस दौरान वे स्टीरियोटाइप टोपी पहने, नकारात्मक किरदारों जैसे कट्टरपंथी, आतंकवादी, देशद्रोही जैसे किरदारों में ही पेश किए जाते रहे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

फिल्म में कुछ और भी छोटी-छोटी बातें हैं जो इस मुख्यधारा की फिल्म के दायरे और सोच को व्यापक बनाती हैं. साथ ही तंग नजरिये पर आधारित राष्ट्रवाद की सोच को भी तोड़ती है. फिल्म में मुख्य रूप से भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के किरदार हैं, लेकिन यहां आम हिंदी फिल्मों की तरह सबकुछ काला और सफेद नहीं है, बल्कि तीनों ही देशों में अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग हैं.

मिसाल के तौर पर इस फिल्म का नायक और खलनायक दोनों ही भारतीय हैं, दोनों ही खुफिया सेवाओं से जुड़े रहे हैं, दूसरी तरफ इसमें पाकिस्तान के भी दो किरदार हैं, जिसमें एक पाकिस्तानी जनरल है, जो खलनायक है और दूसरी फिल्म की नायिका रुबाई है, जो पठान की तरह अपने देश की खुफिया एजेंट है और जब उसे पता चलता है कि उसने देशभक्ति के जोश में आकर कुछ ऐसा गलत कर दिया है, जो इंसानियत के खिलाफ है तो वो पश्चाताप करती है और भारतीय नायक के साथ मिलकर हिन्दुस्तान को बचाने के लिए काम करती है.

इसी प्रकार से फिल्म में आम अफगानियों को आतंकी या हिंसक मुसलमान नहीं बल्कि अच्छे और मददगार इंसानों के रूप में चित्रित किया गया है, जो भारत को बचाने के लिए पठान और रुबाई के साथ मिलकर काम करते हैं.

फिल्म का नायक पठान न तो अपना असली नाम जानता है और न ही धर्म बल्कि अनकंडीशनल का देशभक्त है जो 'यह मत पूछिए कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है, बल्कि यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं' के सूत्र में यकीन रखता है.

शायद इन्हीं वजहों से हंसल मेहता ने कहा है कि 'पठान' उतनी ही पॉलिटिकल हैं ,जितनी कि ‘फराज' लेकिन दोनों फिल्मों के एक्सप्रेशन का तरीका अलग है, दर्शक अलग हैं. एक अन्य फिल्मकार अनुराग कश्यप ने पठान की सफलता को सोशियो-पॉलिटिकल उल्लास बताया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बायकॉट गैंग बनाम रेबिलियन शाहरुख

अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बॉलीवुड की पहचान उन चंद पेशेवर स्थानों में है, जो समावेशी और धर्मनिरपेक्ष हैं और ये बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकता रहा है. दिवगंत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मौत के बाद तो बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित अभियान चलाया गया.जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों का नेटवर्क के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी.

इस दौरान मुख्य रूप से तीनों खान सितारे खास निशाने पर रहे हैं, जिन्होंने लगभग एक चौथाई सदी तक बॉलीवुड पर अपना दबदबा कायम रखा है और  जिनके प्रशंसक धार्मिक सीमा रेखाओं से परे हैं.

आज ये विचारधारा देश के तकरीबन हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुकी है, तो जाहिर तौर पर उसका निशाना बॉलीवुड पर भी है. संघ लंबे समय से बॉलीवुड पर अपना वैचारिक वर्चस्व के फिराक में है शायद इसी को ध्यान में रखते हुए आरएसएस ने ‘भारतीय चित्र साधना’ नाम से एक संगठन बनाया है जिसका मकसद सिनेमा में हिन्दुतत्व की विचारधारा को बढ़ावा देना है. 

अंग्रेजी कारवां ने जनवरी 2023 में 'साइलेंट रेबिलियन' शीर्षक से कवर स्टोरी प्रकाशित की है, क्या शाहरुख खान वाकई में एक विद्रोही है? दरअसल, शाहरुख खान ने 2015 में दिए गये एक इंटरव्यू में कहा था-

धार्मिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्ष नहीं होना इस देश में सबसे खराब प्रकार का अपराध है.

बाद में टिप्पणी का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने और उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने के लिए किया गया और आखिरकार उन्हें उसके लिए माफी भी मांगनी पड़ी थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसके बाद से वे लगातार निशाने पर रहे हैं, पिछले साल उनके बेटे को  एक पार्टी में कथित तौर पर ड्रग्स लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन बाद में आर्यन खान पर लगाए आरोप साबित नहीं हो सका. इसी तरह लता मंगेशकर को श्रद्धांजलि देते हुए शाहरुख खान ने जब दुआ पढ़कर फूंक रहे थे तो बीजेपी हरियाणा के आईटी सेल के प्रभारी अरुण यादव ने ट्वीट किया कि "क्या इसने थूका है?" 

फिल्म की सफलता सुनिश्चित होने के बाद 30 जनवरी को शाहरुख ने 'पठान' की टीम के साथ मिलकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की. जिसमें उन्होंने पठान फिल्म के अपने सह-कलाकारों की तुलना मनमोहन देसाई की फिल्म के पात्रों से करते हुए कहा था-

हम सब एक हैं, हम सबके बीच भाईचारगी है, ये दीपिका पादुकोण हैं, ये अमर हैं. मैं शाहरुख खान हूं, मैं अकबर हूं. ये जॉन अब्राहम हैं, ये एंथनी हैं. और इसी से सिनेमा बनता है... हमलोगों में से किसी में भी किसी के लिए भी, किसी कल्चर के लिए, जिंदगी के किसी पहलू से कोई फर्क नहीं है. 

बहरहाल नए भारत में विपरीत विचारों का टिके रह जाना मामूली बात नहीं है. शायद इसीलिए अनुराग कश्यप ने शाहरुख खान को एक मजबूत रीढ़ का आदमी बताया जो अपने खिलाफ इतना सब होने के बावजूद चुप रहा और अब अपने काम के जरिए स्क्रीन पर बोला है. इतने विरोध और नकारात्मक अभियान के बावजूद 'पठान' फिल्म का कामयाब होना एक बड़ी बात है. इसलिए जब शाहरुख कहते हैं कि ‘क्रिएटिविटी का कोई धर्म नहीं होता बल्कि ये बहुत सेक्युलर होती है,' तो वो बॉलीवुड की उस जमीन पर टिके रहने की जिद कर रहे होते हैं, जिसे बनाने में एक सदी से ज्यादा वक्त लगा है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×