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संस्कृति के खोल में छिपी सांप्रदायिकता को उघाड़ देते हैं प्रेमचंद

प्रेमचंद ने अपने लेख में उस नस्लवादी नफर त पर भी चोट की हैं, जो फासीवाद की जड़ है

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“बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?”

ये सवाल प्रेमचंद की मशहूर कहानी "पंच परमेश्वर" में जुम्मन शेख की बूढ़ी खाला ने अलगू चौधरी से किया था. खाला के इस एक सवाल ने अलगू चौधरी की अंतरात्मा को ऐसा झकझोरा कि उसने जुम्मन के साथ अपनी बचपन की दोस्ती को दरकिनार करके इंसाफ का साथ देने का फैसला कर लिया.

अपने इस किरदार की तरह ही प्रेमचंद की लेखनी ने भी ईमान और इंसाफ का साथ देने के लिए कभी किसी 'बिगाड़' की परवाह नहीं की. अब से दशकों पहले लिखी उनकी बातें इसकी गवाह हैं. उपन्यास हों या कहानियां, लेख हों या संपादकीय, प्रेमचंद ने हमेशा वही कहा, वही लिखा जो उन्हें सच और सही लगा.

प्रेमचंद ने अपने लेख में उस नस्लवादी नफर त पर भी चोट की हैं, जो फासीवाद की जड़ है
पंच-परमेश्वर, प्रेमचंद की सबसे मशहूर कहानियों में से एक है
(फोटो सौजन्य: Goodreads)
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साम्प्रदायिकता और संस्कृति

जनवरी 1934 में छपे अपने लेख 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' में प्रेमचंद ने लिखा है :

"साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है.

हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं. यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति, और न कोई अन्य संस्कृति. अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं. हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं."

प्रेमचंद के इस लेख को छपे अस्सी से ज्यादा साल बीत चुके हैं. इसमें लिखी बातों का संदर्भ भले ही अलग हो, लेकिन उनके ये शब्द आज भी दिल-दिमाग को उतनी ही शिद्दत से झकझोरने का दम रखते हैं. अपने इसी लेख में प्रेमचंद आगे लिखते हैं :

“संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है. तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?”

प्रेमचंद अपने एक और लेख में यही मुद्दा उठाते हुए बड़ी बेबाकी से लिखा :

"हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें, लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को मानने वाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें, खामखाह दूसरों से सर टकराना है. "

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ये बात याद रखनी चाहिए कि गाय के बारे में ये बातें किसी तथाकथित "विदेशी सोच" वाले लेखक ने नहीं, बल्कि उन प्रेमचंद ने लिखी हैं, जिनके कालजयी उपन्यास "गोदान" में होरी-धनिया और उनके बच्चों का गाय के प्रति प्रेम दिल को छूने वाला है. ये वही प्रेमचंद हैं, जिनकी लिखी शानदार कहानी "दो बैलों की कथा" के नायक हीरा-मोती नाम के दो बैल हैं, जो खुद को अपने मालिक के परिवार का अटूट हिस्सा समझते हैं.

प्रेमचंद के ऊपर दिए उद्धरणों के आधार पर अगर कोई उन्हें हिंदू विरोधी बताना चाहता है, तो वो जान ले कि ये वही प्रेमचंद हैं, जिन्होंने बच्चों को आसान और दिलचस्प भाषा में रामकथा सुनाने के लिए न सिर्फ "रामचर्चा : श्रीरामचंद्रजी की अमर कहानी" नाम की किताब लिखी, बल्कि उसे अपने ही सरस्वती प्रेस से प्रकाशित भी किया. वो भी सिर्फ हिंदी में ही नहीं, उर्दू में भी.

राष्ट्रीयता की संकीर्ण परिभाषा यानी हिंसा और अशांति को न्योता

सांप्रदायिकता और संस्कृति के अलावा प्रेमचंद की पैनी नज़र राष्ट्रीयता, हिंसा और अंतर्राष्ट्रीय अशांति जैसे अहम राजनीतिक सवालों पर भी अपने दौर से काफी आगे तक देखती है.

नवम्बर 1933 में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा,

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“राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी. नतीजा दोनों का एक है. सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था. राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है. उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है. सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा, संसार में शांति का होना असंभव है. जागरूक आत्माएं संसार में अंतर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है.” 

फासीवाद और नस्लवाद पर करारा प्रहार

राष्ट्रीयता की गलत और अतिवादी परिभाषा में छिपे खतरों से आगाह करने वाले प्रेमचंद, फासीवाद के जहर से भी अच्छी तरह वाकिफ थे. अब से 80-85 साल पहले लिखे उनके लेख इस बात के गवाह हैं कि प्रेमचंद साहित्य और संस्कृति के अलावा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और विचारधाराओं के बारे में भी काफी गहरी समझ रखते थे.1933 में जर्मनी में हिटलर की चुनावी जीत के बाद प्रेमचंद ने ‘जर्मनी का भविष्य’ शीर्षक से एक लेख लिखा. जिसमें उन्होंने जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर डाका डालने वाले फासीवाद से आगाह किया है:

“जर्मनी में नाजी दल की अद्भुत विजय के बाद यह प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में जर्मनी फासिस्ट हो जाएगा और वहां नाजी-शासन कम से कम पांच वर्ष तक सुदृढ़ रहेगा? यदि एक बार नाजी शासन को जमकर काम करने का मौका मिला, तो वह जर्मनी के प्रजातंत्रीय जीवन को, उसकी प्रजातंत्रीय कामना को, अपनी सेना और शक्ति के बल पर इस तरह चूस लेगा कि 25 वर्ष तक जर्मनी में नाजी दल का कोई विरोधी नहीं रह जाएगा.”

प्रेमचंद यहीं नहीं रुके. उन्होंने इसी लेख में आगे ये भी लिखा कि हिटलर की जीत कोई आम चुनावी जीत नहीं है. ये जीत विपक्ष और मीडिया, दोनों को कुचलकर हासिल की गई है:

"जर्मनी में नाजी दल की नाजायज सेना का तीव्र दमन और सभी विरोधी शक्तियों को चुनाव के पूर्व ही कुचल डालना ही नाजी विजय का कारण है. यह कहां का न्याय था कि वर्गवादियों को जेल भेजकर, विरोधियों को पिटवाकर, मुसोलिनी की तरह विरोधी पत्रों को बंद कराकर चुनाव कराया जाए और उसकी विजय को राष्ट्र मत की विजय बताया जाय."

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प्रेमचंद इस लेख में उस नस्लवादी नफरत पर भी चोट करते हैं, जो फासीवाद की जड़ है :

प्रेमचंद ने अपने लेख में उस नस्लवादी नफर त पर भी चोट की हैं, जो फासीवाद की जड़ है
मुंशी प्रेमचंद का व्यक्तित्व बहुत ही साधारण था
(फोटो: ट्विटर)
“जर्मनी में नाजी दल ने आते ही आते यहूदियों पर हमला बोल दिया है. मारपीट, खून-खच्चर भी होना शुरू हो गया है… वह अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकते. ...(यहूदी) कई पीढ़ियों से वहां रहते आए हैं. जर्मनी की जो कुछ उन्नति है, उसमें उन्होंने कुछ कम भाग नहीं लिया है, लेकिन अब जर्मनी में उनके लिए स्थान नहीं है.”

प्रेमचंद अपने इस लेख में तत्कालीन जर्मनी के हालात की तुलना उस वक्त के भारत से करते हुए लिखते हैं :

"इधर कुछ दिनों से हिंदू-मुसलमान के एक दल में वैमनस्य हो गया है, उसके लिए वही लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होंने पश्चिम से प्रकाश पाया है और अपरोक्ष रूप से यहां भी वही पश्चिमी सभ्यता अपना करिश्मा दिखा रही है."

गौर करने की बात है कि प्रेमचंद नफरत के इस माहौल के लिए किसी कथित धार्मिक कूपमंडूकता या कट्टरता को नहीं, बल्कि पश्चिम से आई राष्ट्रवाद की उग्र, नस्लवादी- फासीवादी अवधारणा को जिम्मेदार मानते हैं. अपने उपन्यासों, कहानियों और लेखों में भारतीय समाज की तमाम बुराइयों की कड़ी से कड़ी आलोचना करने वाले प्रेमचंद ऐसा कहने का आत्मविश्वास इसलिए जुटा पाए क्योंकि उनकी जड़ें उस जमीन की गहराई में धंसी हैं, जिसे सदियों से भारत की गंगा-जमुनी तहजीब ने सींचा है.

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प्रेमचंद के पास हिटलर और मुसोलिनी के आक्रामक राष्ट्रवाद के बरअक्स गुलामी से निजात दिलाने वाला वो देशप्रेम है, जिसके प्रतीक गांधी, नेहरू, भगत सिंह, अशफाकउल्ला और मौलाना आजाद जैसे महान देशभक्त रहे हैं. प्रेमचंद के इस आत्मविश्वास की बुनियाद भारत की उस दार्शनिक परंपरा में है, जो बुद्ध और कबीर से होती हुई टैगोर और आंबेडकर तक जाती है.

अपनी मिट्टी और सभ्यता की आबोहवा में गहराई तक रचे-बसे होने ये खूबी ही शायद वो वजह है, जो प्रेमचंद को बीसवीं सदी की गोद में बैठकर इक्कीसवीं सदी के आंगन में झांकने की ताकत देती है.

यह भी पढ़ें: Qपाॅडकास्ट: प्रेमचंद के जन्मदिन पर सुनिए उनकी कहानी ईदगाह

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