ADVERTISEMENTREMOVE AD

राहुल की झप्पी-यॉर्कर को मोड़ने की बजाय उसमें उलझ कर रह गए PM मोदी

2019 के चुनावी इंडिया कप का पहला मैच शुक्रवार 20 जुलाई 2018 को संसद की पिच पर खेला गया.

Updated
story-hero-img
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

2019 के चुनावी इंडिया कप का पहला मैच शुक्रवार 20 जुलाई 2018 को संसद की पिच पर खेला गया. नतीजा? मेरा मानना है कि ये ड्रॉ रहा और इसने अगले साल मई में होने वाले पेनल्टी शूटआउट की जमीन तैयार कर दी है.

राहुल गांधी ने एक कमजोर समझी जा रही टीम के मुख्य स्ट्राइकर के तौर पर विरोधी टीम के मिडफील्ड को तेजी से पार करके उसके डिफेंस में सेंध लगा दी. हालांकि दिसंबर 2017 में हुए गुजरात चुनाव के समय से ही वो लगातार अपनी बढ़ती राजनीतिक परिपक्वता का सबूत देते आ रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने अपने तरकश में वो तीर भी जोड़ लिया है, जो अब तक उसमें मौजूद नहीं था. और उनके तरकश का ये नया तीर है, राजनीति के मंच पर छा जाने और पूरी चर्चा पर हावी हो जाने की क्षमता.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
उनकी झप्पी से “मास्टर” भौंचक रह गए. वो अपने सिंहासन पर बिना हिले-डुले, अचकचाए से बैठे रहे, जबकि राहुल गांधी सुर्खियों में छा गए.
2019 के चुनावी इंडिया कप का पहला मैच शुक्रवार 20 जुलाई 2018 को संसद की पिच पर खेला गया.
सदन के भीतर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम मोदी को लगाया गले
(फोटो- LSTV)

राहुल ने अपनी अनोखी पहल से शुरुआती बढ़त हासिल कर ली

मुख्यधारा के जिस मीडिया को लंबे अरसे से मोदी को दूसरों के मुकाबले 90-10 की बढ़त देने की आदत पड़ी हुई है, वो आधी जगह राहुल गांधी को देने पर मजबूर हो गया. किसी भी भरोसे लायक अखबार को उठाकर देख लीजिए, राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े या कई बार तो उनसे ज्यादा तवज्जो पाते नजर आ जाएंगे. 2014 से अब तक बिना किसी खास चुनौती के एकतरफा मैदान मारते आए कैंपेनर पर ये शुरुआती बढ़त राजनीतिक प्रतीकों के गैर-पारंपरिक इस्तेमाल का नतीजा है.

क्या ये राहुल का 21वीं सदी वाला "बेलछी मोमेंट" हो सकता है, जिसमें मुकाबला ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म की जगह सोशल मीडिया पर खेला जा रहा है? और क्या राहुल को ये गुर अपनी दादी की बेमिसाल पॉलिटिकल इंस्टिंक्ट यानी राजनीतिक सहज-वृत्ति से विरासत में मिला है?

(जिन लोगों को नहीं मालूम उन्हें बता दें कि 1977 में सत्ता से बेदखल होने के बाद इंदिरा गांधी राजनीतिक दिशाहीनता जैसी हालत में पहुंच चुकी थीं. लेकिन उसी दौरान वो अचानक हाथी पर बैठकर बाढ़ के पानी को पार करती हुईं बिहार के दूरदराज के गांव बेलछी जा पहुंचीं, क्योंकि वहां 11 दलितों को गोली मारकर जिंदा जला दिया गया था. उस एक तस्वीर ने एक ही झटके में उनकी राजनीतिक हैसियत को फिर से बहाल कर दिया था.)

साफ दिख रहा है कि राहुल गांधी ने सरकार को बौखला दिया है. उनकी प्रतिक्रियाओं में हास्य-विनोद का पूरी तरह अभाव दिख रहा है. गृह मंत्री ने राहुल की झप्पी की तुलना जंगलों को बचाने के लिए हुए ऐतिहासिक चिपको आंदोलन से कर दी.

वैसे तो वो ताना मारना चाहते थे, लेकिन असलियत में नर्वस दिख रहे थे. एक और मंत्री ने राहुल गांधी पर नशा करके आने का आरोप लगा दिया. एक मंत्री ने तो उन पर "अभद्र" बर्ताव करने की तोहमत भी जड़ दी. लोकसभा स्पीकर इसे "मर्यादाहीन" व्यवहार बताने की हद तक चली गईं. और राहुल ने किया क्या था ? भारत के प्रधानमंत्री को सिर्फ गले ही तो लगाया था !

इन प्रतिक्रियाओं ने मुझे बॉलीवुड के उस मशहूर डायलॉग की याद दिला दी : वाह भाई, जब आप किसी को प्यार करें तो वो इश्क और हम करें तो सेक्स !!
0

मोदी, वाजपेयी के रास्ते पर चलकर यॉर्कर को दूसरी दिशा दे सकते थे

मुझे भरोसा था कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी बारी आने पर वाजपेयी की तरह खेलेंगे और राहुल की यॉर्कर को बड़ी आसानी से डीप फाइन लेग की तरफ मोड़ देंगे. इसके बाद वो मोहक मुस्कान बिखेरते हुए गैलरी की तरफ हाथ हिलाएंगे. (मैं फुटबॉल और क्रिकेट की शब्दावली का घालमेल कर रहा हूं, लेकिन कोई बात नहीं, जंग और राजनीति में सबकुछ जायज है.) वो बड़ी आसानी से कुछ ऐसी बात कह सकते थे - "अभी तक तो मैंने केवल उनके बारे में सुना ही था, पर आज मुन्नाभाई से यहां मुलाकात हो ही गई. अरे भाई, जादू की झप्पी तो ठीक है, लेकिन जरा पढ़-लिखकर MBBS पास तो कर लो पहले."

लेकिन ऐसा करने की बजाय मोदी ने सरेआम मजाक उड़ाने वाले अंदाज में राहुल पर तीखा हमला बोल दिया. उन्होंने राहुल की नकल उतारी और उनके “झप्पी के अनुरोध” को “उम्र के कच्चे और अनुभवहीन दौर में प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने के बेशर्मी भरे लालच” के तौर पर पेश किया.
2019 के चुनावी इंडिया कप का पहला मैच शुक्रवार 20 जुलाई 2018 को संसद की पिच पर खेला गया.

इसके बाद उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार की बेलगाम निंदा शुरू कर दी. उन्होंने सोनिया गांधी को "अहंकारी" कहा और फिर दशकों पुराने इतिहास में जाकर (जो एक परेशानहाल नेता का आखिरी सहारा होता है), ये दावा करने लगे कि कांग्रेस ने किस तरह सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, जेपी, चरण सिंह, चंद्रशेखर, प्रणब और पवार जैसे नेताओं को "धोखा" दिया है.

इस तरह, मोदी ने अपना सबसे पसंदीदा और प्रभावशाली कार्ड खेल दिया. और वो ये कि अगर मैं जीत नहीं सकता तो पोलराइजेशन यानी ध्रुवीकरण शुरू कर दूंगा. फर्क सिर्फ ये था कि इस बार ये ध्रुवीकरण ज्यादा बराबरी वाला था. हेडलाइंस में ये 50-50 रहा, क्योंकि राहुल गांधी ने भी बड़े साहसिक अंदाज में हमला करके गोल दाग दिया था. यानी, मैच में अब भी जान बाकी है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

गणित भी बताता है कि मैच ड्रॉ रहा

अगर मैं AIADMK के उन सांसदों को अलग कर दूं जो अचानक सरकार के पक्ष में आ गए (जयललिता के निधन के बाद से इन सांसदों की दरअसल कोई तय दिशा नहीं रह गई है और वो किसी भी शिकारी के लिए आसान शिकार हो सकते हैं - इसलिए मैं उन्हें राजनीतिक तौर पर एनडीए का हिस्सा नहीं मान रहा), तो मोदी ने जिन सांसदों का समर्थन खो दिया है, उनकी संख्या 50 से कुछ ही कम है. (2014 में 336 से घटकर ये संख्या अब 290 हो गई है). जबकि यूपीए/कांग्रेस को 65 नए सांसदों का साथ मिला है, जिससे उनकी ताकत दुगने से ज्यादा हो गई है. (2014 में 60 से बढ़कर अब 126).

राज्यों की बात करें तो मोदी को आंध्र प्रदेश (टीडीपी) और महाराष्ट्र (शिवसेना) में एनडीए की दो सबसे पुरानी/संस्थापक पार्टियों के साथ छोड़ने का नुकसान उठाना पड़ रहा है. जबकि यूपीए/कांग्रेस को समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों समेत कई नए सहयोगी मिले हैं.

साफ है कि इस नजरिए से देखें तो यूपीए/कांग्रेस ज्यादा फायदे में है, लेकिन कुल संख्या के लिहाज से एनडीए/मोदी की जबरदस्त ताकत को देखते हुए मैं इसे सिर्फ एक ड्रॉ ही कहूंगा.

2019 के चुनावी इंडिया कप का पहला मैच शुक्रवार 20 जुलाई 2018 को संसद की पिच पर खेला गया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

2019 में कैसा रहेगा दोनों का मुकाबला ?

और आइए अब देखते हैं कि आखिरकार अविश्वास प्रस्ताव खारिज हो जाने के बाद, 2019 के आम चुनाव के लिहाज से दोनों पक्षों में कौन कहां खड़ा है?

जैसा कि मैं बार-बार कहता रहा हूं, कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल गांधी एक होनहार राजनेता के रूप में उभर रहे हैं :

  • उन्होंने गुजरात में एक जोश से भरे प्रचार अभियान का नेतृत्व किया, मोदी और शाह को उनके गढ़ में चुनौती देने की हिम्मत दिखाई. इतना ही नहीं, वो एक चौंकाने वाली जीत दर्ज करने के बेहद करीब तक जा पहुंचे.
  • इसके बाद उन्होंने चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का राजनीतिक जोखिम से भरा फैसला किया. उनके इस कदम ने सुप्रीम कोर्ट को जनता की कड़ी निगरानी में ला दिया, जिससे कोई गलत कदम उठाए जाने का खतरा दूर हो गया.
  • कर्नाटक में उन्होंने दिखा दिया कि वो मौके को भांपकर तेजी से समझौता करने की कला सीख चुके हैं. अपने से छोटे सहयोगी दल को सरकार का नेतृत्व सौंपने के फैसले में आपको हताशा नजर आ सकती है, लेकिन थोड़े धैर्य से विश्लेषण करने पर समझ आएगा कि दरअसल ये एक रणनीतिक फैसला था, जिसका मकसद था 2019 के अंतिम मुकाबले के लिए ज्यादा समर्थन जुटाना. भले ही उसके लिए अभी दो कदम पीछे ही क्यों न हटना पड़े. यही वजह है कि मैं इसे एक समझदारी भरी चाल कहूंगा.
  • उन्होंने अपनी टॉप लीडरशिप में अहम बदलाव किए हैं. कुछ बड़े नामों को हटा दिया है, लेकिन कई और पुराने चेहरे अब भी कायम हैं, ताकि निरंतरता बनी रहे. साथ ही उन्होंने कई नई प्रतिभाओं को शामिल भी किया है.
  • और अंत में, संसद के भीतर अपनी साहसिक और अप्रत्याशित झप्पी के जरिए उन्होंने राजनीतिक मंचों पर हमेशा हावी रहने वाले मोदी की मौजूदगी में ही मुशायरा लूट लिया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

जहां तक प्रधानमंत्री मोदी का सवाल है, ऐसा लगता है वो अपने ईको चैंबर में और गहरे धंस गए हैं. उनके पास अपने उन नाराज/निराश लिबरल समर्थकों का दिल फिर से जीतने का बड़ा मौका था, जिन्होंने 2014 में उनका साथ दिया था. (वो 5 फीसदी वोटर जिन्होंने बीजेपी के 26 फीसदी के ठोस आधार में इजाफा करके उसे 31 फीसदी तक पहुंचाया था). लेकिन उन्होंने बड़ी बेरुखी से उनकी अनदेखी कर दी.

  • वो दलितों और मुसलमानों की मॉब लिंचिंग को पूरी तरह खत्म करने का संकल्प ले सकते थे.
  • वो दुष्ट और शातिर ट्रोल्स को सोशल मीडिया पर अनफॉलो कर सकते थे.
  • वो सरकार के निर्दोष नागरिकों पर लगातार, बेवजह और हर क्षेत्र में निगरानी रखने वाले ढांचे को खत्म करने का कमिटमेंट कर सकते थे.
  • वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर देशद्रोह का आरोप लगाने पर अफसोस जाहिर कर सकते थे.
  • वो घोषित कर सकते थे कि शादी के दायरे में होने वाले रेप भी उतने ही गलत हैं, जितने कि तीन तलाक.

कितनी ही चीजें हैं जो वो कर सकते थे, लेकिन चुप्पी उनकी आड़े आ गई ! इन बातों की बजाय उनका पूरा जोर सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार को दुष्ट और गलत साबित करने पर था.
इसके अलावा अपनी सरकार की सफलता गिनाने के लिए वो उन्हीं आंकड़ों को उबकाई आने की हद तक बार-बार दोहराते रहे, जिन्हें कई बार बड़े ठोस ढंग से चुनौती दी जा चुकी है.

तो कुल मिलाकर हालात ऐसे हो चले हैं कि ड्रॉ हो चुके मैच से पेनल्टी शूटआउट की तरफ बढ़ने के दौरान मैं अपना सिर ऊंचा करके एक भविष्यवाणी करना चाहूंगा :
2019 की बाजी में हालांकि प्रधानमंत्री मोदी अब तक आगे हैं, लेकिन उन्हें चुनौती देने वाले बड़ी तेजी से करीब आते जा रहे हैं. और राजनीति में 40 हफ्ते का वक्त बहुत लंबा होता है !

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×