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क्‍या भारत के ‘हिंदू राष्‍ट्र’ घोषित होने से कुछ फर्क पड़ेगा? 

आरएसएस सबसे बड़ा हिंदू संगठन है, जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है.

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अक्सर यह आशंका जताई जाती है कि आरएसएस और बीजेपी संविधान संशोधन के जरिये भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं. यह कई लोगों को परेशान और चिंतित करता है. वो पूछते हैं कि क्या ऐसा होने पर गैर-हिंदू सेकेंड क्लास सिटिजन नहीं बन जाएंगे?

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उनके डर को समझा जा सकता है, लेकिन यह बेबुनियाद है. राष्ट्र और राज्य में फर्क नहीं कर पाने की वजह से उनके मन में यह आशंका है. आइए, पहले इन दोनों का फर्क समझते हैं. राष्ट्र का मतलब देश है, जबकि राज्य का मतलब सत्ता (स्टेट). देश का एक भौगोलिक क्षेत्र होता है, जिसकी सीमाएं तय होती हैं. उसकी रक्षा के लिए सेना होती है.

वहीं, स्टेट उन एजेंसियों को कहते हैं, जो देश का शासन चलाती हैं. इनमें संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका और दूसरे संस्थान शामिल होते हैं.

राष्ट्र और राज्य का इस्तेमाल एक-दूसरे के बदले नहीं किया जाना चाहिए, खासतौर पर आरएसएस और बीजेपी की तरफ से. दोनों के सीनियर नेता ऐसा नहीं करते, लेकिन ऐसे जूनियर नेता, जिन्हें इनकी समझ नहीं है, वो यह गलती करते रहते हैं.

भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जरूरत क्यों?

भारत ऐसी अकेली जगह है, जहां 100 करोड़ हिंदू रहते हैं. फिर इसे हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? इससे असुरक्षा की भावना का भी पता चलता है, लेकिन हिंदू अपने ही देश में खुद को असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं?

आरएसएस सबसे बड़ा हिंदू संगठन है, जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. उसका मानना रहा है कि भारत में राष्ट्रीय मकसद का अभाव है. उसे लगता है कि अगर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाता है, तो इससे एक राष्ट्रीय मकसद गढ़ने में मदद मिलेगी. लेकिन क्या ऐसा होगा? आखिरकार, किसी देश का मकसद राज्य तय करता है. ऐसे में देश का शासन चलाने वाली एजेंसियां हिंदू राष्ट्र का निर्माण कैसे करेंगी?

राज्य और राष्ट्र में क्या फर्क है?

हमें इस फर्क को समझना जरूरी है क्योंकि सैकड़ों साल से अधिकतर देशों को ‘राज्य निर्माण’ में दिक्कत होती रही है. पाकिस्तान की मिसाल से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है. वह एक देश तो है, लेकिन गवर्नेंस की संस्थाएं बनाने में वह असफल रहा है.

भारत के साथ इससे बिल्कुल अलग समस्या है. उसे 1947 में एक मजबूत स्टेट मिला, लेकिन मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ा. इसकी कई वजहें हैं, जो हम सब जानते हैं.

मोहम्मद अली जिन्ना ने धार्मिक आधार पर अलग देश की मांग की थी, जो कांग्रेस को एक राजनीतिक चुनौती लगा. भारत की विविधता की वजह से कांग्रेस की दिशा तय हुई.

अंग्रेजों के देश छोड़ने के ऐलान के बाद शुरू में राजा भारत में नहीं मिलना चाहते थे. हालांकि, 1980 के दशक के अंत तक कश्मीर को छोड़कर भारत के एकजुट करने का प्रोजेक्ट पूरा हो चुका था. पूर्वोत्तर ने भारत के साथ मिलने का सबसे अधिक विरोध किया.

1980 के दशक के अंत में अलग सिख राष्ट्र बनाने की मांग भी उठी थी. इनमें से कुछ खालिस्तान के लिए 1980 के दशक में अलगाववाद की राह पर भी चले. भारत आज भले ही गरीब देश है, लेकिन यहां शासन चलाने वाली बेहतरीन संस्थाएं हैं. जब दूसरे स्टेट धराशायी हो रहे हों, तो यह बड़ी उपलब्धि है.

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धर्म और स्टेट

भारत की इस उपलब्धि की वजह यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय धर्म या स्टेट रिलीजन के सिद्धांत को ठुकरा दिया था. इसका असर यह हुआ कि स्टेट में धर्म की कोई भूमिका नहीं है. इसीलिए संविधान में धर्म की कोई जगह नहीं है.

संविधान की धारा 15 के जरिये यह पक्का किया गया है कि स्टेट धर्म, नस्ल, जाति, जन्म की जगह या किसी भी आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करेगा. यही बात सबसे अहम है. जब तक संविधान में आर्टिकल 15 है, तब तक भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना एक खोखली बात होगी. मुझे नहीं लगता कि बीजेपी या कोई भी सरकार इस धारा को बदल पाएगी, भले ही वह संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटाकर उसकी जगह हिंदू राष्ट्र क्यों न डाल दे.

अगर सिर्फ इस आधार को ही देखें तो यह काम नहीं किया जाना चाहिए. जिस तरह से कांग्रेस के संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़ने का कोई बुनियादी असर नहीं हुआ, उसी तरह से उसकी जगह किसी के भी संविधान में हिंदू राष्ट्र डालने का कोई असर नहीं होगा. कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान में जोड़ने से जितना सेक्युलर था, उससे कम या अधिक सेक्युलर नहीं हुआ.

आखिर में मैं अमेरिकी अर्थशास्त्री रॉबर्ट बैरो की एक रिसर्च का जिक्र करना चाहूंगा. रॉबर्ट इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल की रेस में भी शामिल हैं. उन्होंने 188 देशों के स्टेट रिलीजन की स्टडी की है और इससे कुछ दिलचस्प बातें सामने आई हैं. इनमें से एक यह है कि स्टेट रिलीजन होने या नहीं होने का आर्थिक विकास पर असर नहीं पड़ता. हालांकि, यह धार्मिकता को लेकर पॉजिटिव रुख दिखाता है, जो कि बिल्कुल अलग मामला है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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