7 सितंबर, मंगलवार की एक हेडलाइन हैरान कर देने वाली थी. जिसकी भावना ये थी कि, "समझदार मुस्लिम नेताओं को अतिवाद का विरोध करना चाहिए: मोहन भागवत".
लेख के अंश में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) द्वारा एक दिन पहले मुंबई के एक भव्य होटल में दिए गए भाषण के विवरण का हवाला दिया गया था - संभवतः एकमात्र स्थान जहां 'समझदार' इकट्ठा होते हैं.
निःसंदेह यह एक समझदारी भरी सलाह है, लेकिन इन शब्दों से कई स्वाभाविक सवाल भी उठते हैं.
सबसे पहले, उग्रवाद का मुकाबला करने की जिम्मेदारी केवल मुसलमानों के दरवाजे पर ही क्यों होनी चाहिए? क्या अन्य समुदायों के लोगों को जिनमें सबसे महत्वपूर्ण रूप से बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को, आरएसएस के प्रमुख द्वारा किसी समुदाय या राज्य के खिलाफ हिंसक या इतने आक्रामक व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए? आखिरकार, यह संगठन हिंदू समाज और राष्ट्र को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध है.
यदि बहुसंख्यक समुदाय के सभी लोग इस तरह के साधनों का सहारा लेने से परहेज करने का फैसला करते हैं तो क्या इससे दोनों को मजबूत नहीं किया जाएगा?
'अच्छे' मुसलमान बनाम 'बुरे' मुसलमान
महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल "समझदार मुसलमानों" को ही अलोकतांत्रिक और समाज को तोड़ने वाले कार्यों का विरोध करने के लिए क्यों कहा जाना चाहिए, अन्य वर्गों को क्यो नहीं? क्या इसका मतलब यह है कि भागवत केवल बौद्धिक स्तर के मुसलमानों के साथ ही संवाद कर सकते हैं? यदि ऐसा है, तो इस समुदाय के 'गैर-रचनात्मक' सदस्यों के साथ कौन संवाद करता है?
क्या इस तरह की बातों से मुसलमानों को "अच्छे" मुसलमान और "बुरे" मुसलमान के रूप में रेखा खींचने जैसी बात से कोई लेना-देना नहीं है? कि एक हिस्सा राष्ट्र-निर्माण के लिए "तर्कसंगत" और "प्रतिबद्ध" है और एक हिस्सा "गर्म-सिर" वाला और "स्वाभाविक रूप से विघटनकारी" है.
क्या मुसलमानों का इस तरह का चित्रण करना, RSS और उसके सहयोगियों को अपने मूल चुनावी क्षेत्र (Core Constituency) को संगठित करने में सहायता करता है?
RSS प्रमुख ने लगातार उल्लेख किया कि "समुदाय के एक वर्ग द्वारा किए गए पागलपन जैसे कृत्यों" के खिलाफ "मुसलमानों में से समझदार लोगों को बोलना चाहिए". यह RSS के दृष्टिकोण को फिर से स्पष्ट करता है कि सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवाद के कार्य पूरी तरह से मुसलमानों द्वारा किए जाते हैं.
किसी भी मामले में, उन नेताओं के खिलाफ अदालती मामलों को लगभग पूरी तरह से हटा दिया गया, जो संघ परिवार के इकोसिस्टम का हिस्सा हैं और जिन पर आतंकवादी हिंसा का आरोप लगाया गया था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली सरकार द्वारा हिंदुओं को "बुरा" नाम देने के लिए "फंसाया" गया था.
ऐतिहासिक अर्धसत्य
भागवत का सूत्रीकरण इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि हिंदू समाज अनिवार्य रूप से शांतिप्रिय है और अन्य धर्मों के प्रति स्वाभाविक रूप से सहिष्णु है, इसलिए उनको केवल खुद को हिंदू मानना है. वे खुद पर हिन्दू का लेबल लगाते हुए अन्य धर्मों की भी "प्रैक्टिस" कर सकते हैं.
यह अलग बात है कि वीडी सावरकर से लेकर स्वयं भागवत तक, हिंदू राष्ट्रवादी पंथ के सभी विचारकों और नेताओं ने अस्पृश्यता को हिंदू धर्म के सबसे बड़े नकारात्मकताओं में से एक के रूप में मान्यता दी और इसके खिलाफ अभियान चलाया, न कि कम से कम लगभग एक सदी तक पूरी सफलता के साथ. जन्म पहचान-आधारित भेदभाव हिंदू धर्म के लिए एंडेमिक (कभी न खत्म होने वाली बीमारी) है, और जाति जनगणना पर बहस यह साबित करती है कि यह समकालीन भारत में एक वास्तविकता बनी हुई है. इसके बावजूद, सभ्य और अहिंसक आचरण का भार केवल मुसलमानों पर रखा गया है.
इतना ही सब नहीं है. भागवत अपनी टिप्पणियों को ऐतिहासिक रूप से अर्ध-सत्य बातों के आधार पर करते हैं. उन्होंने तर्क दिया, "इस्लाम आक्रमणकारियों के साथ भारत में आया था. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और इसको इसी रूप में कहा जाना आवश्यक है." इरादा और संदेश बिलकुल स्पष्ट है - समकालीन मुसलमान विदेशी आक्रमणकारियों के वंशज हैं.
ऐसा नहीं है कि आरएसएस प्रमुख को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि केरल के तटीय क्षेत्रों में कम से कम नौवीं शताब्दी तक मुस्लिमों की उपस्थिति दर्ज की गई थी, यह अलग बात है कि कोई उस मौखिक परंपरा पर विश्वास नहीं करना चाहता कि उस क्षेत्र में पैगंबर के खुद के जीवनकाल के दौरान वहां आने के साथ इस्लाम वहां आया.
भारत के इस हिस्से में इस्लाम आक्रमणकारियों की पीठ पर लदकर नहीं आया था, बल्कि अरब व्यापारियों द्वारा लाया गया था, जिन्होंने यहां स्थानीय रूप से शादी की थी. उन्होंने यहां एक समुदाय को जन्म दिया और समय के साथ मलयाली मुसलमानों को मप्पिलास (मोपला) का नाम मिला और वे इस क्षेत्र की कथा और परंपरा का एक अभिन्न अंग बने रहे.
लेकिन भागवत का यह दावा कि इस्लाम और "आक्रमणकारियों" का एक सहजीवी संबंध है, हिंदू राष्ट्रवादियों की उस सहज भावना पर आधारित है कि उत्तर भारत (पश्चिम और पूर्व के हिस्से भी) ही भारत का "हृदय" बनाता है.
भागवत के लिए वास्तव में हिंदू कौन है?
RSS के सरसंघचालक की भारत में मुसलमानों को लेकर जन्मजात भावना में केरल के लोग शामिल नहीं हैं. वे समकालीन विमर्श में तभी आते हैं जब वैश्विक इस्लामी चरमपंथ के साथ संबंध स्थापित करने की आवश्यकता होती है, जैसा कि राम माधव ने हाल ही में दावा किया था कि भारत में मुसलमानों के बीच तालिबान जैसी मानसिकता सदियों पुरानी है. भागवत ने यह भी कहा,
“भारत में हिंदू और मुसलमान के पूर्वज एक ही हैं. हमारे विचार में, हिन्दू शब्द का अर्थ मातृभूमि से है और उस संस्कृति से है जो हमें पूर्वजों से विरासत में मिली है. हिंदू शब्द... व्यक्ति को दर्शाता है, उनकी भाषा, समुदाय या धर्म का विचार किये बिना. हर कोई हिंदू है और इसी संदर्भ में हम प्रत्येक भारतीय नागरिक को हिंदू के रूप में देखते हैं."
भागवत के पहले दिए कई बार दिए गए बयान, खासकर सितंबर 2018 के बाद से, जब उन्होंने विज्ञान भवन, नई दिल्ली में बुद्धिजीवियों के चुनिंदा सदस्यों के लिए लगातार तीन दिनों तक घंटे भर का व्याख्यान दिया, मुस्लिमों के “पहुंच से बाहर” प्रतीत होता है.
भागवत के इस तरह के बार-बार किये जाने वाले प्रयासों को इस बात को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि वो और RSS "बदल गए" हैं और ये अब मुस्लिम विरोधी नहीं है, क्योंकि भागवत ने 2018 में कहा था कि, "हिंदू राष्ट्र (या हिंदुत्व) का मतलब यह नहीं है कि यहां "मुसलमान नहीं चाहिए", ऐसा बिलकुल नहीं होता. जिस दिन ये कहा जाएगा कि यहां मुस्लिम नहीं चाहिए, उस दिन कोई हिंदुत्व नहीं रहेगा"
हालांकि, उनके हालिया संबोधन में मूल आह्वान को पहचानने की आवश्यकता है - प्रत्येक नागरिक एक हिंदू है. क्या तथाकथित फ्रिंज ताकतों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला नारा भागवत के दावे में नहीं गूंजता हुआ प्रतीत होता? कि "हिंदुस्तान में रहना होगा, तो अपने आप को हिंदू कहना होगा"?
मुसलमान भी भारतीय हो सकते हैं, लेकिन शर्तें लागू
भागवत का यह कहना सही है कि भारत में मुसलमानों को किसी भी चीज से डरने के लिए कोई कारण नहीं है, क्योंकि हिंदू किसी से दुश्मनी नहीं रखते हैं. लेकिन निर्भयता की उस स्थिति तक पहुंचने के लिए मुसलमानों को अपनी विशिष्ट पहचान को त्यागने और हिंदू होने को स्वीकार करने की शर्त, आह्वान में सहज रूप से है.
मुसलमानों के लिए चुनौती है, बिना किसी डर के और स्वाभिमान के साथ रहना, जैसा कि संविधान में निहित है. लेकिन, यह तभी संभव हो पायेगा जब हिंदू या उनके स्वयंभू प्रतिनिधि मुसलमानों को बहुसंख्यक समुदाय की पहचान में शामिल करने के लिए नहीं कहेंगे.
इस साल की शुरुआत में, संघ से जुड़े मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भागवत ने मुसलमानों से कहा था कि वे "इस डर के चक्र में न फंसें कि भारत में इस्लाम खतरे में है".
उनके संबोधन में इस तरह की टिप्पणियां थीं कि, “हिंदुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकता. प्रभुत्व केवल भारतीयों का हो सकता है और जो लोग दूसरों को मार रहे हैं वे हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे हैं".
हाल ही में, कानपुर में एक मुस्लिम व्यक्ति को पीटा गया और जय श्री राम का नारा लगाने के लिए मजबूर किया गया, यह नारा युद्धघोष से दमन के औजार के रूप में विकसित हुआ है. RSS प्रमुख को मुंबई, गाजियाबाद और नई दिल्ली में दिए गए भाषणों की तरह संबोधित करना चाहिए जिसमें उन्होंने उन लोगों को संबोधित किया था, जो नफरत और पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उत्सुक थे.
RSS प्रमुख द्वारा बार-बार इन भाषणों के माध्यम से बदलाव की मृग मारीचिका (भ्रम) पैदा करने के उद्देश्य से, हिंदुओं के बीच बेचैन समर्थकों को यह मानने के लिए कारण दिया जा रहा है कि RSS बदल गया है और पूर्व वाली मुसलमानों के प्रति नफरत को छोड़ दिया गया है. यह परिवर्तन हर तरह से कॉस्मेटिक (बनावटी) है और असत्य के गोएबेलियन सिद्धांत (Goebellian Principle Of An Untruth) पर आधारित है, जिसके अनुसार यदि किसी झूठ को बार-बार दोहराया जाता है तो वह सच जैसा प्रतीत होने लगता है.
भागवत के किसी एक दावे का आकलन करते समय दूर के साथ-साथ नजदीकी अतीत का उल्लेख करना भी आवश्यक है. क्रोनोलॉजी समझिए, जैसा कि इस साल की शुरुआत में संसद में कहा गया था.
(नीलांजन मुखोपाध्याय NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स, उनकी लिखी पुस्तकें हैं. लेखक का ट्विटर हैंडल है @NilanjanUdwin. यह लेख एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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