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रविशंकर यानी सफेद चोला, काला मन, 16 साल पुरानी एक कहानी... 

2001 में मैंने एक कच्ची राय बनाई कि रविशंकर अज्ञानी हैं. अपनी ताजा भूमिका से उन्होंने मेरी राय को पक्का कर दिया है.

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सोचा था कि ये घटना मैं शायद पब्लिक नहीं करूंगा. खबरनवीसी के धंधे में रिपोर्टिंग के दौरान, काफी-कुछ पता लगता है, जो हम देखते, जानते हैं. लेकिन सारा कुछ बताना संभव नहीं होता. जरूरी भी नहीं होता. ये बातें अनौपचारिक होती हैं, कभी ऑफ दि रिकॉर्ड होती हैं. एक ठीक-ठाक पत्रकार बनने की चाहत रखने वाले पत्रकार को इन मर्यादाओं का पालन हर हाल में करना चाहिए.

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लेकिन अयोध्या विवाद सुलझाने में रोल हासिल करने के चक्‍कर में श्रीश्री रविशंकर ने तो हद ही कर दी थी. उन्‍होंने बेहद खतरनाक और डरावनी बातें कह दीं. उन्‍होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला नहीं दिया, तो देश में गृहयुद्ध हो जाएगा. ये धमकी तो है ही, उनकी सफेदपोश इमेज के अनावरण जैसा भी है.

यह अनावृत चेहरा मैंने 2002 में भी देखा था. वही घटना मैं यहां बता रहा हूं. मैं एक टीवी चैनल का संपादक था. देश के एक बड़े मीडिया ग्रुप की स्वामिनी/प्रमोटर की तरफ से एक न्योता आया कि उनके घर रविशंकर से मुलाकात होगी. ये न्योता हमारे एक सीनियर के जरिए आया. 5-6 पत्रकारों के इस ग्रुप के अखबार के संपादक भी थे, हमारे वो सीनियर भी, जिन्होंने मुझे बुलाया था.

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रविशंकर देर से पहुंचे. ये दिन गुजरात के दंगों बाद के थे. आते हुए उन्होंने कहा कि वो तब के गृहमंत्री लालकृष्‍ण आडवाणी जी से मिलने गए थे. कुछ और बातें कहीं- ये जताने के लिए कि वो देश के हालात पर बड़े चिंतित हैं और शांति-सौहार्द बहाल करने के लिए वो बड़ी कोशिश कर रहे हैं. थोड़ी ही देर में उनका ये डायलॉग आया:

वो लोग बड़े कट्टर होते हैं. कुरान में तो लिखा है कि पता नहीं सौ या ऐसा ही कुछ, लोगों को मारकर मुसलमान को गाजी की उपाधि मिल जाती है.
श्रीश्री रविशंकर

उन्होंने ये बात दो बार दोहराई और व्याख्या करते रहे. मैं इस ग्रुप में जूनियर मोस्ट था. देखा कि दूसरे लोग उनकी इस बात पर कोई कमेंट नहीं कर रहे, तो मैंने हिम्मत जुटाकर, शिष्ट भाव से पूछा कि ऐसा कहां लिखा है, आपने खुद पढ़ा है क्या? ये बात गलत है और उनको ऐसा नहीं कहना चाहिए.

रविशंकर थोड़ा चौंके, सहमे और विषय बदलकर आगे बढ़ गए. इस मीटिंग का मूड बदल चुका था. थोड़ी देर में हम वहां से रवाना हो लिए. बाहर निकलकर देश के बड़े इंग्लिश अखबार के संपादक ने कहा कि वो होस्ट थे, इसलिए अपनी असहमति जाहिर नहीं कर पाए, लेकिन मैंने ठीक किया. दूसरे हमारे सीनियर थे, उन्होंने मेरी पीठ ठोकी और कहा कि तुम्हें मैं जींस पहनने वाला लड़का समझता था, लेकिन तुमने बड़ी संजीदगी से रविशंकर की बोलती बंद कर दी, ठीक किया.

मुझे धर्मशास्त्रों का कोई ज्ञान नहीं, लेकिन मैं इतना जानता हूं कि कुरान में ऐसा नहीं लिखा है. ‘गाजी’ शब्द का मतलब है योद्धा, धर्मयोद्धा- जैसे ये भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, वैसे ही गाजी एक अरबी शब्द है.

हमारे जानने वालों में कई लोग थे, जो तब रविशंकर में सौम्यता और सुकून देखते थे. एक रिपोर्टर के रूप में रजनीश से लेकर रविशंकर और स्वामी रामदेव जैसे तमाम लोगों पर मेरी नजर और जिज्ञासा रहती थी.

रविशंकर कभी मेरा ध्यान नहीं खींच पाए. कई दफा उनके संगठन ने मुझे बुलाया, इंटरव्यू के मौके बने, लेकिन मैं नहीं गया. मेरा शुरुआती विचार ये बना कि वो शहरी और संपन्‍न लोगों के गुरु हैं और अगर योग, श्वसन और प्रार्थना सिखाते हैं, तो अच्छा ही है. लेकिन कभी इंटरव्यू करने का ऐसा हुक या ट्रिगर नहीं मिला कि वो मेरा ध्यान खींच पाएं.

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दरअसल बाबाओं का बाजार देखें, तो एक साफ ट्रेंड दिखता है. भारतीय जिंदगी में दुःख-दर्द और डिप्रेशन की कोई कमी नहीं. ऐसे में फील गुड और आस्‍था के बूते ही हम जिंदगी गुजार देते हैं. इस फील गुड की मांग को पूरा करने के लिए अलग-अलग बाबा हैं, जो अलग-अलग सेगमेंट में चलते हैं.

रविशंकर समृद्ध और मिडिल क्लास सेगमेंट वाले हैं. सदगुरु जग्गी वासुदेव लग्‍जरी सेगमेंट वाले हैं. उनसे अलग बाबा रामदेव आम लोगों के, गरीबों के गुरु हैं, जिनसे कम से कम सीधा फायदा मिलता है. वो योग सिखाते हैं. आपके इस्तेमाल की चीजें बेचते हैं, लेकिन पाखंड और अंधविश्वास का विरोध करते हैं.

यहां आसाराम और गुरमीत जैसे जुल्मी और लंपट लोगों की चर्चा तो हम छोड़ ही देते हैं. रविशंकर जैसे लोग अपने को आम लोगों से अलग, देवपुरुष साबित करने में जान लगाए रहते हैं. इसलिए जब पढ़े-लिखे कामयाब लोगों में से कई लोगों को मैं धर्मभीरुता और अंधविश्वास के चक्कर में रविशंकर से प्रभावित होते देखता हूं, तो दुःख होता है.

रविशंकर ऐसी हरकत पर उतर गए कि सोशल मीडिया में सोच-समझकर कमेंट करने वाले कई गंभीर किस्म के लोगों ने भी उनकी कड़ी आलोचना की थी.

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राजनीति के अखाड़े में नेताओं के हाथ में खेलने वाले ऐसे धार्मिक-आध्यात्मिक चोलाधारी कई बार बिन बुलाए ही नेताओं के चारण बन जाते हैं. उनके ढिंढोरची और भाट बनने को आतुर रहते हैं. सत्ता से करीबी और नाम की भूख हमको दिखती नहीं, क्योंकि ऐसे लोग कुछ अलग ढंग के कपड़े पहन लेते हैं, ताकि हम उन्हें आदर दें, चमत्कारी मानें, ताकि उन पर हम तर्क की कसौटी न लगा पाएं, सवाल न पूछ पाएं.

अपने उस इंटरव्यू और बाद में आलोचना होने पर सफाई में वही बात दोहराकर रविशंकर ने गरिमा से गर्त में गिरने का नया रिकॉर्ड बना डाला. सुप्रीम कोर्ट को मैसेज भेजा गया, जनमत का ध्यान रखिए और वैसा ही फैसला दीजिए. रविशंकर उसी धमकी का हिस्सा हैं. मर्सिनरी हैं. समाज में कबीलाई भावना, नफरत और ध्रुवीकरण का चुनावी इस्तेमाल उनको नहीं दिखेगा, क्योंकि संभव है कि बुलाए या बिन बुलाए अपनी दुकान चमकाने के लिए वो ये कर रहे हों.

हम एक आजाद खयाल समाज हैं. उनको अपनी राय रखने का पूरा हक है और मुझे भी. 2002 में मैंने एक कच्ची राय बनाई थी कि रविशंकर अज्ञानी हैं. अपनी ताजा भूमिका से उन्होंने मेरी राय को पक्का कर दिया है. वे अज्ञानी होने के साथ-साथ अराजक भी हैं.

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(ये आर्टिकल क्‍विंट हिंदी पर पहली बार 6 मार्च, 2018 को छापा गया था. श्रीश्री रविशंकर के जन्‍मदिन पर इसे दोबारा पब्‍ल‍िश किया जा रहा है.)

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