पूर्व सरसंघचालक गुरु गोलवलकर का आज जन्मदिन है और इस मौके ये जानना जरूरी है कि गुरु गोलवलकर कौन हैं और उनके विवादास्पद विचारों पर संघ की मौजूदा लीडरशिप क्या सोचती है. मौजूदा मोदी सरकार में संघ के असर को देखते हुए इस बात की अक्सर चर्चा होती रहती है कि क्या आरएसएस अभी भी गोलवलकर के विचारों से इत्तेफाक रखता है या फिर वो उनकी बातों से दूरी बनाने लगा है.
सबसे पहले ये चर्चा 2018 में मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत की लेक्चर सीरीज में सामने आई थी. इसमें भागवत ने कहा था कि माधव सदाशिव गोलवलकर की कई बातें आज प्रासंगिक नहीं रह गई हैं. ये बड़ी असामान्य बात थी कि संघ अपने सम्मानित नेताओं में से एक गोलवलकर के बारे में ऐसा कहे.
इससे भी बयान की अहमियत बढ़ जाती है, लेकिन यह भी सच है कि आरएसएस ने गोलवलकर की कुछ विवादास्पद बातों से खुद को पहली बार अलग नहीं किया है. फिर भागवत के इस बयान का क्या मतलब है?
आरएसएस उस मध्यवर्गीय भारत को फिर से जोड़ना चाहता है, जो खासतौर पर बीजेपी से दूर हो गया है. संघ को पता है कि उसकी योजनाओं के लिए इस वर्ग का भरोसा हासिल करना कितना जरूरी है, भले ही 2014 के बाद से इस मामले में कुछ और ही दावे किए जाते रहे हैं.
गोलवलकर की बात काटने का मतलब
‘भारत के भविष्य’ पर लेक्चर सीरीज के तीसरे और आखिरी दिन भागवत से पूछा गया कि गोलवलकर ने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में मुसलमानों के प्रति जो आक्रामकता दिखाई थी, क्या संघ उसे अब भी सही मानता है? इस पर भागवत ने कहा,
“अगर हिंदू राष्ट्र है, तो इसका मतलब इसमें मुसलमान नहीं चाहिए, ऐसा बिल्कुल नहीं होता. जिस दिन ये कहा जाएगा कि यहां मुसलमान नहीं चाहिए, उस दिन वो हिंदुत्व नहीं रहेगा.”
सालों से संघ पर भारतीय गणतंत्र की मूल भावना का विरोध करने के आरोप लगते रहे हैं. मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति उसकी सोच पर भी सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. कई संघ प्रमुखों और दूसरे आरएसएस नेताओं ने संविधान पर भी अंगुली उठाई है.
उसे तिरंगे का उचित सम्मान नहीं करने और स्वतंत्रता आंदोलन की आलोचना करने को लेकर भी घेरा गया है. इनमें से ज्यादातर के केंद्र में गोलवलकर रहे हैं. आज आरएसएस गोलवलकर की कुछ बातों से खुद को क्यों अलग कर रहा है, इसे समझने के लिए आपको इतिहास में जाना पड़ेगा.
केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद जुलाई 1940 में गोलवलकर ने आरएसएस की कमान संभाली थी. वह बाहर से संगठन में आए थे, इसलिए शुरू में उनका काफी विरोध हुआ. इससे उबरने के लिए गोलवलकर ने कई जरियों का इस्तेमाल किया. उन्होंने ‘वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ नाम की किताब लिखने का दावा किया, जिसका प्रकाशन 1939 में हुआ था. इस किताब से उनकी बुद्धिजीवी नेता की छवि बनी.
ढाई दशक तक संघ परिवार के अंदर भी बहुत कम लोग जानते थे कि गोलवलकर ने यह किताब नहीं लिखी थी. इस किताब को वीडी सावरकर के भाई जीडी (बाबाराव) सावरकर ने मराठी में लिखा था.
उन्होंने ‘हिंदुत्व- हू इज अ हिंदू’ नाम की किताब भी लिखी थी, जिससे हेडगेवार को एक हद तक आरएसएस के गठन की प्रेरणा मिली थी. बाबाराव की किताब का नाम राष्ट्र मीमांसा था, जिसका प्रकाशन 1934 में हुआ था. संघ के वरिष्ठ नेता जानते थे कि गोलवलकर ने ‘वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ नहीं लिखा है, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया.
इस किताब का तीसरा और फाइनल प्रिंट 1947 में आया और 1963 में गोलवलकर ने कहा कि यह बाबाराव सावरकर की किताब का संक्षिप्त रूप है. हालांकि, इसके लिए उन्होंने उस शख्स को दोषी ठहराया, जिसे उन्होंने अनुवाद प्रकाशन की खातिर दिया था. इस सच को इतने सालों तक क्यों छिपाया गया, इस पर गोलवलकर ने कुछ नहीं कहा.
इतना सब होने के बाद भी साल 2006 तक आरएसएस में गोलवलकर को ही किताब का लेखक माना जाता रहा. उस साल आरएसएस की तरफ से ‘श्री गुरुजी और भारतीय मुसलमान’ का प्रकाशन हुआ. इसमें औपचारिक तौर पर माना गया कि ‘वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के लेखक गोलवलकर नहीं थे. आरएसएस ने तब एक बयान में बताया कि इस किताब में जो बातें लिखी हैं, वे आज के गुरुजी या संघ की सोच से मेल नहीं खातीं.
‘बंच ऑफ थॉट्स’ में मुसलमानों, ईसाईयों और वामपंथियों को बताया खतरा
इसके बाद गोलवलकर के लेखों और भाषणों को संग्रहित कर 1966 में ‘बंच ऑफ थॉट्स’ प्रकाशित किया गया. इसमें आंतरिक सुरक्षा के लिए मुसलमानों, ईसाईयों और वामपंथियों को खतरा बताया गया है.
मुसलमानों पर जो चैप्टर है, उसमें लिखा गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय ने देश के बंटवारे के बाद आक्रामकता और आबादी बढ़ाने की दोतरफा रणनीति अपनाई है. वे ना ही कुछ भूले हैं और ना ही उन्होंने कुछ सीखा है. वे देश में ‘छोटा पाकिस्तान’ बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो ‘टाइम बम’ है.
गोलवलकर ने इसमें दावा किया कि बंटवारे में सारे ‘पाकिस्तान समर्थक’ यहां से नहीं गए और उसके बाद ‘मुसलमान नाम की समस्या 100 गुना बड़ी हो गई है.’
ये भी पढ़ें-ओपिनियन: संघ और BJP को मुसलमानों से नहीं, हिंदुओं से डर लगता है
क्या संघ को अपनी ग्रोथ रुकने की चिंता है?
लेक्चर सीरीज में भागवत ने ‘श्री गुरुजीः दृष्टि और दर्शन’ नाम की किताब का हवाला दिया, जो 2005 में आई थी. उस वक्त वह सरकार्यवाहक थे और के एस सुदर्शन सरसंघचालक. इसकी प्रस्तावना में भागवत ने वही बात लिखी है, जो उन्होंने 19 सितंबर को लेक्चर सीरीज में कही यानी वक्त और हालात बदलते रहते हैं.
भागवत से पहले सुदर्शन ने आरएसएस को बौद्धिक तौर पर गोलवलकर की विवादास्पद बातों से दूर करने की शुरुआत की थी. 2005-06 में जब आरएसएस ने ‘वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ से खुद को दूर किया, तब राजनीति में गठबंधन का दौर चल रहा था. संघ को लगा कि अगर वह मुसलमानों को लेकर गोलवलकर वाली सोच पर टिका रहेगा तो इससे उसका विकास रुक जाएगा.
सुदर्शन या भागवत किसी ने भी गोलवलकर की आलोचना नहीं की, लेकिन उनकी बातों से ऐसा लगता है कि संगठन की ग्रोथ के लिए गोलवलकर के विवादास्पद बयानों से दूरी बनाना जरूरी है. वह मध्य वर्गीय भारत का समर्थन फिर से हासिल करना चाहता है.
आरएसएस को लगता है कि राष्ट्र और हिंदुत्व के उसके सिद्धांत को यह वर्ग मानता है, लेकिन अल्पसंख्यकों और भारतीय राष्ट्रीयता के दूसरे मान्य प्रतीकों के प्रति संघ की आक्रामक सोच उसे पसंद नहीं है. आरएसएस ने शायद यह भी मान लिया है कि अल्पसंख्यक, दलित और संविधान विरोधी छवि के चलते उसकी ग्रोथ रुक जाएगी. इसी वजह से भागवत ने इन तीनों मुद्दों पर लेक्चर सीरीज में आरएसएस का रुख स्पष्ट किया.
हालांकि, अभी यह मानना गलती होगी कि आरएसएस की इन मुद्दों पर सोच बदल गई है. संघ के कहने और करने में काफी अंतर रहा है. लेकिन इसमें भी शक नहीं है कि इस बयान के मुत्तालिक इन मुद्दों पर आरएसएस के आगे के बयानों को परखा जाएगा.
वैसे भागवत जो बात कह रहे हैं, उससे भी विरोधाभास जुड़ा है. मिसाल के लिए, अगर मुसलमान भी हिंदू हैं तो आरएसएस के उस कैंपेन का क्या होगा, जिसमें वह हिंदुओं की संख्या घटने की बात करता है.
( ये लेख मूल रूप से 22 सितंबर 2018 को पहली बार पब्लिश किया गया था. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)