ADVERTISEMENTREMOVE AD

RSS से जुड़ने पर सहयोगियों को बाद में पछताना क्यों पड़ता है?

आरएसएस में ऐसा क्या है कि जो भी पार्टी या आंदोलन उसके साथ जुड़ते हैं, उसका नतीजा बर्बादी के रूप में सामने आता है?

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

आरएसएस में ऐसा क्या है कि जो भी राजनीतिक पार्टी या आंदोलन उसके साथ जुड़ते हैं, उसका नतीजा बर्बादी के रूप में सामने आता है? क्या दिक्कत उसकी विचारधारा के साथ है या उसके नेताओं के साथ, या ये दोनों ही वजह उसके लिए जिम्मेदार हैं?

आरएसएस को इस बारे में सोचना चाहिए. उसे पता लगाना चाहिए कि क्यों उसके साथ जुड़ने पर सहयोगियों को बाद में पछताना पड़ता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हाल में श्यामा प्रसाद मेमोरियल लेक्चर में 1975-77 की इमरजेंसी के बारे में कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा था:

‘...राजनीतिक ढांचे को बचाने के लिए वह जरूरी था. जब राजनीतिक ढांचे या मकसद की बात होती है, तो वामपंथी सिर्फ समाजवाद का जिक्र करते हैं. ब्रिटिश-अमेरिकी-यूरोपीय उदारवादी इसका मतलब बहुलतावादी लोकतंत्र से लगाते हैं. इनमें से कोई भी धर्मनिरपेक्षता को बहुत अहमियत नहीं देता. जेपी और उनके सहयोगियों ने सबसे बड़ी गलती यह की थी कि आरएसएस के हाथों में कंट्रोल दे दिया था. जिस इंसान को जरा भी समझ है, वह कभी यह नहीं कह सकता कि आरएसएस की अगुवाई वाला विपक्ष धार्मिक सहिष्णुता और बराबरी वाले समाज को बचाएगा.’

लेक्चर, प्लानिंग कमीशन के बारे में था, जिसमें यह बात कही गई थी.

इससे पता चलता है कि राजनीति और गवर्नेंस के सामने जब वैचारिक एजेंडा का सवाल खड़ा होता है, तब क्या होता है? 1979 में आरएसएस दोहरी सदस्यता के मामले को लेकर दूसरी बार फंसा. उस वक्त देश में गठबंधन सरकार थी और पूर्व कांग्रेसी मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री थे.

जेपी के समाजवादियों ने तब सरकार बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी और वे जनसंघ के इसका हिस्सा होने से खुश नहीं थे, क्योंकि वह आरएसएस की पॉलिटिकल यूनिट थी. यह सरकार तीन साल में ही गिर गई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

वीपी सिंह सरकार के समय भी ऐसा ही हुआ था. बीजेपी उसे बाहर से समर्थन दे रही थी. अगस्त 1990 में बीजेपी ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए रथ यात्रा शुरू की और कुछ महीनों बाद दिसंबर में सरकार गिर गई.

आरएसएस में ऐसा क्या है कि जो भी पार्टी या आंदोलन उसके साथ जुड़ते हैं, उसका नतीजा बर्बादी के रूप में सामने आता है?
अटल बिहारी वाजपेयी आरएसएस कार्यकर्ता थे, इसके बावजूद उसके साथ उनकी अनबन हो गई.
(Photo: The Quint)

1999 में बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई. वाजपेयी आरएसएस कार्यकर्ता थे, इसके बावजूद उसके साथ उनकी अनबन हो गई. वाजपेयी को इसे सुलझाने में 3 साल का समय लगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब नरेंद्र मोदी की बारी है

अब नरेंद्र मोदी की बारी है, जिन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी आरएसएस के साथ तालमेल बिठाने में दिक्कत हुई थी. माना जाता है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने आरएसएस से दूरी बनाए रखी थी. आज आरएसएस से उनके मतभेद बढ़ने के संकेत दिख रहे हैं. देश को किस तरफ ले जाना है, इस पर दोनों की राय एक है. हालांकि बदलाव की गति क्या हो, इस पर दोनों की नहीं बन रही है.

आरएसएस में ऐसा क्या है कि जो भी पार्टी या आंदोलन उसके साथ जुड़ते हैं, उसका नतीजा बर्बादी के रूप में सामने आता है?
माना जाता है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान मोदी ने आरएसएस से दूरी बनाए रखी थी. 
(Photo: PTI)
हाल में हुए यूपी उपचुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की संसदीय सीटें बीजेपी हार गई. इसके बाद सबके मन में यह सवाल घूम रहा है कि आरएसएस ने दोनों जगहों पर वोटरों को बूथ तक ले जाने में बीजेपी की मदद क्यों नहीं की?

इसके बाद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि उनके संगठन ने कभी नहीं कहा कि वह कांग्रेस-मुक्त भारत चाहता है. अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में छपे भागवत के बयान के मुताबिक:

‘’ये राजनीतिक नारे हैं. यह आरएसएस की भाषा नहीं है. राजनीति में मुक्त शब्द का इस्तेमाल होता है. हमने कभी किसी को अलग-थलग करने का बयान नहीं दिया. हम राष्ट्रनिर्माण में सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं. हम उन्हें भी साथ लेकर चलेंगे, जो हमारा विरोध करते हैं.’’
मोहन भागवत 
ADVERTISEMENTREMOVE AD

हाल में उन्होंने यह भी कहा कि एयर इंडिया का मालिकाना हक किसी भारतीय कंपनी के पास होना चाहिए. बीजेपी सांसद सुब्रह्मण्‍यम स्वामी भी यह बात कहते रहे हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी आने वाले महीनों में आरएसएस की कितनी सुनते हैं. अब तक उन्होंने आरएसएस को खुश करने के लिए कई काम किए हैं. इनमें गोवध, जेएनयू, ट्रिपल तलाक, पाकिस्तान को लेकर सख्त नीति जैसी चीजें शामिल हैं, लेकिन मंदिर मामले पर उन्होंने एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है.

हालांकि अगर अगले महीने कर्नाटक चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन खराब रहता है, तो यह रेखा मिट सकती है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×