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देश में बिजली संकट खत्म हो सकता है, लेकिन सियासी हौसला चाहिए

सरकार ये 6 उपाय करे तो बिजली संकट का स्थाई समाधान निकल सकता है

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भारत में 28 अप्रैल को 4,567 मिलियन यूनिट (एमयू) की बिजली सप्लाई हुई. इस दिन सबसे ज्यादा मांग यानी 204.65 गीगावाट (जीडब्ल्यू) को पूरा किया गया. हालांकि उस दिन 10.78 गीगावाट कम बिजली और 192 एमयू कम उर्जा की सप्लाई हुई. इससे कई राज्य में बिजली गुल हो गई. राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए

सिर्फ 6 महीने पहले अक्टूबर 2021 में भारत ने पांच साल में सबसे भयानक बिजली किल्लत को झेला था. अभी देश में बिजली की मांग देश की उत्पादन क्षमता लगभग 400 GW से थोड़ा ही ज्यादा है. हालांकि, ऐसा लगता है कि अभी जो बिजली संकट देश में रोज बढ़ रहा है वो जल्द ही अक्टूबर 2021 की किल्लत से भी ज्यादा बढ़ जाएगी.

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ऊर्जा मंत्रालय का सिर्फ एडहॉक उपाय

संकट सुलझाने की बजाय फिलहाल ऊर्जा मंत्रालय पूरी तरह से पैनिक में आ गया है. भारत में कोयला विदेशों से मंगाना पसंद नहीं किया जाता है. फिर भी पावर मिनिस्टर ने 2 मई को सभी राज्य सरकारों और निजी सेक्टरों को कोयला इंपोर्ट करने का टार्गेट दिया. उन्होंने 38 मिलियन टन कोयला विदेशों से इंपोर्ट करने का टार्गेट दिया, जिसमें से जून अंत तक 50 परसेंट को पूरा किया जाना है. CPSEs 20 मीट्रिक टन कोयला अतिरिक्त इंपोर्ट करेगा.

बिजली मंत्रालय ने पिछले कुछ दिनों में दिवालिया होने से बंद थर्मल पावर प्लांटों को पावर जेनरेट करने को कहा है. बंद या कम क्षमता वाले ऑपरेटिंग गैस पावर स्टेशनों को भी किसी भी कीमत पर नेचुरल गैस खरीदने का आदेश दिया है. 5 मई को बिजली मंत्रालय ने विदेशों से आने वाले कोयला से चलने वाले बिजली संयंत्रों (बिजली की कीमतों को लेकर विवाद की वजह से इनमें से आधे प्लांट तो बरसों से या तो बंद हैं या फिर आधी क्षमता पर ही उत्पादन कर रहे हैं) को तुरंत बिजली उत्पादन शुरू करने के लिए निर्देश जारी किया.

हालांकि इसकी अब बहुत कम संभावना है कि इनमें से बंद पड़े स्टेशन फिर से काम कर सकें. लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोयले की आसमान छूती कीमतें निश्चित तौर पर भारत के लिए बहुत भारी पड़ने वाला है.

पावर संकट से दूसरी परेशानी

कोयला ढोने वाली मालगाड़ियों को जल्दी से जल्दी आगे करने के लिए रेलवे ने कुछ यात्री ट्रेन को कैंसल किया. 3 मई को रेलवे ने अपने लगभग पूरे खुले वैगन बेड़े (85%) को केवल कोयले की आवाजाही के लिए सेवा में लगाने का निर्णय लिया। इससे खाने पीने के सामान, अनाज की आवाजाही में दिक्कत समेत दूसरी मुश्किलें भी बढ़ेंगी.

सप्लाई से ज्यादा मांग बढ़ने के कारण भारतीय उर्जा एक्सचेंज में औसत हाजिर कीमतें 25 मार्च को 18.7 प्रति यूनिट पर पहुंच गईं. इसके बाद बिजली कीमतों को 'नियंत्रित' करने के लिए, बिजली मंत्रालय ने आखिर अधिकतम 12 रुपये प्रति यूनिट की प्राइस कैपिंग लगाई. अब इसकी वजह से पावर एक्सचेंजों में ट्रेडिंग वॉल्यूम काफी कम हो गया है. ऐसी हालत में कुछ पावर प्रॉडयूस करने वाली कंपनी बिजली का उत्पादन करना पसंद नहीं कर रही हैं.

ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक्स में समस्या गंभीर रहने और उसको दुरस्त नहीं किए जाने से ज्यादातर पावर प्लांट अब एक एक दिन गिन कर अपना काम चला रहे हैं, भले कोल इंडिया कितना भी कोयला के स्टॉक होने का दावा क्यों ना करे.

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निजी सेक्टर के कारोबारियों की निराशा

समय के साथ बिजली का भी निजीकरण हुआ है. फिलहाल देश में जितनी बिजली की जरूरत है उसका आधा प्रोडक्शन निजी सेक्टर करता है. फिर भी डिस्कॉम के जरिए लोगों को बिजली देने को मजबूर हैं. अब डिस्कॉम उन्हें उनका बकाया देती नहीं हैं, इस वजह से ज्यादातर कंपनियां दिवालिया होने की कगार पर हैं. मामले को सुलझाने के लिए कपंनियां अब NCLT की शरण में हैं.

अतिरिक्त बिजल उत्पादन करने पर रेगुलेटर्स इन पावर प्लांट पर सूदखोरों जैसे चार्ज थोप देते हैं इसलिए पावर प्लांट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन या बिक्री नहीं करती.

पावर एक्सचेंज ने सीधे तौर पर बाजार के हिसाब से बिजली बेचने की सुविधा देना शुरू किया था. लेकिन अब प्रशासन ने जिस तरह से इस पर 12 रुपए प्रति यूनिट की ऊपरी सीमा लगा दी है उससे पावर एक्सचेंज की विश्वसनीयता को धक्का पहुंचेगा.

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सरकार लंबी अवधि में फायदे का फिक्र किए बिना ही मनमानी नीतियां चलाती है. 28 अप्रैल 2020 को, बिजली मंत्रालय ने भारत को कोयले में 'आत्मनिर्भर' बनाने के लिए GENCOs कंपनी को भारत में कोयला इंपोर्ट रोकने का निर्देश दिया था. कोयले के आयात के लिए मौजूदा जोर ऐसी नीतियों की मनमानी को उजागर करता है. अभी वर्तमान में जिस तरह कोयला इंपोर्ट करने की बेसिरपैर की बातें कहीं गई हैं वो साफ दिखाती है कि किस तरह का मनमानीपन सरकार कर रही है.

बिजली मंत्रालय ने बिजली सेक्टर की केंद्र सरकार की कंपनी को बेचने के प्रयासों को रोका. जब दबाव बढ़ा तो एक सरकारी कंपनी ने दूसरी को खरीद लिया. जैसे NTPC ने NEEPCO और THDC को PFC ने REC को खरीदा.

क्या कहीं उजाले की उम्मीद है ?

हां. एक साफ रास्ता है. यह आर्थिक, वित्तीय और सेक्टर के हिसाब से अहम है लेकिन सियासी तूफान आने के अंदेशे की वजह से इसे कोई छूना नहीं चाहता है. पहला, निजी बिजली उत्पादकों को बिजली कहीं भी और किसी को भी चाहे ये कंपनी हो या फिर एक्सचेंज उन्हें बेचने की इजाजत मिलनी चाहिए. पावर सयंत्रों को बिजली अपनी मर्जी से बेचने की आजादी मिलनी चाहिए इसके लिए डिसकॉम को क्रॉस सब्सिडी वाला सिस्टम नहीं होना चाहिए.

दूसरा, आसपास के डिस्कॉम को ग्रामीण क्षेत्रों और नगरपालिका के हिसाब से फिर से संगठित करना चाहिए और एक दशक से भी कम समय के भीतर इन सबका निजीकरण कर देना चाहिए. इसके अतिरिक्त, बिजली देने की सुविधा स्थापित करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को फौरन नए वितरण और सप्लाई लाइसेंस दिए जाएं.

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तीसरा, केंद्र सरकार की जितनी भी ‘उदय’ UDAY जैसी योजनाएं हैं उन सबको तुरंत रोकना चाहिए. इसके अलावा आखिर में भारत सरकार एक योजना ला सकती है जिसमें डिस्कॉम के निजीकरण की कामयाबी के बाद 50 % बकाया/नुकसान चुकाने का ऑप्शन मिले.

चौथा – राज्य सरकारों को बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन वाली एसेट्स को निजी हाथों में सौंपने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

पांचवां- भारत सरकार को पावर सेक्टर के सभी CPSE- चार कंपनियों NTPC, पावरग्रिड, NHPC और PFC को छोड़कर बाकी सभी को बेच देना चाहिए. इसके अलावा बची हुई ये 4 कंपनियां NTPC, POWER GRID, NHPC और PFC को एक अलग मैनेजमेंट कंपनी को सौंप देना चाहिए ताकि बिजली मंत्रालय इसमें दखल ना दे

छठा- सरकार चाहे तो वो DBT के जरिए किसानों, कंज्यूमरों या दूसरे लोगों को जिनको जो भी आवश्यकता हो सहायता दे सकती है.

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फाइनल उपाय

ऊपर बताए सुधार कार्यक्रम के साथ भारत में बिजली सेक्टर को पूरी तरह से निजीकरण करने का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए और बिजली मंत्रालय को पूरी तरह से सिर्फ नीति बनाने वाले मंत्रालय में बदल देना चाहिए, फिर इसे बाद में इंटीग्रेटेड एनर्जी मंत्रालय में मिलाया जा सकता है.

दुर्भाग्य से सरकार इसके उल्टा ही काम कर रही है. सरकार कोयला इंपोर्ट, प्राइस कैपिंग जैसे फैसले ले रही है और सेक्टर को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश कर रही है. बिजली डिस्ट्रीब्यूशन सेक्टर में लाइसेंसिंग को खत्म करने का जो प्रस्ताव था उसे कृषि कानून में विफलता और तमाशे के बाद रोक दिया गया.

ऐसा लगता है लंबी अवधि में सुधार पर फोकस बढ़ाने की बजाय अभी जो समस्याएं हैं उसे दुरुस्त करने के उपायों पर सरकार का फोकस है और इसके लिए अस्थाई सुधार किए जा रहे हैं. अगर ऐसी ही रहा तो फिर बार बार बिजली संकट आते रहने की संभावनाएं ज्यादा हैं.

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