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RBI की नई मुद्रा नीति से क्या महंगाई काबू में आएगी ?

क्या अभी की पॉलिसी का जो रुख है वो काम करेगा ? क्या ये महंगाई को 6% के नीचे रख पाएगा ?

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भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को कानून के तहत यह आदेश दिया गया है कि वो देश की मौद्रिक स्थिरता सुरक्षित रखेगा. भारत सरकार ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए साल 2015 में RBI अधिनियम में संशोधन करके कहा था कि RBI कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (cpi) यानि महंगाई को 4 प्रतिशत के ऊपर और 2 प्रतिशत से नीचे नहीं जाने देगा. इसके अलावा महंगाई को कंट्रोल करने के लिए सिस्टम में जो नकदी है उसको भी RBI मैनेज करता है.

अगर CPI या कंज्यूमर महंगाई 6 प्रतिशत के उपर है तो इसका मतलब हुआ कि RBI अपना काम करने नाकाम है.

जून 2022 में कंज्यूमर यानि खुदरा महंगाई 7.01 थी जो जनवरी 2022 की तुलना में काफी ज्यादा है. जून- जुलाई तिमाही में 3.8 लाख करोड़ से ज्यादा की नकदी सिस्टम में थी. इससे साफ है कि RBI महंगाई पर अपना काम करने में नाकाम रहा है.

ऐसे में 5 अगस्त को RBI ने रेपो रेट में 50 बेसिस प्रतिशत की बढोतरी की है. हालांकि यह अभी भी एकोमोडेटिव है लेकिन आधिकारिक तौर पर RBI ने एकोमोडेटिव स्टांस को इस बार की पॉलिसी मीटिंग में खत्म कर दिया है.

क्या अब ये नया पॉलिसी रुख काम करेगा ? क्या RBI 6 फीसदी के नीचे महंगाई को लाने में सफल होगा ?

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खानापूर्ति ज्यादा, असरदार एक्शन कम

भारत में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI), दरअसल जो असली महंगाई होती है उसे थोड़ा कम करके ही बताती है. थोक महंगाई यानि (WPI) की दर जून 2022 में 15.18 प्रतिशत थी और पिछले छह महीनों से यह 13.5 प्रतिशत से ज्यादा पर चल रही है. अब अगर इस बात को महंगाई के नजरिए से देखें तो इस मोर्चे पर RBI काफी ज्यादा फिसड्डी साबित हो चुका है.

यदि कोई महंगाई के असली कारणों की तह में जाता है तो पता चलता जाता है कि देश में मौजूदा महंगाई दरअसल सप्लाई साइड की वजह से ज्यादा है.

भारत बहुत कुछ विदेशों से इंपोर्ट करता है. क्रूड ऑयल, खाने का तेल, कैपिटल गुड्स और इलेक्ट्रॉनिक्स सभी की कीमतें बहुत ज्यादा ऊपर जा चुकी हैं. पिछले छह महीनों में विदेशी विनिमय दर में 6 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है. इस तरह से विदेशों में महंगाई का भारत में महंगाई बढ़ाने में बड़ा रोल है और RBI शायद इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकता.

घरेलू उत्पाद की कीमतें भी बढ़ रही हैं. जून में खाद्य महंगाई असहज रूप से बढ़कर 7.56 प्रतिशत हो गई. कपड़े और जूते-चप्पल की महंगाई दर 9.5 फीसदी के पार चली गई तो अनाज की महंगाई गेहूं- चावल की कीमतें बढ़ने के साथ लगातार ऊपर जा रही है. इस तरह की महंगाई की सूरत में भी RBI के हाथ बंधे हुए हैं.

महंगाई को मैनेज करने में RBI की भूमिका डिमांड पक्ष पर ज्यादा है. जो कि मनी और कर्ज सप्लाई को एडजस्ट करके करता है. मार्च 2020 में जब कोविड आया तो उसके बाद RBI ने कर्ज नीति में बदलाव किया. कर्ज आसान और सस्ता किया. लेकिन 2021-22 की पहली छमाही तक ये ठीक से काम नहीं किया. RBI ने बैंकों को जो पैसे दिए उनमें से ज्यादातर रकम बैंकों ने RBI के सामने सरेंडर कर दी.

लेकिन फिर 2021-22 की दूसरी छमाही से क्रेडिट ग्रोथ की डायनेमिक्स बदलने लगी. कर्ज की मांग बढी और बिल्डिंग मटीरियल और दूसरी कमोडिटी की कीमतें बढ़ने लगी. इससे कर्ज की मांग भी तेजी से बढ़ी. क्रेडिट ग्रोथ 8 प्रतिशत से ज्यादा जनवरी 2022 में हो गया और इसके बाद ये लगातार अप्रैल में 11 प्रतिशत, मई में 12 प्रतिशत, जून में 13 प्रतिशत और 14 प्रतिशत जुलाई में हो गया.

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RBI ने मई 2022 से रेपो दरों को 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 4.4 प्रतिशत करना शुरू किया. इसके बाद दो बार और दरें बढ़ाकर इसे अब 5.4 प्रतिशत कर दिया है. विडंबना यह है कि इन महीनों में क्रेडिट विस्तार 11 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत हो गया है.

स्पष्ट रूप से, RBI ने दरें तो बढा दी लेकिन वो क्रेडिट ग्रोथ को कंट्रोल करने में असरदार नहीं हो सकी है.

महंगाई कई वजहों से बढ़ती है. रीयल इकनॉमी में बदलाव, सरकार का पॉलिसी एक्शन और ग्लोबल महंगाई. आने वाले महीनों में महंगाई में नरमी आ सकती है अगर ये फैक्टर्स बदलते हैं.

हालांकि, RBI की नीति से इसमें कोई फर्क नहीं आएगा. आरबीआई की नीतिगत दरों में बढ़ोतरी एक खानापूर्ति कार्रवाई के रूप में अधिक रहने की संभावना है.

दरें बढ़ाने से विनिमय दर पर सकारात्मक असर

भारत के लिए भी डॉलर ही इंटरनेशनल करेंसी है. रुपए के मुकाबले इसकी विनिमय दर इसकी बाहरी वैल्यू है. जहां RBI के एक्शन से विनिमय दरों का सीधे तौर पर कुछ लेना देना नहीं है लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर ये प्रभावित होती हैं.

भारत के चालू खाते में बड़ा घाटा बना हुआ है, जो 2022-23 में 100 अरब डॉलर से अधिक पर पहुंच सकता है.

विकसित देशों या बड़ी इकनॉमी के मंदी में जाने की आशंका गंभीर है. ऐसे में हमें कमोडिटी की कीमतों से तो राहत मिल सकती है लेकिन एक्सपोर्ट पर नुकसान का डर भी मंडरा रहा है. हमारा इंपोर्ट ज्यादा लचीला है. ऐसे में कुल मिलाकर चालू खाता घाटा की स्थिति ज्यादा बदलने वाली नहीं है.

भारत को पर्याप्त कैपिटल फ्लो होता रहा है. फॉरेक्स रिजर्व रहने से रुपये के बाहरी मूल्य को बनाए रखने और रुपये की कीमतों में गिरावट को कंट्रोल करके चालू खाता घाटे की भरपाई हो जाती है.

सौभाग्य से भारत में पूंजी आती रही है यानि कैपिटल फ्लो की स्थिति ठीक रही है जिस वजह से ये CAD यानि करंट अकाउंट डेफिसिट को मैनेज कर लेता है और रुपए की गिरती स्थिति और एक्सटर्नल वैल्यू को दुरुस्त रखता है. जब भी डिमांड –सप्लाई में अस्थाई तौर पर अंतर बढ़ता है या बेमेल हो जाता है तो आरबीआई, बाजार से डॉलर की खरीद या बिक्री करके विदेशी मुद्रा बाजारों की स्थिति को काबू करता है.

यह जो सुविधा भारत को हासिल थी वो पिछले 10 महीने में बिगड़ी है. भारत से बड़ी तादाद में कैपिटल फ्लो बाहर गया है. सरकारी डेट, एक्सटर्नल कमर्शियल बॉरोइंग और NRI डिपॉजिट में बड़ी गिरावट आई है. इस अंतर को पाटने के लिए आरबीआई ने पिछले छह महीनों में 60 अरब डॉलर बेच दिया है. अगर इस तरह की गिरावट आगे भी जारी रही तो रुपये-डॉलर विनिमय दर को यह बुरी तरह प्रभावित कर सकती है.
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डेट कैपिटल फ्लो अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि उनको भारत में निवेश करने से कितनी कमाई होती है. जैसे अगर वो अमेरिका में पैसे लगाते हैं और उसकी तुलना में भारत में पैसे लगाने पर कितनी ज्यादा पॉजिटिव अर्निंग होती है. उस पर ही डेट कैपिटल फ्लो आता है.

मंदी की आशंका ने विकसित बाजारों में अमरिकी डिपॉजिट/ बॉन्ड पर रिटर्न पिछले कुछ महीने में घटा दिया है. जुलाई में भले ही फेड ने अपने फेडरल फंड रेट 75 बेसिस प्वाइंट तक बढ़ा दिया. लेकिन 10 साल के बॉन्ड पर यील्ड अभी भी 40 बेसिस प्वाइंट है जो कि दो महीने के निचले स्तर से कम है. इस वजह से भारतीय बॉन्ड विदेशी मार्केट के लिए आकर्षक हो गए हैं.

इसलिए आरबीआई ने रेपो रेट 50 बेसिस प्वाइंट बढाकर इंडियन यील्ड में तेजी ला दी है. इससे NRI का नेट रिटर्न भी बढ जाएगा और कैपिटल अकाउंट इन फ्लो भी बढ़ेगा.

संक्षेप में, अगर कोई और झटका नहीं लगता या अमेरिकी नीति और भी अधिक कठोर नहीं हो जाती है तो रुपये की विनिमय दर में कमी होने की संभावना नहीं है. ऐसे में भारतीय रिजर्व बैंक जो पॉलिसी स्टांस चेंज कर रहा है उसका महंगाई पर कोई असली असर नहीं होगा लेकिन विनिमय दर को स्थिर रखने में जरूर कारगर हो सकता है और शायद इस नीति को लागू करने का एक पक्ष ये हो सकता है.

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