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PM मोदी ने चुनावी कैंपेन को विकास के एजेंडे से ध्रुवीकरण की ओर क्यों मोड़ लिया है?

हालांकि अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि यह बदलाव घबराहट के संकेत देता है, लेकिन इसे अति आत्मविश्वास के रूप में भी देखा जा सकता है.

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लोकसभा चुनाव 2024 के प्रचार में जुटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने पिछले महीने अचानक से अपने अभियान का गियर बदल दिया. राजस्थान के बांसवाड़ा में 21 अप्रैल, को एक जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने एक बेहद ध्रुवीकरण करने वाला और विवादित भाषण दिया, जिसमें उन्होंने मुसलमानों को घुसपैठिया और अधिक बच्चे पैदा करने वाला बताया.

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इससे पहले वो कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र को मुस्लिम लीग का दस्तावेज बता चुके हैं. हालांकि, पीएम पहले अपनी सरकार की उपलब्धियों और बीजेपी के चुनावी वादों का जिक्र "मोदी की गारंटी" के रूप में कैंपेनिंग के दौरान करते थे, पर पीएम मोदी ने बेहद ध्रुवीकरण करने वाला और जहरीला भाषण दिया, जिसमें उन्होंने मुसलमानों को घुसपैठिया और अधिक बच्चे पैदा करने वाला बताया.

तब से, प्रधानमंत्री के भाषणों में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया है कि कांग्रेस द्वारा अल्पसंख्यकों को कैसे लाड़-प्यार दिया गया है, कांग्रेस ने लोगों की संपत्ति और राज्य संसाधनों को मुसलमानों को वितरित करने की योजना बनाई है और मुख्य विपक्षी दल पाकिस्तान के साथ साझेदारी में है.

प्रधानमंत्री द्वारा बीजेपी के चुनाव अभियान की रूपरेखा तय करने के साथ ही, मोदी कैबिनेट में शामिल मंत्री और पार्टी नेताओं ने भी तुरंत इसका जिक्र करना शुरू कर दिया. गृह मंत्री अमित शाह से लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर तक सभी एक ही राग अलाप रहे हैं.

गृह मंत्री ने हाल ही में आरोप लगाया कि कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र को लिखने का काम अल्पसंख्यकों और चरम वामपंथियों को सौंप दिया है, जबकि ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश में एक सार्वजनिक रैली में कहा, "आपको यह तय करना होगा कि आपके बच्चों की संपत्ति उनके पास रहनी चाहिए या मुसलमानों को मिलनी चाहिए."

सभी दृष्टिकोणों से, 1 जून को लोकसभा चुनाव समाप्त होने तक यह कटु व्यंग्य बीजेपी के चुनाव अभियान पर हावी रहेगा.

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चुनाव में 'खुलकर' सामने आ गए हैं मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रचार विकास के एजेंडे पर करने की बजाए ध्रुवीकरण की तरफ ले जाने पर विपक्षी दलों के नेताओं ने नाराजगी जाहिर की है और कहा कि उन्होंने अपने पद की गरिमा का गिरा दिया है.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव के पहले दो चरणों में कम मतदान के बाद चिंतित मोदी को अपना रुख बदलना पड़ा, जिससे पता चलता है कि थकान और सत्ता विरोधी लहर के संयोजन ने मतदाताओं को मतदान केंद्र से दूर रखा था.

इस बात से घबराकर कि उनका प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा, मोदी ने विपक्ष को डराने और अपने पार्टी कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को उत्साहित करने के दोहरे उद्देश्य से मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने और अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे पर जोर देने के बीजेपी के आजमाए और परखे हुए फॉर्मूले का सहारा लिया.

इससे यह भी पता चलता है कि यह प्रधानमंत्री ही हैं, जिन्होंने मौजूदा चुनाव के बचे हुए चरणों की वोटिंग के लिए एजेंडा तय किया है, जिससे विपक्ष रक्षात्मक हो गया है, भले ही महंगाई और बेरोजगारी जैसे रोटी-कपड़ा-मकान के मुद्दे किनारे हो गए हों.

हालांकि, प्रधानमंत्री की ध्रुवीकरण वाली चुनावी बयानबाजी पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. मोदी ने केवल अपनी सच्ची मान्यताओं और विचारधारा को प्रकट करने का विकल्प चुना है ,जो उनके राजनीतिक करियर में आगे बढ़ने की ताकत रही है.

इस चुनाव में मोदी खुलकर अपनी विचारधारा की बात कर रहे. दरअसल, उन्होंने अपना शुरुआती जीवन आरएसएस, जो 1925 से हिंदू महान और एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना के अपने संदेश को फैलाने के लिए काम कर रहा है, जिसमें मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में माना जाता है, के साथ बिताया है.

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गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मोदी आरएसएस के एजेंडे को लागू करने में लगातार लगे रहे हैं. हालांकि, उन्हें अदालतों द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया था, लेकिन 2002 के गुजरात दंगे, जिनमें 1000 से अधिक मुस्लिम मारे गए थे, उनके मुख्यमंत्री रहते हुए हुए थे.

कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने का मोदी सरकार का निर्णय, अंतर-धार्मिक विवाह के खिलाफ कदम, अयोध्या में राम का निर्माण और समान नागरिक संहिता (UCC) की स्थिर शुरूआत, ये सभी आरएसएस प्रचारक के रूप में मोदी द्वारा सीखे गए सबक के मुताबिक हैं.

घबराहट या अति आत्मविश्वास?

मोदी के भाषणों में हमेशा मुसलमानों का जिक्र किया गया है, जिन्हें हमेशा जिहादी और पाकिस्तानी आतंकवादियों के बराबर बताया गया है. जबकि उनकी पिछली टिप्पणियों में मुसलमानों को विशेष सुविधा दिए जाने की बात कही गई थी और इस बात का हौवा खड़ा किया गया था कि धीरे-धीरे मुस्लिम अल्पसंख्यकों की संख्या हिंदू बहुसंख्यकों से अधिक होती जा रही है, लेकिन इस बार मोदी ने सारा दिखावा छोड़ दिया है क्योंकि उन्हें छोटे संदेश देने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है.

हालांकि, अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बदलाव घबराहट के संकेत देता है, लेकिन इसे अति आत्मविश्वास के रूप में भी देखा जा सकता है.

यह पूरी तरह से संभव है कि मोदी चुनाव सर्वेक्षणों और मीडिया रिपोर्टों से प्रेरित हों, जिनमें बार-बार दिखाया गया है कि दस साल तक सत्ता में रहने के बाद भी उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है और वह इन लोकसभा चुनावों में लगातार तीसरी बार आसान जीत की ओर बढ़ रहे हैं.

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या शायद मोदी विपक्षी खेमे में अव्यवस्था से प्रोत्साहित हैं, खासकर कांग्रेस में वैचारिक असंगति से, जो हिंदू राष्ट्रवाद के भावनात्मक मुद्दे का सामना करने पर पर्याप्त प्रतिक्रिया के लिए इधर-उधर भटकती रहती है.

कांग्रेस का काम दोगुना कठिन हो गया है क्योंकि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी ने राहुल गांधी को विशेषाधिकार प्राप्त और हकदार के रूप में सफलतापूर्वक बदनाम कर दिया है, जबकि पार्टी को "हिंदू विरोधी और मुस्लिम समर्थक" के रूप में बताया गया है.

स्पष्ट रूप से, मोदी यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि वह अजेय हैं और कोई भी उनके बयानों या कार्यों के बावजूद उनसे मुकाबला करने में सक्षम नहीं है.

यही कारण है कि मोदी ने हिंदू हृदय सम्राट का दर्जा हासिल कर लिया है.

(लेखिका दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे @anitaakat पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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