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Premchand Jayanti: घीसू -माधव की भूख बढ़ रही है, पंच परमेश्वर प्रपंच में उलझ गए

Happy birthday Premchand: सभी को अपने हिस्से का प्रेमचंद चाहिए,उनके देशप्रेम को कट्टर राष्ट्रवाद से जोड़ा जा रहा

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2004-05 आसपास की घटना है. प्रेमचंद (Premchand Jayanti 2022)को दलित विरोधी बताकर जलाया जा रहा था और पिछले 2 -3 वर्षों से ऐसे अनालेख अशोध प्रकाशित किये जा रहे हैं जिसमें प्रेमचंद को सनातन संस्कृति का सिपाही घोषित किया जा रहा है. प्रेमचंद को अपने तरीके से, अपने बनाए गए सांचे में तैयार कर परोसा जा रहा है. यह एक प्रकार की प्रायोजित आलोचना है, जिसका लाभ किनको मिलेगा यह किसी से छिपा नहीं है.

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उज्ज्वला योजना की शुरुआत में प्रधान मंत्री मोदी ईदगाह के हामिद को याद करते हैं और तालियां बटोरते हैं. सभी को प्रेमचंद आ रहे हैं और सभी को अपने-अपने हिस्से का प्रेमचंद चाहिए. ऐसा प्रेमचंद जिसके माथे पर कट्टरता का तिलक लगा हो. प्रेमचंद के देशप्रेम को कट्टर राष्ट्रवाद से जोड़ा जा रहा है.

आज जो स्थिति है वह ब्रिटिश काल से इतर नही है. लगता है मात्र सत्ता का हस्तान्तरण हुआ है बस. प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों के पात्रों की स्थिति और बदतर हो गई है.

गोबर शहर से नंगे पांव अपने मुलुक वापस लौट रहा है. चार पैसे कमाने के सपने लिए परदेश गए गोबर जैसो का लौटना, जाना क्रिया से अधिक खौफनाक है. घीसू और माधव की भूख और अधिक बढ़ती जा रही है. यह भूख सोचने और समझने की शक्ति को धीरे –धीरे कुतर रही है. हल्कू का खेत आज भी चर लिया जा रहा है, नीलगाय के भेष में कौन है पता नहीं चल पा रहा है. डॉक्टर चड्ढा के पास आज भी कोई मंत्र नहीं है जिससे वे गरीबों के बच्चों को बचा सके. मंत्र वाला बूढ़ा और अधिक कमजोर हो गया है. आज भी किसकी मजाल है जो ठाकुर के कुंए में रस्सी डाल कर पानी ला सके. पंचपरमेश्वर प्रपंच में उलझ गए हैं. बड़े भाई साहब का छोटा भाई पढ़ लिखकर बेरोजगार हो गया है. नमक का दारोगा शौकीन हो गया है. अलोपीदीन राजनीति में उतर चुके हैं.
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 प्रेमचंद ने कहा था ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है'

दुनिया दो हिस्सों में बंटती जा रही है. एक आभासी दुनिया दूसरी असली वाली. इस असली वाली दुनिया को हम देखना नहीं चाहते हैं क्योंकि दृश्य बहुत भयावह और घिनौने हैं. हम वही देख पा रहे हैं जो हमें दिखलाया जा रहा है. मीडिया घराने लगे हुए हैं एक ही दृश्य को बिना रूप परिवर्तन किये दिखाने में. अपनी सुविधानुसार दृश्य को विकासमयी दिखला देने वाला फॉर्मूला कारगर हो रहा है. और यह दुनिया के कई देशों में चल रहा है. आई टी सेल वाले लोग चश्मा पहनाने का काम कर रहे हैं.

ऐसे ही लोगों से और चश्मा पहनाकर नजरबंदी करने वालों से आगाह करते हुए प्रेमचंद ने लिखा था कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में आने में शायद लज्जा आती है. इसलिए वह गधों की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों में पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है'

प्रेमचंद का संस्कृतिकरण करने की साजिश चल रही

प्रेमचंद की कहानियों का पाठ होना जरूरी है तो उनके निबंधों और भाषणों को भी पढ़ने और समझने की जरूरत है. यदि आपने ऐसा नहीं किया तो प्रेमचंद का जो नया रूप आपके समक्ष प्रस्तुत होगा वे प्रेमचन्द उसी विचारधारा के हिमायती दिखाई देने लग जायेंगे जिनका विरोध प्रेमचंद ने ताउम्र किया.

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जिस विराट लेखक का पूरा जीवन हाशिये पर रह रहे लोगों, वंचितों और शोषितों की आवाज बनकर अपने समाज,धर्म की रुढियों को तोड़ने में लग गया हो उस प्रेमचंद का संस्कृतिकरण कर देने की साजिश चल रही है.

प्रेमचंद ने लिखा था, ‘उस संस्कृति में था ही क्या जिसकी वे रक्षा करें? जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था. ज्यों-ज्यों उसकी यह चेतना जागृत होती जाती है वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो राजा बनकर, विद्वान बनकर,जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी. उसे अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है जो संकृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है’

अंग्रेज चले गए पर हमें आज भी ऐसे राजा, विद्वानों और जगत सेठों से बचकर रहना है जो योजनाबद्ध तरीके से जनता की आंखों में पट्टी बांधकर हिन्दू मुस्लिम भाई चारे को खत्म करना चाहते हैं.

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वर्णाश्रम के समर्थक और अंतरजातीय विवाह के विरोधी पुरी के शंकराचार्य तो हिन्दू संख्या बढ़ाने के लिए बौद्ध और जैन धर्म को हिन्दू धर्म में शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन की बात करते हुए दिखाई पड़ते हैं. आपके मोबाइल में अपनी-अपनी जाति और धर्म के अनुसार समाज को काटने के संदेशों की भरमार होती जा रही है. हम बिना उन संदेशों से प्रभावित हुए अपने मन के प्रेमचंद और कबीर को बचा सकें, यही प्रेमचंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

'प्रेमचंद होते तो आज क्या होता' से बेहतर है यह जानना कि उनका लिखा क्या कहता है और वे हमें कैसे और किससे सचेत रहने को कहते थे.

(लेखक प्रीतेश रंजन ‘राजुल’ पिछले 14 वर्षों से जवाहर नवोदय विद्यालय में हिन्दी के शिक्षक हैं. पढ़ाने के अलावा उनकी रंगमंच में गहरी रूचि है और वे कविता-व्यंग्य लेखन करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)

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