पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे प्रणब मुखर्जी ने जता दिया है कि वो राजनीति में सक्रिय भले न हों, लेकिन उससे बाहर नहीं हुए हैं. संदर्भ है नागपुर में होने वाले संघ के एक कार्यक्रम का, जिसमें 7 जून, 2018 को प्रणब मुखर्जी मुख्य अतिथि के तौर पर शिरकत करेंगे. बहस गरम है कि आखिर ताउम्र कांग्रेस पार्टी के रहे प्रणब दा ने संघ का न्योता क्यों और कैसे स्वीकार किया?
बीजेपी खुश, कांग्रेस सन्न
सियासी गलियारों में तूफान मचा हुआ है. कांग्रेस पार्टी में कुछ नेता आगबबूला हैं. कह रहे हैं कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित हैं, तो उन्हें संघ के कार्यक्रम में नहीं जाना चाहिए. उधर बीजेपी नेता फूले नहीं समा रहे और कह रहे हैं कि पॉलिटिक्स में ‘छुआछूत’ पुरानी बात हो चुकी.
थ्योरी नंबर-1
प्रणब दा जैसे तपे हुए पॉलिटीशियन का कोई कदम यू हीं तो हो नहीं सकता. यानी ये बात उतनी सीधी नहीं है, जितनी दिख रही है. राजनीति के इस उथल-पुथल माहौल में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशें जोरों पर हैं, लेकिन उसमें कई पेच भी हैं.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जैसे कई क्षेत्रीय क्षत्रप अपने राज्यों में सीधे कांग्रेस से ही पंजा लड़ाते हैं. ऐसे में कांग्रेस की मौजूदगी वाले किसी धड़े का हिस्सा बनना उनकी सियासत को सूट नहीं करता.
यानी देश के राजनीतिक फलक पर एक ऐसे धड़े की संभावनाएं भी बन रही हैं, जो गैर-बीजेपी भी हो, गैर-कांग्रेस भी. सूत्रों का कहना है कि प्रणब मुखर्जी खुद को उसी धड़े के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पोजिशन कर रहे हैं. एक ऐसा उम्मीदवार, जिसे जरूरत पड़ने पर बीजेपी का भी समर्थन मिल सके और कांग्रेस का भी.
आप इसे समझने के लिए साल 1996 का आम चुनाव याद कीजिए.
बीजेपी को मिली थीं 161 सीट, कांग्रेस को 140, लेफ्ट फ्रंट को 52 और नेशनल फ्रंट को 79.
1996 में हर पार्टी या मोर्चा सरकार बनाने के जादुई आंकड़े 272 से दूर था. डीएमके और तमिल मनीला कांग्रेस जैसे कुछ क्षेत्रीय दलों ने लेफ्ट फ्रंट और नेशनल फ्रंट के साथ मिलकर यूनाइटेड फ्रंट बनाया. लेकिन तब भी आंकड़ा हुआ 192. ऐसे में इस गैर-बीजेपी, गैर कांग्रेस मोर्चे को बीजेपी या कांग्रेस में से किसी का साथ चाहिए था. आखिर में कांग्रेस ने साथ दिया और जनता दल के एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए.
अगर 2019 के आम चुनाव में ऐसी कोई नौबत आती है, तो संभावित थर्ड फ्रंट का प्रधानमंत्री उम्मीदवार ऐसा होना चाहिए, जिसे बीजेपी और कांग्रेस, दोनों से समर्थन की संभावना हो. अब कांग्रेस में तो प्रणब दा के संपर्कों पर बात क्या ही करनी, लेकिन बीजेपी के समर्थन के लिए सरसंघचालक मोहन भागवत की हरी झंडी चाहिए होगी. तो संघ के कार्यक्रम में प्रणब दा का जाना भविष्य की उस राजनीति से जोड़कर देखा जाए, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए.
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के 27 जनवरी, 2018 के इस ट्वीट पर नजर डालिए.
इस साल जनवरी में नवीन पटनायक ने अपने पिता बीजू पटनायक की बायोग्राफी के लॉन्च के मौके पर कुछ नेताओं को भुवनेश्वर आमंत्रित किया था. ये फोटो उसी मौके की है. फोटो में मौजूद हैं प्रणब मुखर्जी, बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लालकृष्ण आडवाणी, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और जेडीएस के एचडी देवगौड़ा.
सूत्रों का कहना है कि गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस थर्ड फ्रंट की संभावनाएं तलाशने के लिए हुई ये पहली मीटिंग थी.
थ्योरी नंबर-2
कुछ लोगों का ये भी कहना है कि अपनी सामाजिक मान्यता बढ़ाने के लिए संघ अपने कार्यक्रमों में समाज के गणमान्य लोगों से अपनी नजदीकियां जताता रहा है.
खुद संघ के लोगों का दावा है कि महात्मा गांधी ने उनके कई कार्यक्रमों में शिरकत की थी. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी 1977 में संघ के एक कार्यक्रम में गई थीं. खुफिया ब्यूरो (आईबी) के चीफ रहे टीवी राजेश्वर ने एक इंटरव्यू में दावा किया था कि इमरजेंसी के दौरान उठाए गए इंदिरा गांधी के कई कदमों का संघ ने समर्थन किया था.
लेकिन संघ ने अपने संघ शिक्षा वर्ग नाम के जिस कार्यक्रम में प्रणब मुखर्जी को बुलाया है, उसके मुख्य अतिथियों की पिछले 8-10 की लिस्ट पर नजर डालें, तो किसी का भी कद प्रणब दा के बराबर नहीं है.
वैसे संघ सूत्रों की मानें तो पश्चिम बंगाल में सियासी दायरा बढ़ाने के लिए बीजेपी को ममता बनर्जी के सामने बड़े चेहरे की जरूरत है. और वो प्रणब दा से बेहतर कौन हो सकता है. संघ के इस सोचे-समझे फैसले में बीजेपी आलाकमान की भी रजामंदी ली गई है.
प्रणब मुखर्जी के बारे में कहा जाता है कि वो एक राजनेता नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्थान हैं. तो इंतजार कीजिए 7 जून को प्रणब दा के भाषण का. उस भाषण की भाषा में आपको भविष्य की राजनीति की एक झलक दिखेगी.
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