महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के चीफ राज ठाकरे ने अपने बिंदास स्टाइल में 2019 लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों से मिलकर लड़ने की अपील की, ताकि भारत ‘मोदी-मुक्त’ हो सके और देश तीसरी बार आजादी मिलने का जश्न मना सके. उनके मुताबिक 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद दूसरी बार आजादी 1977 में मिली थी. मुंबई के शिवाजी पार्क में रविवार को हुई रैली में उन्होंने यह बात कही.
मोदी-मुक्त भारत का नारा
पिछले कुछ महीनों में कुछ हलकों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना तेज हुई है, लेकिन अभी तक किसी नेता ने ‘मोदी-मुक्त भारत’ की अपील नहीं की थी. दरअसल, मोदी ने 2014 लोकसभा चुनाव में ‘कांग्रेस-मुक्त’ का नारा दिया था, राज ठाकरे ने उसे पलट दिया है. उनकी अपील आने वाले महीनों में विपक्षी दलों के साथ आने का आधार बन सकती है.
रविवार की रैली से एक दिन पहले राज ठाकरे ने एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार के साथ 40 मिनट की मीटिंग की थी. कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे पवार किसी भी राजनीतिक मौके को मीलों दूर से सूंघ लेते हैं. उन्हें अभी यह मौका ठाकरे में नजर आ रहा है.
राज ठाकरे-पवार की दोस्ती
दिलचस्प बात यह है कि कभी पवार ने राज ठाकरे को ‘देर से उठने वाला, पार्ट टाइम पॉलिटिशियन बताया था.’ पवार ने कहा था कि ठाकरे कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते. हालांकि, पिछले महीने उन्होंने ठाकरे के प्रति नरम रुख का संकेत दिया था, जब वह पुणे में एमएनएस चीफ को लाइव इंटरव्यू देने के लिए तैयार हुए थे. इससे राजनीति की दुनिया के लोगों को हैरानी हुई थी.
पवार को अपना गुरु बता चुके हैं मोदी
ठाकरे और पवार, दोनों का ‘मोदी-मुक्त भारत’ के बारे में बात करना मायने रखता है, क्योंकि हाल तक दोनों के प्रधानमंत्री के साथ अच्छे रिश्ते थे. 2015 में पवार ने बारामती में प्रधानमंत्री की मेहमान-नवाजी की थी और मोदी ने उन्हें अपना गुरु बताया था.
2011-12 में राज ठाकरे कहते थे कि गुजरात की तरह विकसित देश का कोई राज्य नहीं है. इसका श्रेय उन्होंने मोदी को दिया था, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. मोदी ने उस समय ठाकरे की आवभगत की थी और उन्हें गुजरात भ्रमण कराया था. 2014 लोकसभा चुनाव में भी ठाकरे ने मोदी का समर्थन किया था. अब लगता है कि मोदी के प्रति ठाकरे की वह मोहब्बत खत्म हो गई है.
केंद्र सरकार के प्रति बढ़ी नाराजगी
आज देश का मिजाज भी बदला हुआ है. मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है. सरकार के दरबारी चरित्र और कुछ कॉरपोरेट्स के प्रति उसके प्रेम को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं. कई क्षेत्रीय नेताओं और कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है. मोदी-शाह के खिलाफ 2019 में विपक्षी दल मिलकर लड़ने की बात कर रहे हैं. ऐसे में राज्य स्तर पर उनके बीच गठबंधन की अहमियत काफी बढ़ गई है.
मोदी विरोधी गठबंधन की धुरी बनना चाहते हैं पवार
पवार विपक्षी दलों के अलायंस की पहल करना चाहते हैं या उन्हें खुद के विपक्ष को एकजुट करने की धुरी बनने की उम्मीद है. इसके लिए पवार को खुद को महाराष्ट्र का सबसे बड़ा नेता साबित करना होगा. उन्हें ठाकरे जैसे युवा और महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच यह बात साबित करनी होगी, लेकिन क्या पवार के पास इसके लिए राजनीतिक ताकत है? एनसीपी के 19 साल के इतिहास में लोकसभा में उसे सबसे अधिक 9 सीटें 2004 में मिली थीं.
महाराष्ट्र में 48 संसदीय क्षेत्र हैं. 1999 में उसे 6, 2009 में 8 और 2014 में 4 सीटें मिली थीं. विधानसभा चुनाव में भी एनसीपी कभी भी कांग्रेस से आगे नहीं निकल पाई, इसलिए एनसीपी-कांग्रेस की जितनी भी सरकारें बनीं, उनमें मुख्यमंत्री पद कांग्रेस को मिला. लेकिन एनसीपी के पास शुगर और मिल्क को-ऑपरेटिव्स के जरिये आर्थिक ताकत है और जमीनी स्तर पर भी पार्टी मजबूत है. खासतौर पर पश्चिम महाराष्ट्र पर एनसीपी की अच्छी पकड़ है. राज्य के शहरों में उसका प्रभाव कम है. ठाकरे के साथ मिलकर पवार शहरों में प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं.
MNS-NCP के साथ आने से दोनों को फायदा होगा
मुंबई-ठाणे-पुणे-नासिक के अर्बन बेल्ट में ठाकरे मजबूत हैं. एमएनएस ने 2009 लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इस इलाके में 4-6 पर्सेंट वोट हासिल किए थे. इस क्षेत्र में ठाकरे की पार्टी ने तब 13 विधानसभा सीटें जीती थीं. उसके बाद नासिक म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में एमएनएस ने बहुमत हासिल किया और ठाणे व कल्याण-डोंबिवली में भी उसका प्रदर्शन अच्छा रहा.
2014 में जब मोदी के प्रति ठाकरे की मोहब्बत पीक पर थी, तब उनकी पार्टी का वोट शेयर लोकसभा चुनाव में घटकर 1.4 पर्सेंट रह गया था. इसके 6 महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में यह बढ़कर 3 पर्सेंट पहुंचा, लेकिन 288 सीटों वाली विधानसभा में एमएनएस को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली.
अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह युवाओं के बीच ठाकरे की छवि अच्छी है. इधर उन्होंने गुजरातियों को निशाना बनाना शुरू किया है. रविवार की रैली में उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र देश की आर्थिक राजधानी है, फिर मोदी का पीएमओ अहमदाबाद को प्रायरिटी क्यों दे रहा है?
ठाकरे की दिलचस्पी ग्रामीण मुद्दों में नहीं है. अगर पवार और ठाकरे के बीच गठबंधन बनता है या चुनावी तालमेल होता है, तो इससे दोनों को फायदा हो सकता है. मुंबई-ठाणे-पुणे-नासिक के अर्बन बेल्ट में पवार का प्रभाव बढ़ेगा और एमएनएस को अपनी सीख बनाए रखने में मदद मिलेगी. अगर ठाकरे की पार्टी 2009 की तरह मराठी वोटों को बंटवारा कर पाई तो उससे शिवसेना का गणित बिगड़ सकता है.
2014 के बाद से शिवसेना अपने ही बनाए दलदल में फंसी है. एग्रेसिव बीजेपी ने अपने अलायंस पार्टनर शिवसेना को साइड लाइन कर रखा है. इसलिए शिवसेना सरकार में रहते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का विरोध करती आई है. इसका भी राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है और राज ठाकरे ने शिवसेना प्रमुख और अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे से दोस्ती के संकेत दिए हैं.
क्या कांग्रेस बीजेपी-विरोधी अलायंस में शामिल होगी?
क्या कांग्रेस इन पार्टियों के साथ जाएगी? अगर पवार किसी अलायंस को लीड करते हैं तो कांग्रेस उसे शक की नजर से देखेगी, भले ही हाल में दिल्ली में राहुल गांधी और पवार की मुलाकात हुई थी. कांग्रेस 2019 चुनाव के लिए एकजुट विपक्ष तो चाहती है, लेकिन उसका नेतृत्व वह खुद करने का इरादा रखती है. उसका प्रदर्शन महाराष्ट्र में हमेशा एनसीपी से अच्छा रहा है, इसलिए वह संभावित गठबंधन का नेतृत्व करना चाहेगी. पिछले कुछ महीनों में वह छोटे दलित ग्रुप और राजू शेट्टी की स्वाभिमानी शेतकारी संगठन को साथ लाने में सफल रही है,
राज पर कांग्रेस को हो सकता है ऐतराज
लेकिन कांग्रेस राज ठाकरे के साथ नहीं जाना चाहेगी. एमएनएस के कार्यकर्ताओं ने पिछले साल हॉकर विरोधी आंदोलन के दौरान कांग्रेस के ऑफिस को निशाना बनाया था. ठाकरे के उत्तर भारतीयों के विरोध को देखते हुए भी कांग्रेस का एमएनएस के साथ जाना मुश्किल है. पार्टी के एक महासचिव ने हाल ही में कहा था, ‘महाराष्ट्र में ठाकरे के साथ खड़े होकर हम यूपी और बिहार में कैसे वोट मांगेंगे?’
महाराष्ट्र में बीजेपी-विरोधी अलायंस के लिए इसके साथ कई दूसरे मुद्दे सुलझाने होंगे. पवार ने खुद को इस संभावित अलायंस के केंद्र में रखा है. राज ठाकरे को साथ लाना, दिल्ली में अपने आवास पर 27 मार्च को गैर-बीजेपी पार्टियों के लिए डिनर पार्टी का आयोजन भी 2019 में भारत को मोदी-मुक्त करने की उनकी रणनीति का हिस्सा है.
(स्मृति कोप्पिकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और मुंबई में रहती हैं. वो राजनीति, शहरी जिंदगी और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार लिखती रही हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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