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अच्छी राजनीति नहीं, सिर्फ डिबेट है RSS और ब्रदरहुड की तुलना

संघ और ब्रदरहुड की राहुल की तुलना ठीक लेकिन इसका वक्त गलत 

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राहुल गांधी ने आरएसएस से मुस्लिम ब्रदरहुड की तुलना की है. यूरोप की यात्रा के दौरान उन्होंने ये तड़का लगाया है. बहुत मुमकिन है कि भारत में बहुत सारे लोगों को मुस्लिम ब्रदरहुड के बारे में जानकारी न हो. ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि ब्रदरहुड और आरएसएस में क्या मेल है? और क्यों राहुल ने दोनों की तुलना का जोखिम उठाया है. आज के माहौल में क्या उनको ये तुलना करनी चाहिए ?

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि तुलना काफी सटीक है. आरएसएस और मुस्लिम ब्रदरहुड, दोनों एक ही तरह के संगठन हैं. दोनों का चरित्र और लक्ष्य भी लगभग एक जैसा ही है.

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राहुल की तुलना ठीक, लेकिन वक्त गलत

इस वक्त देश का सांप्रदायिक माहौल बम-बम है. नफरत फैलाने का व्यापार झमाझम चल रहा है. कांग्रेस के सामने एक ऐसा प्रतिद्वंद्वी है, जो हर मसले का ध्रुवीकरण कर माहौल अपने पाले में करने में माहिर है. लेकिन मेरे हिसाब से मुस्लिम ब्रदरहुड और आरएसएस को एक जैसा बताने के लिए राहुल ने जो वक्त चुना है, वह ठीक नहीं है.

अपने दर्शन, आचार और व्यवहार में संघ और मुस्लिम ब्रदरहुड एक ही जैसे हैं. आरएसएस हिंदुओं के उत्थान के बारे में बात करता है, तो ब्रदरहुड मुसलमानों के हक में. मिस्र में ब्रदरहुड की स्थापना अगर 1928 में हुई थी, तो आरएसएस का गठन 1925 में. एक अगर हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है, तो दूसरा इस्लामिक राज्य की कामना करता है. ब्रदरहुड धर्म आधारित राजनीति की वकालत करता है.

मुस्लिम ब्रदरहुड अपने स्वभाव में पश्चिम का विरोधी है. वो मानता है पश्चिमी सभ्यता की वजह से ही इस्लाम कमजोर हुआ . उसके लोग पश्चिम की चकाचौंध में आकर इस्लाम की पंरपरा से दूर हो रहे हैं. उसके अपने लोग अपनी परंपरा और संस्कृति से कट गए हैं. बौद्धिक वर्ग पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित हो कर उनके हिसाब से सोचने लगा है, उनकी नकल कर रहा है, उनके बताये रास्ते को सही मानकर इस्लामिक रास्ते को धिक्कार रहा है.

ब्रदरहुड इसके प्रतिकार के तौर पर खड़ा है. हालांकि वो आधुनिकता का विरोधी नहीं है. वो आधुनिक मशीनों और उपकरणों का धड़ल्ले से उपयोग करता है.

पश्चिम विरोध की बुनियाद पर खड़े संघ और ब्रदरहुड

बीसवीं सदी का शुरुआती काल संक्रमण का था. एक तरफ पश्चिम के देश प्रथम विश्वयुद्ध के खौफ से निकलना चाह रहे थे, तो दूसरी तरफ उन पर ये दबाव भी था कि वो दुनिया में फैले अपने साम्राज्य को कमजोर भी न होने दें. वो ये इस बात से भी त्रस्त थे कि पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतों के बरक्स साम्यवाद का झंडा बुलंद हो रहा था.

रूसी क्रांति के बाद दुनियाभर में मार्क्स और लेनिन के समर्थक बढ़ रहे थे. हर जगह लोग पूंजीवाद के खिलाफ एक वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश कर रहे थे. कुछ सभ्यताओं को साम्यवाद में उम्मीद दिखी तो कुछ को अपने धर्म में.

मुस्लिम समाज का एक हिस्सा अगर पश्चिम की तरफ आकर्षित हो रहा था, तो दूसरा हिस्सा इस्लाम की आगोश में सिमट रहा था. अरब के इलाके में हसन अल बन्ना इस्लाम को सामने रख भविष्य का रास्ता खोज रहे थे, तो दक्षिण एशिया में मौलाना मौदूदी भी अंग्रेजों को भगाने का मार्ग इस्लाम में ही तलाश रहे थे.

जमात-ए-इस्लामी के मौदूदी और ब्रदरहुड के अल बन्ना, दोनों की पहली कोशिश थी कि मुस्लिम समाज में जो भटकाव वो देख रहे थे, उसका सही निदान हो और समाज अपनी पुरानी ताकत, खोई शख्‍स‍ियत को पाये, वो किसी दूसरी सभ्यता का पिछलग्गू न बने. इस बिंदु पर ब्रदरहुड और आरएसएस में गजब की समानता है.

इस्लाम में समाधान खोजता है ब्रदरहुड

हेडगेवार को कांग्रेस के अंग्रेजी पढ़े-लिखे नेताओं से कोफ्त थी, उनको लगता था कि अंग्रेजों का विरोध करते करते ये नेता खुद अंग्रेज हो गये, उनकी तरह ही सोचने और विचारने लगे. वो अपनी संस्कृति से दूर हो गए. अपनी परंपरा में उन्हें तकलीफ होने लगी.

आरएसएस का गठन हुआ अपनी परंपरा के 'गौरवशाली इतिहास की पुनर्स्थापना' कर उसकी कमजोरियों को दूर करने और 'नए भारत का निर्माण' करने के लिए. आरएसएस ने तब अपने को एक सामाजिक संस्था के रूप में ही पेश किया था. 'चरित्र निर्माण' पर ज्‍यादा जोर दिया. जबकि ब्रदरहुड पहले दिन से ही राजनीतिक था. पश्चिम प्रभावित संस्थाओं में उसकी कोई आस्था नहीं थी. लोकतंत्र को वो सही नहीं मानता था. उसका कहना था कि 'लोगों की इच्छा' की जगह 'अल्लाह की मर्जी' ही सर्वोपरि होनी चाहिए. वो शरीयत के हिसाब से इस्लामिक राज्य बनानाचाहता था. ब्रदरहुड का सूत्र वाक्य है, 'इस्लाम ही समाधान है, इसके मानने वाले भाई.'

संघ की नजर में भारतीय संविधान पश्चिम की भोंडी नकल

ये सच है कि आरएसएस ने कभी भी तख्‍तापलट की कोशिश नहीं की. वो लोकतंत्र में पूरी आस्था जताता है. उसके बुनियादी सिद्धांतों पर सवाल खड़ा नहीं करता, पर वो मौजूदा भारतीय संविधान को भारतीय परंपरा के अनुरूप नहीं मानता. वो कहता है कि ये पश्चिम की भोंडी नकल है. इसलिए वो इसमें बदलाव की दलील देता है. वो अभी तक लोकतंत्र के रास्ते ही अपने को मजबूत करता रहा है. उसने कम से कम अभी तक हिंसा के जरिये सरकार बदलने का प्रयत्न नहीं किया है, जबकि ब्रदरहुड हिंसा में यकीन रखता है.1948 में उसने तख्‍तापलट का प्रयास किया. उसके लोग गिरफ्तार हुए. मिस्र के प्रधानमंत्री का कत्ल ब्रदरहुड ने किया. बदले में अल बन्ना को भी मौत के घाट उतार दिया गया. प्रतिबंध लगा.

1952 में ब्रदरहुड के एक सैनिक दस्ते ने सफलतापूर्वक राजशाही को उखाड़ फेंका. अब्दुल नसर ने सत्ता संभाली और जब फिर नया संघर्ष हुआ, तो नसर ने भी ब्रदरहुड पर बैन लगा दिया. 2011 में अरब क्रांति के बाद ब्रदरहुड ने अपनी पार्टी बनाई, चुनाव लड़ा और इनके नुमाइंदे मोहम्मद मोरसी राष्ट्रपति भी बने. पर बात फिर नहीं जमी. डेढ़ साल के अंदर सेना ने उन्हें हटा नजरबंद कर दिया और आज की तारीख में ब्रदरहुड आतंकवादी संगठन के रूप में घोषित है.

संघ भी न पकड़ ले ब्रदरहुड की तरह हिंसा का रास्ता

ऐसे में सवाल उठता है कि राहुल गांधी ने अपने भाषण में संघ और ब्रदरहुड के बीच वैचारिक समानता को उजागर किया या फिर जोर दूसरे पहलुओं पर है? राहुल ने इस बात का खुलासा नहीं किया है. इस में कोई दो राय नहीं कि दोनों ही संगठनों के पास संकट की घड़ी में लाखों कार्यकर्ता रहे हैं, जो विचारधारा के नाम पर जान देने और जान लेने को तैयार रहते थे, औरआज भी तैयार हैं.

फर्क सिर्फ इतना है कि मिस्र में लोकतंत्र कभी था ही नहीं. अब्दुल नसर बड़े नेता थे, पर वो तानाशाह थे. उनके बाद अनवर सादात आए. उनका कत्ल हो गया. होस्नी मुबारक को जनांदोलन ने हटाया. 2011 की क्रांति के बाद उम्मीद हुई कि लोकतंत्र बहाल होगा, सही मायनों में, पर वो हो न सका, जबकि भारत में संविधान लागू हुआ. जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस को इस बात का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने चुनाव करवाए और लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने नहीं दिया.

पिछले 71 सालों में, लोकतंत्र इस देश के लिये एक अति महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मूल्य बन गया है, जिसकी अवहेलना कर कोई नेता या पार्टी या संगठन देश पर राज नहीं कर सकता, उसका दिल नहीं जीत सकता. लिहाजा संघ की संविधान के प्रति नाराजगी के बाद भी इसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं हुई. और उसने हिंसा का वैसा इस्तेमाल नहीं किया जैसा ब्रदरहुड ने किया.

लेकिन उसकी विचारधारा को मानने वाले कुछ सिरफिरे हिंसा को एक कारगर कदम मानते हैं, गोरक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा और अखलाक पहलू खान जैसे लोगों की हत्या इसके कुछ उदाहरण हैं. सोशल मीडिया पर जिस कदर नफरत उड़ेली जा रही है, वो भी हिंसा का एक रूप है.

पिछले साढ़े चार सालों में नफरत लोगों के घरों में, दिलों में बैठाई जा रही है. उसके पुतले बनाए जा रहे हैं. लोकतंत्र में बातचीत की जो गुंजाइश रहती है, वो जगह संकरी की जा रही है. अलग विचार रखना अपराध और देशद्रोह बनता जा रहा है. राहुल गांधी का इशारा अगर इस ओर है, तो वो सही हैं. पर ये विश्लेषण का विषय है. इस पर अध्ययन होना चाहिये और ऐसी प्रवृतियों पर रोक लगनी चाहिए, अन्यथा देश कब मिस्र के रास्ते पर चल पड़े पता नहीं चलेगा.

राहुल की तुलना शांतिकाल का आभूषण

पर यहां सवाल राजनीति और रणनीति का भी है. आरएसएस और हिंदूवादी ताकतों के लिए हिंदू-मुस्लिम मसला अत्यंत प्रिय मसला है. वो चाहते हैं कि इसी मसले पर दिन रात चर्चा हो. इससे देश में एक खास तरह का ध्रुवीकरण करने में मदद मिलती है. लोग हिंदू और मुसलमान हो जाते हैं. उन्हें अपना धर्म याद हो आता है. हिंदू को वेदों में और मुसलमानों को कुरान में जीवन का मतलब दिखता है. धर्म बुरी चीज नहीं है. पर इसका दुरुपयोग दूसरे धर्मों के खिलाफ भड़काने में हो, तो धर्म के इस पहलू से बचना चाहिए.

आज हालात ये हैं कि सत्ता में बैठे लोग ये नहीं चाहते कि रोजमर्रा की चीजों पर चर्चा हो, रोटी-कपड़ा-मकान पर जिरह हो, रोजगार का मसला जनता के बीच मुद्दा बने. नई पीढ़ी ये सोच ही न पाए कि उसे सरकार की नाकामियों के कारण नौकरी नहीं मिल रही है. वो हिंदू-मुसलमान बना रहेगा, तो हिंदुत्ववादियों को आसानी होगी. नागरिक बन कर सोचने लगेगा, तो फिर नफरत का रोजगार करने वाले लोगों को परेशानी होगी. लोग सवाल करने लगे, तो फिर सत्ता में बने रहना मुश्किल होगा.

राहुल गांधी की तुलना बौद्धिकों की जुगाली के लिए तो अच्छा विषय है, लेकिन अच्छी राजनीति नहीं है. अच्छी राजनीति तो बेरोजगारी और राफेल पर लगातार हमले करने से ही बनेगी. जब देश युद्धकाल में हो, तो शांतिकाल का सौंदर्य मन को नहीं सुहाता. ये तुलना शांतिकाल का आभूषण है. युद्ध क्षेत्र में तो तोप, तमंचा और तलवार ही जंचती है.

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