ADVERTISEMENTREMOVE AD

पुणे पोर्श केस, हमारी न्याय व्यवस्था के कानूनी ढांचे की खामियों को सामने लाता है

IPC की धारा 304ए एक जमानती अपराध है, इसीलिए ज्यादातर ऐसे मामलों में आरोपी जमानत पर छूट जाते हैं.

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

Pune Porsche Case: भारत में हर रोज तीन में से एक खबर सड़क हादसों और इन हादसों से होने वाली मौतों को लेकर होती है. अगर हम साल 2022 के आंकड़ों को देखें, तो एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि साल 2022 के दौरान राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 4,61,312 सड़क हादसे दर्ज किए गए, जिनमें 1,68,491 लोगों की जान चली गई और 4,43,366 लोग जख्मी हो गए.

बता दें कि साल 2021 के मुकाबले 2022 में सड़क हादसों की संख्या में 11.9 फीसद की बढ़ोतरी हुई है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पुणे पोर्श मामला, जमानत की शर्त और जन आक्रोश  

हाल ही में 19 मई को पुणे में लग्जरी पोर्श कार दुर्घटना में दो लोगों की मौत को लेकर पूरे देश में गुस्से का उबाल था. यह मामला दो वजहों से सुर्खियों में आया, एक तो इसलिए कि आरोपी नाबालिग था और कथित तौर पर नशे में था, और दूसरा, वह पुणे के एक अमीर परिवार से है और एक लग्जरी पोर्श कार चला रहा था.

इसके अलावा, गुस्सा इस बात को लेकर भी था कि जुवेनाइल बोर्ड ने आरोपी को “कम्युनिटी सर्विस” की एक शर्त के साथ जमानत दे दी थी, जिसमें आरोपी को सड़क हादसों और सुरक्षा पर एक निबंध लिखने के लिए कहा गया था, और उसे 15 दिन के लिए ट्रैफिक पुलिस की सहायता करने के लिए भी कहा गया था.

बोर्ड ने नाबालिग के माता-पिता को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया कि वह भविष्य में इसी तरह के अपराधों में शामिल नहीं होगा, उसकी काउंसलिंग की जाएगी, शराब छोड़ने के लिए मदद ली जाएगी और उसे बुरी संगत से दूर रखा जाएगा.

बताते चलें कि अब पुणे के जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने आरोपी की जमानत रद्द कर दी है और उसे 5 जून तक ऑब्जर्वेशन होम में भेज दिया गया है. किसी भी दूसरे हिट-एंड-रन मामले की तरह, इसमें भी आरोपी पर धारा 304ए के तहत केस दर्ज किया गया है जो “लापरवाही से मौत” के मामलों में लागू होती है. इस खास मामले में, आरोपी नाबालिग (17 साल और आठ महीने) था और उसे पुलिस और फिर उसके बाद जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को सौंप दिया गया था.

बताने की जरूरत नहीं है कि IPC की धारा 304ए एक जमानती अपराध है और इसलिए कोई भी अदालत आरोपी को जमानत देने से इनकार नहीं कर सकती है और ज्यादातर मामलों में आरोपी को पुलिस स्टेशन से ही बॉन्ड भराकर जमानत दे दी जाती है. 

अगर हम इस विचाराधीन मामले के तथ्यों को देखें तो शायद आरोपी पर नाबालिग के रूप में मुकदमा चलाया जाएगा, क्योंकि जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट 2015 (जेजे एक्ट) में भी इस बारे में एक प्रावधान है. कानून का सामना कर रहे बच्चे (Child in Conflict with Law या CFL) की आयु सत्यापन और मूल्यांकन करके और अगर आरोपी को मानसिक रूप से स्थिर है तो उस पर एक बालिग के तौर पर मुकदमा चलाया जाएगा, न कि किशोर के रूप में.  

ऐसे मामलों में, जहां अपराधी नाबालिग है, तो मोटर व्हीकल्स एक्ट 1988 के तहत अभिभावक या मोटर वाहन के मालिक को नाबालिग/किशोर द्वारा किए गए अपराध के लिए जिम्मेदार/जवाबदेह माना जाएगा, और नाबालिग को केवल कानून के तहत निर्धारित जुर्माने और सजा का सामना करना पड़ेगा.

इसके लिए तय अधिकतम सजा तीन साल है, साथ ही 25,000 रुपये का जुर्माना और वाहन मालिक की मोटर का रजिस्ट्रेशन रद्द किया जाना है.  

पुणे हादसा: एक नाबालिग भगोड़ा?

पुणे के एक बड़े बिल्डर के बेटे (आरोपी) ने कथित तौर पर शराब के नशे में अपनी पोर्श कार से काबू खो दिया और बाइक से जा रहे दो लोगों को मार डाला.  

धारा 304ए के अपराध के लिए तय सजा तीन साल है, जिसका स्वभाविक मतलब यह है कि ऐसे मामलों में मुकदमा के दौरान कोई गिरफ्तारी नहीं हो सकती है, और अगर हम आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत में एक मुकदमे में बहुत वक्त लगता है. हालांकि, इस मामले में आरोपियों के खिलाफ निम्नलिखित धाराओं के तहत FIR दर्ज की गई है:

लाइवलॉ की रिपोर्ट के अनुसार, किशोर के पिता पर भी जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 75 और 77 के तहत मामला दर्ज किया गया है, जो क्रमशः जानबूझकर की गई लापरवाही और नाबालिग को नशीले पदार्थ मुहैया करने के बारे में हैं. पिता ने कथित तौर पर आरोपी नाबालिग को, जिसके पास वैध ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था, कार चलाने दी और उसकी शराब पीने की आदतों के बारे में पता होने के बावजूद उसे एक पार्टी में शामिल होने की इजाजत दी. पुणे की एक अदालत ने अब पिता को भी दो दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया है.

कानून के अनुसार, ऐसे मामलों में जहां किसी कानून के साथ संघर्ष में किशोर या बच्चे (CFL) को गिरफ्तार किया जाता है, तो संबंधित जांच एजेंसियों को उसे वयस्क मानने के लिए गिरफ्तारी के 30 दिन के अंदर आरोप पत्र दायर करना होता है.

आरोप पत्र दायर करने के बाद, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक मूल्यांकन के साथ-साथ नशा मुक्ति टेस्ट भी किया जाता है, जिसमें दो से तीन महीने का समय लगता है.

लेखक की कोशिश यह विश्लेषण करना है कि गलती हमारी अपनी “कारों” में है, कैसे? यानी देश के कानून में है, जो असल में ऐसे हिट-एंड-रन के मामलों में एक बहुत उदार और “जमानती” अपराध का प्रावधान करता है.  

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हिट एंड रन के केस में नाबालिग और किशोर को लेकर क्या है कानून

मौजूदा मामले में, आरोपी नाबालिग है और उसका मामला जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 के तहत जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में भेजा गया था. एक्ट की धारा 2 खंड 13 “कानून के साथ संघर्ष में बच्चे (Child in Conflict with Law)” को ऐसे परिभाषित करता है–

एक बच्चा जिस पर आरोप लगाया गया है या ऐसा पाया गया कि उसने कोई अपराध किया है और जो ऐसे अपराध करने की तारीख पर 18 साल का नहीं है.  

उसकी हिरासत और आगे की जांच के मामले में, पूछताछ की प्रक्रिया के दौरान आरोपी को नाबालिग माना जाएगा जिसे लेकर कानून की धारा 6 स्पष्ट है, जिसमें कहा गया है कि अगर

“कोई भी शख्स, जिसने 18 साल की उम्र पूरी कर ली है. और उसे 18 साल से कम उम्र में अपराध करने के लिए गिरफ्तार किया जाता है, तो, ऐसे शख्स को, इस धारा के प्रावधानों के लिए, पूछताछ की प्रक्रिया के दौरान एक बच्चे के रूप में माना जाएगा. 

भारत में जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन) एक्ट 2015 के तहत, यह तय करने की प्रक्रिया में कि क्या नाबालिग पर बालिग के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है, कई चरण शामिल हैं. कानून अपराध की प्रकृति और बच्चे की उम्र के आधार पर कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों के बीच अंतर करता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

कानून में यह प्रक्रिया दी गई है: 

उम्र का सत्यापन और वर्गीकरण: पहला कदम कथित अपराध के समय आरोपी (नाबालिग) की उम्र तय करना है. मुख्य रूप से दो आयु समूह हैं— एक वे जो 16 साल से कम उम्र के हैं, जिन पर आमतौर पर जुवेनाइल बोर्ड मुकदमा चलाता है और उन्हें व्यस्क आरोपियों की अदालतों में नहीं भेजा जाता है, और दूसरे पुणे की घटना की तरह, यानी, वे बच्चे जिनकी उम्र 16 से 18 साल के बीच है. ऐसे मामलों में, अगर अपराध जघन्य किस्म का है तो संभावना है कि तो आरोपी पर बालिग के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता है.  

जेजे एक्ट के तहत अपराधों का वर्गीकरण: कानून के तहत अपराधों को तीन वर्गों में बांटा गया है, छोटे अपराध– जिनमें मामूली अपराध शामिल हैं, गंभीर अपराध– जो किसी तरह छोटे और जघन्य अपराधों के बीच हैं, और अंत में जघन्य अपराध– जिनमें भारतीय दंड संहिता के तहत कम से कम सात साल कैद की सजा होती है.  

धारा 15 के तहत शुरुआती मूल्यांकन: इसमें कहा गया है कि जेजे एक्ट के तहत, 16 से 18 वर्ष की उम्र के बच्चों के लिए, जो जघन्य अपराधों के आरोपी हैं, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड शुरुआती मूल्यांकन करता है. यह मूल्यांकन यह तय करने के लिए जरूरी है कि बच्चे पर बालिग के रूप में मुकदमा चलाया जाना चाहिए या नहीं. इस मूल्यांकन में, नाबालिग की मानसिक और शारीरिक क्षमता के साथ-साथ कथित अपराध के नतीजों को समझने की क्षमता का निर्धारण किया जाता है. जैसा कि ऊपर बताया गया है, जुवेनाइल बोर्ड को आरोपी बच्चे को पहली बार बोर्ड के सामने पेश किए जाने के तीन महीने के अंदर मूल्यांकन पूरा करना जरूरी है.

अगर नाबालिग के साथ बालिग के रूप में व्यवहार किया जाना है तो क्या होगा: जेजे एक्ट की धारा 15 के तहत शुरुआती मूल्यांकन के बाद, अगर जुवेनाइल बोर्ड फैसला लेता है कि बच्चे पर बालिग के रूप में मुकदमा चलाया जाना चाहिए, तो मामला चिल्ड्रेंस कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया जाता है, जो कि ऐसे मुकदमों की सुनवाई के लिए निर्धारित अदालत है. चिल्ड्रेंस कोर्ट के पास बालिग की तरह ही मुकदमा चलाने का अधिकार है, लेकिन यह बच्चे की उम्र और सुधार की संभावना को भी ध्यान में रखता है.

अगर नाबालिग के साथ बालिग के रूप में व्यवहार किया जाना है, तो निष्पक्ष और उचित सुनवाई सुनिश्चित करते हुए, वयस्कों के लिए लागू प्रक्रिया का पालन करते हुए मुकदमा चलाया जाता है. अंत में अगर दोषी पाया जाता है, तो चिल्ड्रेंस कोर्ट बच्चे को 21 साल की उम्र तक सुरक्षित स्थान पर भेजने का आदेश दे सकता है, जिसके बाद, अगर जरूरी हुआ तो बाकी सजा की अवधि पूरी करने के लिए शख्स को वयस्क जेल में स्थानांतरित किया जा सकता है. 
ADVERTISEMENTREMOVE AD

चुनिंदा मामलों पर गुस्सा करना समाधान नहीं

गुस्सा इस बात को लेकर था कि एक 17 साल के लड़के को कथित तौर पर अपनी पोर्श से कुचलकर लोगों की हत्या करने के आरोप में हिरासत में लिए जाने के 15 घंटे के भीतर कैसे जमानत पर रिहा कर दिया गया.

कहने की जरूरत नहीं है कि हादसा जघन्य और विनाशकारी था, और हमने हादसे में दो इंसानों को खो दिया, लेकिन साथ ही, हमें यह समझने की जरूरत है कि खामियां हमारे अपने कानून में हैं, न कि पक्षकारों की स्थिति के कारण (इस विशेष दुर्घटना के संबंध में), क्योंकि जिन अपराधों का अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है वे छोटे हैं, और टेबल 1.0 दर्शाती है कि इसके लिए अधिकतम सजा तीन साल है. 

उदाहरण के लिए सरकार नए फौजदारी कानून लेकर आई और भारतीय न्याय संहिता (BNS) के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें ऐसे हिट-एंड-रन मामलों के लिए सख्त सजा तय थी. संशोधित कानूनों में लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण गंभीर दुर्घटना करने वाले ड्राइवरों के लिए 10 साल तक की कैद (जो मौजूदा कानून के तहत दो साल है) और सात लाख रुपये तक का जुर्माना तय किया गया था. आखिरकार सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े. इसलिए, दोष हमारी “कारों” में है– कानूनी ढांचा जो हमारे रोजमर्रा के जीवन को नियंत्रित करता है.

हालांकि, हमारे पास जरूरी कानून हैं, फिर भी इनका कड़ाई से लागू किया जाना एक समस्या है. क्या नाबालिगों को शराब परोसने वाले बार नहीं हैं? क्या कोई दुकानदार नाबालिगों को सिगरेट नहीं बेच रहा है? हम सभी जानते हैं कि ये चीजें होती रहती हैं लेकिन कानून तभी अमल में लाया जाता है, जब जन आक्रोश फूटता है.

(अरीब उद्दीन अहमद इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील हैं. वह विभिन्न कानूनी मामलों पर लिखते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×