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UPSC में बदलाव की PMO की पहल उम्मीदवारों को ‘टहलुआ’ बना देगी

इस फैसले पर सवाल खड़े करने से पहले प्रधानमंत्री और पीएमओ की कार्यशैली के बारे में कुछ बातें जानना जरूरी है.

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प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बार फिर से अपने काम करने का कमांडो स्टाइल दिखा दिया है. उसने सिविल सर्विसेज के लिए भर्ती के सिस्टम में भारी बदलाव का प्रस्ताव पेश किया है. सरकार का ये कदम ऐसा है, जैसे किसी ने कबूतरों के बीच बिल्ली छोड़ दी हो.

सरकार ऐसा क्यों करना चाहती है, ये अब तक बताया नहीं गया, लेकिन लगता है आगे चलकर यही पता चलेगा कि नोटबंदी की तरह ये कदम भी आधी रात को अचानक जल उठी दिमाग की बत्ती का ही नतीजा है.

इस सिलसिले में कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग) की तरफ से तमाम मंत्रालयों को भेजे गए गोपनीय पत्र में कहा गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (UPSC) के सफल उम्मीदवारों को फाउंडेशनल कोर्स जॉइन करने से पहले ही 'सर्विस' और अखिल भारतीय सेवाओं के मामले में स्टेट कैडर अलॉट करने की मौजूदा व्यवस्था को बदल देना चाहता है.

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नई व्यवस्था में सफल उम्मीदवार को उसके 'सर्विस' और कैडर की जानकारी तभी मिलेगी, जब मसूरी के लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकैडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (LBSNAA) में चलने वाले फाउंडेशनल कोर्स में उसका नतीजा/'परफॉर्मेंस' सामने आ जाएगा.

इस पत्र में एक हफ्ते के भीतर कमेंट/इनपुट देने को कहा गया है. ये भी साफ कर दिया गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ये बदलाव इस साल का फाउंडेशनल कोर्स शुरू होने से पहले ही लागू करना चाहता है.

इससे पहले कि उलझन में डालने वाले इस फैसले पर सवाल खड़े किए जाएं,  प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय की कार्यशैली के बारे में कुछ बातें जानना जरूरी है.

मोदी: अपने ही ड्रामों के सुपरस्टार

सबसे पहले तो ये जान लीजिए कि उनके लिए ये सरकार एक बड़ा और शानदार टीवी सीरियल है. एक ऐसा सीरियल, जिसके हर एपिसोड में जबरदस्त ड्रामा हो और सुपरस्टार का किरदार प्रधानमंत्री निभा रहे हों.

नोटबंदी हो या गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स की शुरुआत या फिर स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया - ऐसे तमाम फैसलों या स्कीमों के ऐलान में ज्यादा से ज्यादा नाटकीयता लाकर उनका इस्तेमाल करना ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, भले असली कंटेंट में कोई दम न हो.

दूसरी बात, फैसले बिलकुल गोपनीय ढंग से लिए जाते हैं. कोई भी सूचना उसी हद तक शेयर की जाती है, जितना 'जानना जरूरी' हो. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फैसलों या स्कीमों को टालने या उनमें किसी तरह का बदलाव करने की कोशिशों को शुरुआत में ही खत्म कर दिया जाए.

मंत्रालय के गलियारों में ये कयास लगते रहते हैं कि प्रधानमंत्री के करीबी वो कौन से लोग हैं, जिनका वाकई महत्व है. सबको ऐसी अटकलों में उलझाए रखना भी 'गवर्नमेंट-गवर्नमेंट' के उस खेल का एक हिस्सा है, जो प्रधानमंत्री कार्यालय खेलता है.

तीसरी बात, अगर कोई आम सहमति बननी है, तो वो बुनियादी फैसला कर लिए जाने के बाद बनाई जाएगी, उससे पहले नहीं. और ये आम सहमति भी महज पहले से लिए जा चुके किसी फैसले को जायज ठहराने के लिए ही बनाई जाएगी.

चौथी बात ये कि इस 'सर्वज्ञानी' प्रधानमंत्री कार्यालय को हर समस्या का समाधान पहले से मालूम होता है, भले ही अभी उस समस्या का पूरा ब्योरा भी सामने न आया हो! यानी सवाल सामने आएं, उससे पहले ही उनके जवाब मिल चुके होते हैं !

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एक विश्वसनीय व्यवस्था को भ्रष्ट करने की कोशिशें

ये मामला कामकाज की इस शैली का बिलकुल सटीक उदाहरण है. कोई भी ये नहीं जानता या बता नहीं सकता कि सर्विस/कैडर के बंटवारे की मौजूदा व्यवस्था में वो खराबी क्या है, जिसे दुरुस्त करने की कोशिश की जा रही है. खास तौर पर तब, जबकि यूपीएससी ने पिछले कई दशकों के दौरान मेरिट आधारित सेलेक्शन के एक बेहद मजबूत सिस्टम को अच्छी तरह स्थापित किया है.

बीच-बीच में इस सिस्टम के ‘इलीटिस्ट’ यानी अभिजात्यवादी रुझान को खत्म करने की कोशिशें भी होती रही हैं, ताकि इसके शहरी, पश्चिमीकृत, अंग्रेजीदां, सवर्ण और पब्लिक स्कूल में पढ़े-लिखे उम्मीदवारों के पक्ष में झुके होने के आरोपों को दूर किया जा सके. इन कोशिशों से सिविल सर्विसेज के चरित्र में धीरे-धीरे कुछ बदलाव तो आए हैं, लेकिन यूपीएससी की सेलेक्शन प्रॉसेस और ‘योग्यता’ का निर्धारण करने में बरती जाने वाली ईमानदारी और निष्पक्षता पर कभी संदेह नहीं रहा. इसमें भाई-भतीजावाद, रिजल्ट में हेराफेरी, किसी के दबाव या प्रभाव में आने जैसे आरोप कभी सामने नहीं आए. एक संस्थान के तौर पर यूपीएससी ने अपनी विश्वसनीयता मुश्किल हालात में भी बरकरार रखी है.
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यूपीएससी में 'घुसपैठ' की आरएसएस की कोशिशें

प्रस्तावित बदलावों का असली मकसद क्या है, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसे में सिर्फ अटकल ही लगाई जा सकती हैं कि निर्णय प्रक्रिया को इस तरह परदे में रखने के पीछे कोई बदनीयती भरा एजेंडा भी हो सकता है. 'कमिटेड' (यानी दब्बू) सिविल सर्विस का विचार सबसे पहले इंदिरा गांधी लेकर आई थीं, मगर इसकी भर्ती प्रक्रिया को बदलने का दुस्साहस उन्होंने भी नहीं किया था. लेकिन मौजूदा सरकार को ऐसा करने में कोई हिचक नहीं है.

पता चला है कि ऐसे कोचिंग सेंटर बड़ी संख्या में हैं, जिनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ करीबी कनेक्शन है. आरएसएस की ये बरसों पुरानी ख्वाहिश है कि सिविल सेवा में, खासतौर पर आईएएस और आईपीएस में ऐसे लोगों की घुसपैठ कराई जाए, जिनका दुनिया को देखने का नजरिया उसकी विचारधारा से प्रभावित हो.

यूपीएससी के सेलेक्शन सिस्टम की वजह से ऐसी घुसपैठ करना अब तक आसान नहीं रहा है. लेकिन अगर सर्विस/कैडर का अंतिम बंटवारा, मसूरी की एकैडमी के मूल्यांकन के आधार पर किया जाने लगा, तो ज्यादा अहम सेवाओं में ऐसे लोगों को घुसाना आसान हो जाएगा, जो न सिर्फ ‘सही’ रुझान रखते हों, ‘राष्ट्रवादी’ जोश का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन करें, बल्कि झुकने को कहने पर रेंगने को भी तैयार रहें.
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ट्रेनिंग संस्थान को भर्ती केंद्र नहीं बनाया जा सकता

अगर इरादे उतने नापाक न भी हों, जितने लग रहे हैं, तो भी किसी खास सर्विस के लिए किसी उम्मीदवार के उपयुक्‍त होने का फैसला 100 दिन के फाउंडेशनल ट्रेनिंग कोर्स में उसके 'परफॉर्मेंस' के आधार पर करना बिलकुल बेतुका है. इससे प्रोबेशन पर चल रहे उम्मीदवारों के बीच सबसे घटिया किस्म की चाटुकारिता और कायरता से भरे बर्ताव को बढ़ावा मिलेगा.

इतना ही नहीं, इसका मतलब ये भी है कि फैकल्टी के सदस्यों को ट्रेनिंग के तौर तरीकों को बेहतर बनाने पर ध्यान देने की बजाय उम्मीदवारों की उपयुक्तता और उनके एप्टीट्यूड का आकलन करने के लिए मेहनत करनी होगी - जिसके लिए बिलकुल अलग ढंग की विशेषज्ञता चाहिए. किसी ट्रेनिंग संस्थान को भर्ती केंद्र नहीं बनाया जा सकता और न ही ऐसा करना ठीक होगा - ये बुनियादी तौर पर विकृत सोच है.

हमारे सामूहिक स्वभाव में ऐसी कौन सी बात है, जिसके चलते अपने संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित संस्थाओं को मिट्टी में मिलाने की ऐसी खुजली उठती है, जो रोके से भी नहीं रुकती? इन संस्थाओं की स्थापना करते समय उनके संस्थागत ढांचे को बेहद बारीकी और सावधानी से आकार दिया गया था. तभी ये संस्थाएं पुश्त-दर-पुश्त मजबूत, प्रासंगिक और उपयोगी बनी हुई हैं.

सरदार पटेल की विरासत को बेहद महत्व देने वाले प्रधानमंत्री की तरफ से सिविल सर्विसेज के ढांचे को कमजोर करने का प्रयास किया जाना समझ से परे है. हम सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं कि इस बार जीत आखिरकार समझदारी की होगी.

(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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