आध्यात्मिक गुरु रविशंकर अपने बयान पर लीपापोती कितनी भी करें, उनके स्वर में निहित धमकी भरी आवाज को नजरअंदाज करना मुश्किल है. उन्होंने फरमाया है कि अयोध्या विवाद पर फैसला 'हिंदुओं के पक्ष में न आने पर' देश में सीरिया जैसे हालात बन जाएंगे. आलोचना होने पर उनकी सफाई यह है कि उनकी बात को धमकी नहीं, चेतावनी माना जाए.
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सवाल यह है कि चेतावनी किसको? मामला तो उच्चतम न्यायालय में है, तो क्या रविशंकर जी उच्चतम न्यायालय को चेता रहे हैं? दूसरे शब्दों में क्या वे यह कह रहे हैं कि पंचों की राय सर माथे, लेकिन पनाला तो यहीं गिरेगा? जिस तरह बात कही गयी है, उससे जाहिर है कि उच्चतम न्यायालय को मामले के कानूनी पहलुओं, साक्ष्यों और दलीलों पर कम, इस धमकी या चेतावनी पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि अनुकूल फैसला न होने पर हालात सीरिया जैसे हो सकते हैं.
अयोध्या विवाद पर पक्ष-विपक्ष अपनी जगह, इस तरह की बयानबाजी से हर भारतीय नागरिक को चिंतित होना चाहिए. उन्हें भी जो बीजेपी के वोटर हैं. बल्कि शायद उन्हें ज्यादा. वजह यह कि यह बयान केवल अदालत को चेतावनी या धमकी नहीं है, बल्कि इसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया मात्र को धता बताया जा रहा है.
आज मामला अयोध्या विवाद का है, कल किसी और मसले पर भी सत्ताधारी या उनके करीबी न्यायालय को इसी तरह की धमकी, चेतावनी या सलाह दे सकते हैं. सीरिया जैसे हालात की बात समझने के लिए जरूरी है कि हम लोग महान भारतीय टीवी चैनलों से थोड़ा अलग हटकर पड़ताल कर लें कि सीरिया में व्यवस्था और समाज की क्या दुर्दशा हुई है.
तुलसीदास जी का कहना है-
नहि कोउ अस जनमा जग माहीं. प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं.
सच बात है, मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि सत्ता हाथ में हो, तो वह अहंकार से भर जाता है. इसीलिए समझदार लोग हर सत्तातंत्र के प्रसंग में कोशिश करते रहे हैं कि सत्ताधारियों के अहंकार को नियंत्रण में रखा जाए. भारत, चीन, यूनान सभी प्राचीन सभ्यताओं में शासकों को मनमानी करने से रोकने के उपाय सोचे गए थे. भारत में महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में राजदंड पर राजधर्म के नियंत्रण की बात की गयी, तो चीन में कन्फ्यूशियस ने प्रतियोगिता पर आधारित नौकरशाही की व्यवस्था पर जोर दिया.
आज की दुनिया राष्ट्र-राज्यों के आधार पर चलती है, आधुनिक राष्ट्र-राज्य की पृष्ठभूमि में यूनान, रोम, चीन और भारत के अनुभव ही नहीं, मध्यकालीन यूरोप के आधुनिक यूरोप में बदलने का घटनाक्रम भी है.
आज लोकतंत्र को सबसे बेहतर शासन-प्रणाली माना जाता है. घोर तानाशाही मिजाज के लोग भी अपने आपको लोकतांत्रिक साबित करने की कोशिश करते हैं. यह लोकतांत्रिक मिजाज और व्यवस्था के नैतिक बल का ही प्रमाण है. कारण यह कि लोकतंत्र में प्रभुता के उस मद पर नियंत्रण की व्यवस्था की जाती है, जिसकी चर्चा तुलसीदास कर रहे हैं. लेकिन प्रभुता के इस मद पर, ताकत के इस गुमान पर नियंत्रण तभी तक रहता है, जब तक कि समाज में यह समझ साफ बनी रहे कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं है. केवल और केवल संख्याबल के आधार पर तो भीड़तंत्र चलता है.
लोकतंत्र सत्ता के विभिन्न रूपों के बीच अधिकारों और कर्तव्यों के स्पष्ट बंटवारे के आधार पर चलता है. लोकप्रिय से लोकप्रिय नेता भी अदालती आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकता. लोकप्रिय नेता सरकार बनाता है, लेकिन उसकी लोकप्रियता का निर्धारण करने की प्रक्रिया चुनाव आयोग जैसी संस्था चलाती है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में अदालतें फैसले कानून के आधार पर देती हैं, धमकियों या चेतानियों के प्रभाव में नहीं.
क्या मर्यादाओं को ध्यान में रखकर नहीं देना चाहिए बयान?
रविशंकर सार्वजनिक व्यक्तित्व हैं. अपने अनुयायियों के लिए आध्यात्मिक गुरु हैं. क्या यह जरूरी नहीं कि वे सोच-समझकर, मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए बयान दें? अदालत में चल रहे संवेदनशील मामले में धमकी या चेतावनी की मुद्रा अपना कर वे क्या संदेश दे रहे हैं? सीरिया जैसे हालात की बात करने के बाद यह कहना बेमानी हो जाता है कि मुसलमान भी प्रतिकूल फैसले से नाराज हो जाएंगे. किसी भी फैसले से सभी पक्ष संतुष्ट नहीं होते, और समझौते का रास्ता धमकियों से नहीं बनता.
न्यायालय और अन्य संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादाओं को तोड़ते रहें, और लोकतंत्र की बात भी करते रहें, यह न केवल पाखंड है, बल्कि लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिश का प्रमाण भी है. यह समझना बेहद जरूरी है कि लोकतंत्र केवल व्यवस्था तक सीमित रह कर जीवित रह ही नहीं सकता.
लोकतांत्रिक मिजाज की अनुपस्थिति में लोकतंत्र को कोरी औपचारिकता में भी बदला जा सकता है. लोक के नाम पर भीड़ के जुनून का महिमामंडन जो लोग करते हैं, उन्हें राजधर्म की याद बारंबार दिलाना जरूरी है. याद करें, यही काम सन 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया था. यह बात और है कि राजधर्म की याद दिहानी पर वे खुद भी टिके नहीं रह पाए थे.
यह कड़वी सचाई चिंताजनक है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद, देश में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं जिनके कारण यह सवाल उठना लाजिमी है कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य सुरक्षित है या नहीं?
भीड़ द्वारा हत्याओं से लेकर सत्ताधारियों और उनके समर्थकों की घोर असहिष्णुता तक यह चिंताजनक स्थिति साफ दिखती है. और यह चिंता केवल उनकी नहीं होनी चाहिए जो बीजेपी से असहमत हैं. यह चिंता हर नागरिक की होनी चाहिए. प्रभुता के मद में डूबे शासक अंतत: सिवा अपने किसी के सगे नहीं होते, यह बात उन लोगों को खासकर ध्यान में रखनी चाहिए, जो इस समय प्रभुता के मद और रस में डूबे हुए हैं.
इसके साथ याद करें त्रिपुरा की घटना
रविशंकर के बयान के साथ ही याद करें त्रिपुरा की घटना. अजब हालत है. नयी सरकार का गठन तक नहीं हुआ है और धारा 144 लागू करने की नौबत आ गयी है. लेनिन की राजनीति पर बहस अपनी जगह, लेकिन इस तरह प्रतिमाएं तोड़ने गिराने का सिलसिला शुरू हुआ, तो कहां जाकर रुकेगा?
लेनिन के विदेशी होने का तर्क दिया जाए, तो क्या इसी आधार पर ताशकंद में शास्त्रीजी की प्रतिमा गिराने का आप समर्थन करेंगे क्या? दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में गांधीजी, नेहरूजी और टैगोर की प्रतिमाएं लगी हुई हैं. इंग्लैंड के ब्रिस्टल नगर में राजा राममोहन राय की प्रतिमा भी है, इन सबको गिराने का आप समर्थन करेंगे क्या? दिल्ली में नासेर, मुस्तफा कमाल पाशा और ओलोफ पाल्मे के नाम वाली सड़कों के नाम बदलने की मांग करेंगे क्या?
याद करें तालिबान ने बामियान बुद्ध-प्रतिमा मूलत: इसी तर्क से तोड़ी थी कि उन लोगों के हिसाब से बुद्ध की शिक्षाएं गलत थीं. भारतीयता के तर्क से क्या तालिबान के भारतीय संस्करण को भी स्वीकार कर लिया जाएगा? दिल्ली में नासेर, मुस्तफा कमाल पाशा और ओलोफ पाल्मे के नाम वाली सड़कों के नाम बदलने की माँग करेंगे क्या?
भीड़ की गुंडागर्दी से कहीं ज्यादा चिंताजनक है त्रिपुरा के महामहिम राज्यपाल का यह फरमाना —लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकार के किये काम को दूसरी लोकतांत्रिक सरकार अनकिया भी कर सकती है. उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या वे नयी सरकार को शपथ दिला चुके हैं? क्या उस सरकार ने (जिसका अस्तित्व ही अभी तक नहीं है) बाकायदा फैसला लेकर प्रतिमा गिराई है? या पार्टी विशेष के कार्यकर्ता जो भी कर बैठें, उसे सरकारी कार्यवाही माना जाए? राज्यपाल महोदय को संभवत: चिंता नहीं कि उनके ज्ञान-प्रवचन पर दूसरी पार्टियों की सरकारें भी अमल कर सकती हैं.
कारण वही लगता है जिसका इशारा तुलसीदासजी कर रहे हैं—प्रभुता का मद, सत्ता का नशा बहुत जल्दी चढ़ता है. यह नशा यदि संवैधानिक पदों की मर्यादा भूलने की हद तक पहुंच जाए, आध्यात्मिक गुरु होने के दावों पर भी भारी पड़ने लगे तो मानना होगा कि अच्छे दिन भीड़तंत्र के हैं, लोकतंत्र के नहीं.
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(लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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