अयोध्या की फिजाओं में इस वक्त मंत्रों की आवाज गूंजने के साथ भगवा रंग के झंडे लहरा रहे हैं. लंबे समय से चले आ रहे विवाद की धुंध के बीच राम मंदिर उभरता दिख रहा है, इसकी चमचमाती गुंबदें मानों जैसे किसी वादे के पूरा होने की गवाही दे रही हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ये सिर्फ ईंट और गारे से बनी इमारत नहीं बल्कि ये उनकी वैचारिक जीत है. इसे उनका राज्याभिषेक भी कहा जा सकता है. इस एक वार से मोदी खुद को हिंदुत्व का सबसे बड़ा नाम बनाने की दिशा में काफी आगे बढ़ गए हैं.
सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक नजरिए से देखें तो कुछ सवाल अब भी कायम हैं: राम मंदिर न्याय और विजय का प्रतीक है, या यह भारत के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए अन्याय और न्याय के टूटे हुए सपनों का प्रतिनिधित्व करता है?
हालांकि, बीजेपी के लिए, ये एक राजनीतिक जीत का प्रतीक है. इसे मिशन 2024 भी कहा जा सकता है. बीजेपी ने भले ही पहले भी ध्रुवीकरण और धार्मिक भावनाओं की राजनीति की हो पर मोदी ने इसे हथियार बना लिया है.
हिंदुत्व का आह्वान अब देखते ही देखते विकास की राजनीति के केंद्र में आकर खड़ा हो गया है. इस दिशा में चलाए गए पिछले अभियान बैकग्राउंड में फीके पड़ते दिख रहे हैं. चुनावी रंगमंच को अगर कुछ देर के लिए अलग भी रख दें, तो 22 जनवरी का राम मंदिर का उद्घाटन देश के सांस्कृतिक परिवेश में एक बड़ा बदलाव है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) लंबे समय से हिंदू पहचान से जुड़े अपने लक्ष्य पर जोर देता आया है, जो मोदी का हिंदुत्व का नेतृत्व है. "हिंदू राष्ट्र" का यह दृष्टि सामाजिक गतिशीलता को फिर से लिखने, अधिकारों को फिर से परिभाषित करने और राष्ट्र के तौर पर हमारे आगे के रास्तों को पूरी तरह नया आकार देने की क्षमता रखता है.
2024 चुनाव के पहले बजाया गया रणनीतिक राजनीतिक बिगुल
राम मंदिर का उद्घाटन और इसके लिए चुना गया समय कहीं ना कहीं 2024 के लोकसभा चुनाव की शुरुआत है.
आगामी चुनाव नरेंद्र मोदी के ऐतिहासिक तीसरे कार्यकाल के लिए की जा रही कोशिशों का प्रतीक है, जो ऐतिहासिक क्षण हो सकता है. 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के तालमेल से चल रही बीजेपी के रणनीतिक कौशल को रेखांकित करेगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भुनाते हुए मोदी ने तेजी के साथ कानूनी, सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक मशीनरी का उपयोग मंदिर को साकार करने में किया. इस जीत ने ना सिर्फ बीजेपी के स्टैंड को मजबूत किया है बल्कि उसकी राजनीतिक साख को कहीं ऊपर उठा दिया है. ये बीजेपी के राजनीतिक सफर का एक यादगार और महत्वपूर्ण अध्याय बन गया है.
बड़ा होता मोदी का राजनीति कैनवास
हिंदुत्व की गूंज के बीच हुई राम मंदिर निर्माण की शुरुआत से अब विमर्श पूरी तरह से मोदी को हिंदुत्व के नेता के रूप में देखने की तरफ चला गया है.
बीजेपी के नेतृत्व का इतिहास उठाकर अगर देखें तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, भगवा पार्टी कहे जाने वाले इस राजनीतिक दल के चेहरे के रूप में उभरे थे. पर उनकी छवि कहीं न कहीं भारत के हिंदुत्व का पर्याय नहीं बनी थी. नरेंद्र मोदी ने वो मुकाम हासिल कर लिया है.
हिंदुत्व को लेकर बीजेपी का साफ नजरिया इस महत्व को बढ़ाता है. इससे संकेत मिलता है कि 2024 के आम चुनावों में हिंदुत्व और ध्रुवीकरण की राजनीति को केंद्र में लाने की कोशिश होगी. राम मंदिर का मुद्दा राजनीतिक विमर्श पर हावी होने के लिए तैयार है, जो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की कहानी आगे बढ़ा रहा है. अब लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए विपक्ष इसका मुकाबला करने के लिए किस तरह की रणनीति बनाता है, यह देखने वाली बात होगी.
बदलते सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिमान
राम मंदिर का उद्घाटन धार्मिक उत्सवों से इतर सामाजिक-राजनीतिक भूचाल का भी संकेत दे रहा है. मोदी की हिंदुत्व वाली लीडरशिप मंदिर को सिर्फ मंदिर नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र के प्रतीक के तौर पर देख रही है.
पर गौर करने वाली बात ये है कि ये सांस्कृतिक पुनरुत्थान सामाजिक क्षेत्रों में नए सवाल खड़े कर रहा है. भारत के इतिहास में तुलनात्मक रूप से देखें तो मंदिर उद्घाटन को लेकर इस तरह के देशव्यापी उत्सव काफी कम रहे हैं. यही वजह है कि ये मौका भारत की विविधतापूर्ण, बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष छवि को उजागर करने वाले बदलाव की आशंकाओं को जगा रहा है.
बीजेपी और आरएसएस द्वारा संवैधानिक परिदृश्य को बदलने के लिए अपने "अजेय अधिकार" का इस्तेमाल करने, संभावित रूप से "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को मिटाने के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं. एक नाजुक मोड़ पर खड़े भारत का भविष्य अधर में लटका दिख रहा है.
ये वक्त ठहरकर सतर्क होने का है, क्योंकि राम मंदिर का मुद्दा सिर्फ ईंटों से बनी एक इमारत का मामला नहीं ; यह देश की नियति को आकार देने वाली वैचारिक वास्तुकला और इसके लोकतांत्रिक आदर्शों के संभावित क्षरण के बारे में है.
विपक्ष का अयोध्या मुद्दे से मुंह मोड़ लेना
विपक्षी दलों की तरफ देखें, तो वहां से विरोध या असहमति की कोई आवाज नहीं, बल्कि एक शांति है. एक तरफ जहां अयोध्या में भगवा झंडों के बीच लगते नारों का शोर है, उसी दौरान विपक्षी दलों ने शांत रहना चुना है.
एक सैद्धांतिक रास्ते के रूप में ये एक वापसी है. खुद को दिए गए इस घाव ने पीएम मोदी को राम मंदिर के स्वर्ण गुंबद से भी कहीं ज्यादा भव्य जीत दिलाई है. एक बात तो अब स्पष्ट है, कोई भी भारतीय राजनीतिक दल धार्मिक प्रचार-प्रसार से अछूता नहीं है. कांग्रेस ने इसमें हाथ आजमाया और क्षेत्रीय दलों ने इसका आनंद उठाया.
लेकिन ग्रैंडमास्टर रहे मोदी ने इस ड्रामा को स्टेज को ही अब एक जाल में तब्दील कर दिया है. उन्होंने अयोध्या का निमंत्रण देकर विपक्ष को अपनी कलई खोलने पर मजबूर कर दिया. अब या तो समारोह का बहिष्कार करें, हिंदू मतदाताओं के विमुख होने का जोखिम उठाएं, या फिर इसमें शामिल हों और आस्था के राजनीतिक हनन में सहभागी करार दिए जाएं.
विपक्ष ने आसान रास्ता चुना- पीछे हटना. लेकिन अयोध्या की प्रतीकात्मक रणभूमि से हटकर उन्होंने काफी कुछ खाली छोड़ दिया है. मोदी विजेता के मंच पर अकेले खड़े हैं और एक राष्ट्रीय सपने को पूरा करने वाले नेता की निर्विवाद कथा का आनंद ले रहे हैं.
क्या इसका मतलब यह है कि विपक्ष पूरी तरह से बर्बाद हो गया है? ये जरूरी नहीं है, लेकिन 2024 तक का उनका रास्ता अब उनके खुद के खोदे हुए कुएं से होकर गुजरता है. अब विपक्ष को मोदी की भगवा दृष्टि का एक सम्मोहक विकल्प पेश करना होगा. यही नहीं, एक बड़ी चुनौती ये भी है कि उन्हें अवसरवादी दिखाई दिए बिना धर्म और पहचान के नाजुक इलाके से गुजरना होगा.
अयोध्या में उनकी चुप्पी केवल पहले से ही निराश लोगों के बीच गूंज सकती है. जीतने के लिए अब विपक्ष को उन लोगों की चिंताओं पर बात करनी होगी, जो हिंदी पट्टी से परे हैं, जहां राम मंदिर का प्रभाव कम है. विपक्ष का अयोध्या त्याग इस बात का बड़ा उदाहरण है कि राजनीति में खेला गया जुआ, चौंकाने वाले नतीजे ला सकता है.
भले ही विपक्ष ने अपनी धर्मनिरपेक्ष साख को बरकरार रखा है, लेकिन उन्होंने मोदी को वह सौंप दिया है, जो वह चाहते थे. अगर अब विपक्ष को फिर से उठना है, तो यह एक नए युद्ध के मैदान पर होगा, एक नई राजनीतिक रणनीति की मांग होगी. समय ही बताएगा कि क्या विपक्ष के पास एकता और उस जमीन को दोबारा हासिल करने की दृष्टि है, जिसे उन्होंने मर्जी से आत्मसमर्पण कर दिया है?
हिंदी पट्टी से इतर राम मंदिर का राजनीतिक प्रभाव
भले ही हिंदी पट्टी में राम मंदिर उद्घाटन की गूंज तेजी के साथ सुनाई दे रही हो. पर जैसे-जैसे आप दूसरे इलाकों की और आगे बढ़ेंगे इसकी गूंज कम होती जाती है. दक्षिण, पूर्व और इस वक्त अशांत तल रहे पूर्वोत्तर में अयोध्या को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं. कहीं मौन, कहीं दुविधा से लेकर स्पष्ट असहमति तक.
काफी कठिन सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे इन इलाकों में मंदिर का प्रतीकवाद कम से कम इस वक्त तो प्रभाव में नहीं है. यहां लोगों की प्राथमिकताएं भगवा झंडे की बजाय आजीविका, भाषा और सांस्कृतिक पहचान के इर्द-गिर्द रहती हैं. इसलिए विपक्ष को हतोत्साहित नहीं होना चाहिए. हालांकि, ये भी एक बड़ा सवाल है कि हिंदी पट्टी से परे समर्थन जुटाने की विपक्ष में कितनी क्षमता है?
भारत का राजनीतिक परिदृश्य अपने पारंपरिक गढ़ों से जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, राम मंदिर का प्रभाव क्षेत्रीय जटिलताओं के सामने कम होता दिखता है. इन इलाकों की जटिलताएं या स्थानीय मुद्दे राम मंदिर के राष्ट्रव्यापी प्रभुत्व को चुनौती देते हैं.
(लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं और एक स्तंभकार हैं. इनसे @sayantan_gh पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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