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ओपिनियन: किस काम की राज्यसभा और विधान परिषदें?

राज्यसभा और विधान परिषदों के होने पर अब एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.

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भारतीय लोकतंत्र को 67 साल हो गए हैं. इन बरसों में लोकतंत्र का तमाम तरह के अनुभवों से साक्षात्कार हुआ है. इनमें से कई अनुभव राज्यसभा और विधान परिषदों को लेकर भी हैं. इन संस्थाओं की उपयोगिता और इनकी संरचना इस समय फिर से चर्चा में है, क्योंकि यह राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव का समय है. इसके अलावा कुछ राज्यों में विधान परिषद के चुनाव भी हुए हैं या हो रहे हैं.

भारतीय संविधान में विधायिका यानी कानून बनाने वाली संस्था के बारे में यह वर्णित है कि संसद में दो सदन होंगे. पहले सदन में प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा चुनकर आएंगे. इसे लोकसभा कहा गया है. दूसरे सदन के प्रतिनिधियों का चुनाव राज्य विधानसभाओं के सदस्य करेंगे. इसके अलावा दूसरे सदन में 12 मनोनीत सदस्य भी होंगे. यह राज्यसभा है.

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कुछ राज्यों में विधानसभाओं के साथ विधान परिषदें भी हैं. विधानसभा में प्रतिनिधि जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं, जबकि विधान परिषद के प्रतिनिधि अप्रत्यक्ष विधि से चुने जाते हैं. मसलन, उनमें से कुछ का चुनाव विधानसभा के सदस्य करते हैं. कुछ स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं. कुछ का चुनाव स्नातक करते हैं तो कुछ का शिक्षक. इसके अलावा मनोनीत सदस्य भी होते हैं.

लोकसभा और विधानसभाओं को कानून बनाने के मामले में ज्यादा अधिकार हैं. खासकर वित्त विधेयकों के मामले में राज्यसभा और विधान परिषद काफी हद तक अधिकार विहीन संस्थाएं हैं. वित्त विधेयक यहां पेश नहीं किए जा सकते. लेकिन वित्त के अलावा अन्य कानूनों के निर्माण में राज्यसभा और विधान परिषदों को भी अधिकार है.

विशिष्ट स्थितियों में राज्यसभा और विधान परिषद कानूनों को पारित होने से कुछ समय तक रोक सकती हैं और गतिरोध की स्थिति में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का भी प्रावधान है. इसके अलावा किसी सरकार का बनना और बने रहना लोकसभा और विधानसभाओं में बहुमत पर निर्भर होता है. इसमें राज्यसभा या विधान परिषद की भूमिका नहीं है.

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जब 2014 में राज्यसभा में NDA को नहीं था बहुमत!

राज्यसभा और विधान परिषदों के होने पर अब एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के पास पहले राज्यसभा में नहीं था बहुमत
(फोटो: राज्यसभा टीवी)

2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, तब राज्यसभा में बीजेपी और एनडीए को बहुमत नहीं था. यह स्थिति अभी तक चली आ रही है. इस वजह से यह कहा जाता रहा कि सरकार कानून बनाने के क्षेत्र में उन कदमों को नहीं उठा पाई, जिनके लिए राज्यसभा सहमत नहीं थी. हालांकि सरकार मोटे तौर पर वह सब कुछ कर पाई है, जिसके लिए उसकी इच्छाशक्ति थी. क्योंकि अभी तक दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाकर किसी बिल को पारित करने की नौबत नहीं आई है. सरकार जब चाहेगी, तो इस रास्ते से कोई भी कानून पारित करा लेगी और ऐसी स्थिति में राज्यसभा में उसके पक्ष में बहुमत का होना या न होना कोई मायने नहीं रखेगा, क्योंकि संयुक्त बैठक की स्थिति में बहुमत सरकार के पक्ष में है.

फिर भी यह माना जाता है कि एक और सदन के होने से सरकार पर अंकुश रहता है और सत्ता पक्ष के बेलगाम हो जाने का खतरा कम होता है. अगर राज्यसभा और विधान परिषदें यह भूमिका निभाए, तो ही उसकी सार्थकता है. लेकिन ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है.

खासकर राज्यसभा का प्रावधान एक ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है. 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में हाउस ऑफ स्टेट का प्रावधान इसलिए किया गया था, ताकि देसी रियासतों के प्रतिनिधियों को राजकाज में शामिल किया जाए.

राज्यसभा क्यों है?

आजादी के बाद, इसका कोई मतलब नहीं था, लेकिन फिर भी परंपरा के तहत राज्यसभा बनाई गई. इसका मकसद यह था कि राज्यों की आवाज संसद में हर हाल में मौजूद रहे. इसकी जरूरत इसलिए भी थी कि लोकसभा चुनाव में देश के किसी भी हिस्से का नागरिक कहीं भी चुनाव लड़ सकता है. राज्यसभा में चुने जाने के लिए उस राज्य का निवासी होना जरूरी है. लेकिन इस प्रावधान को इतनी बार तोड़ा गया है कि राज्यसभा को राज्यों के प्रतिनिधियों की सभा कहने का कोई मतलब ही नहीं है.

मिसाल के तौर पर, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम में एक मकान खरीदकर खुद को असम का निवासी साबित कर दिया और राज्यसभा में चुने जाते रहे. ऐसी स्थिति में राज्यसभा क्यों है, यह सवाल पूछा जाना चाहिए.

राज्यसभा और विधान परिषदों के होने पर अब एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.
मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा में चुने जाते रहे
(फोटो: PTI)
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सैद्धांतिक तरीके से राज्यसभा की उपयोगिता साबित करना मुश्किल नहीं है. इसके लिए कई तर्क दिए जा सकते हैं. लेकिन हकीकत यही है कि जो नेता लोकसभा में चुनकर नहीं आ सकते या चुनाव में नहीं उतरना चाहते, राज्ससभा उनके लिए संसद में पहुंचने का चोर दरवाजा है. इसका एक और इस्तेमाल उद्योगपतियों ने करना शुरू किया.

एक समय तक उद्योगपति राजनीति को अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभावित करते थे. वे राजनीतिक दलों और नेताओं को फंड करते थे और बदले में राजनीतिक लाभ उठाते थे. लेकिन फिर उन्हें लगा कि उनको खुद भी संसद में होना चाहिए. इसके बाद उद्योगपतियों का राज्य सभा में पहुंचने का सिलसिला चल पड़ा. वे राजनीतिक दलों को चुनाव में मदद करने की कीमत राज्य सभा सदस्यता के रूप में वसूलने लगे. इसके लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त होना एक ऐसा रहस्य है, जिसके बारे में हर कोई जानता है.

यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख क्षेत्र बन चुका है. कई वकील भी राज्यसभा में इसलिए पहुंच जाते हैं, क्योंकि वे नेताओं का केस लड़ रहे हैं और राज्यसभा की सदस्यता एक तरह से उनकी फीस है.

राज्यसभा और विधान परिषदों में आरक्षण नहीं

राज्यसभा और विधान परिषदों के होने पर अब एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.
राज्यसभा में चुने जाने के लिए उस राज्य का निवासी होना जरूरी है
(फोटो: PTI)

राज्यसभा और विधान परिषदों में आरक्षण भी नहीं है. इसलिए इन सदनों में दलितों और आदिवासियों की उपस्थिति लगभग नगण्य है. जैसे बिहार से राज्य सभा में इस समय एक भी दलित सांसद नहीं है. यह स्थिति कई राज्यों की है. राज्य सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व भी बेहद कम है.

भारत की सामाजिक संरचना में आ रहे बदलावों और नीचे की जातियों के उभार को राज्यसभा और विधान परिषदें पूरी तरह रोक देती हैं. इस मायने में राज्यसभा और विधान परिषद को उच्च सदन कहना सही भी है, क्योंकि संख्यात्मक दृष्टि से ये उच्च जातियों और वर्गों का यानी सवर्णों का और अमीर लोगों का सदन है. भारतीय समाज और लोकतंत्र की विविधता यहां नदारद है.

विधान परिषदों की संरचना तो और भी अजीब है. बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य और साहित्यकार चिंतक प्रेम कुमार मणि इस स्थिति की रोचक तरीके से व्याख्या करते हैं. एक व्यक्ति वोटर होने के नाते कई तरीके से अपना प्रतिनिधि विधान परिषद में भेज सकता है.

मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति मतदाता होने के नाते विधान सभा में अपना प्रतिनिधि भेजता है, जो विधान परिषद के चुनाव में वोटर होता है. अगर वह मतदाता ग्रेजुएट है, तो वह विधान परिषद की ग्रेजुएट सीटों के लिए वोटर है. अगर वह साथ में शिक्षक है, तो वह विधान परिषद के लिए तीसरी बार अपना प्रतिनिधि चुनेगा. इसके अलावा स्थानीय निकाय में भी वह प्रतिनिधि चुनता है, जो विधान परिषद के चुनाव में वोटर होता है.

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एक ग्रेजुएट को सदन में सदस्य चुनने का अधिकार क्यों?

सवाल उठता है कि एक ग्रेजुएट या एक शिक्षक को सदन में सदस्य चुनने का विशेषाधिकार क्यों है? क्या एक मैट्रिक पास व्यक्ति या एक डॉक्टर या बढ़ई या पेंटर उससे कमतर नागरिक है? शिक्षा प्राप्त करने या किसी खास नौकरी को करने का सामाजिक संदर्भ भी होता है. किसी व्यक्ति का ग्रेजुएट होना उसकी आर्थिक-सामाजिक स्थितियों पर भी निर्भर है. ऐसे तमाम विभेदों को भारतीय लोकतंत्र में नकार दिया गया और हर वयस्क नागरिक को एक वोटर माना गया है और उसके वोट का मूल्य समान है. लेकिन विधान परिषद के चुनाव में इस सिद्धांत को खारिज कर दिया गया है. इस मायने में विधान परिषद और राज्य सभा अलोकतांत्रिक संस्थाएं हैं.

लोकसभा और विधानसभा के किसी सदस्य को एक वोटर चुनाव में खिलाफ वोट देकर हरा सकता है. लेकिन राज्यसभा और विधान परिषद के सदस्य के मामले में उसे इसका कोई अधिकार नहीं है. आम जनता राज्यसभा और विधान परिषद के सदस्य को हरा नहीं सकती क्योंकि उसने उसे चुना ही नहीं है.

राज्यसभा और विधान परिषदों के होने पर अब एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए. यह देखा जाना चाहिए कि जिन देशों में राज्य सभा जैसी संस्था नहीं है, क्यों वहां लोकतंत्र कमजोर है. ऐसे ही जिन राज्यों में विधान परिषद नहीं है (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के अलावा बाकी राज्यों में विधान परिषद नहीं है) क्या वे उन राज्यों में कानून निर्माण की प्रक्रिया का स्तर नीचा है?

अगर इन कसौटियों पर राज्य सभा और विधान परिषदें अपना औचत्य साबित नहीं कर पाती हैं और अपनी उपयोगिता साबित नहीं कर पाती हैं, तो उन्हें समाप्त करने पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि ये संस्थाएं न सिर्फ अलोकतांत्रिक है, बल्कि इनसे राजनीतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)

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