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रूस-यूक्रेन संकट: भारत को सभी संभावित नतीजों के लिए खुद को तैयार रखना होगा

भारत के लिए कई मायनों में अहम हो सकता है रूस-यूक्रेन संकट, चीन-अमेरिका भी होंगे प्रभावित

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संकटों की श्रेणियों को देखें तो यूक्रेन का संकट (Ukraine crises) काफी असाधारण प्रतीत हो रहा है. चूंकि रूस (Russia) ने यूक्रेन (Ukraine) के उत्तर और पूर्व में अपनी सेना को तैनात किया है, इस वजह से एक संकट धीरे-धीरे विकसित हो रहा है. 2022 की शुरुआत में इसके चरम पर पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही है. इस बीच, हर कोई यही सोचता रह गया कि पुतिन की योजनाएं क्या होंगी? वहीं अमेरिकी प्रतिक्रिया भी कम महत्वपूर्ण रही, क्योंकि अमेरिका ने युद्ध की तबाही से बचने के लिए सैन्य कार्रवाई को खारिज कर दिया है. लेकिन इस संकट को दूर करने के लिए उसने गहन कूटनीति का प्रयोग किया.

इन सबके बावजूद भी यदि यूक्रेन पर आक्रमण किया जाता है, या रूसी-अमेरिकी समझौते के माध्यम से स्थिति को आसान बनाया जाता है, तो भारत के लिए वैश्विक प्रभाव देखने को मिलेंगे.

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रूस के साथ सबसे हालिया की गई सुरक्षा संधि

रूस ने 2014 में क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और रूसी समर्थक बलों ने यूक्रेन के डोनेट्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों के कुछ हिस्सों में खुद को स्थापित कर लिया. जिसके परिणाम स्वरूप अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस पर प्रतिबंध लगा दिए.

17 दिसंबर को रूस ने एक सुरक्षा संधि मसौदे का प्रकाशन किया, जिसमें उसने पश्चिम के साथ हस्ताक्षर करने के अपने इरादे को दर्शाया. मसौदे में पश्चिम से एक गारंटी शामिल थी कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा, यही इसका मुख्य बिंदु था. इसके साथ ही इसमें यह बात भी शामिल थी कि यह गठबंधन मध्य और पूर्वी यूरोप में अपनी तैनाती को कम करेगा. मॉस्को ने कहा कि वह वार्ता शुरू करने के लिए तुरंत संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वार्ताकार भेजने के लिए तैयार है.

उसी दिन व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जॉन साकी ने इस बात की पुष्टि की थी कि इस संकट (यूक्रेन संकट) को कम करने के लिए रूस से वार्ता शुरू करने के प्रस्ताव मिले थे. हालांकि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की कोई मौजूदा योजना नहीं दिखाई दे रही है, वहीं नाटो पॉलिसी डिसीजन पर रूस के वीटो अधिकार का पश्चिमी देशों ने विरोध किया और उसे खारिज कर दिया है.

अमेरिका ने ऑन रिकॉर्ड यह कहा है कि रूसी मसौदे में ऐसे चीजे हैं जिन्हें मास्को मानता है कि पश्चिम को वह अस्वीकार्य होंगी और नाटो पर रूस की अपनी मांगें हैं. हालांकि रूसी प्रस्तावों को सिरे से खारिज नहीं किया गया है. यह ऐसी स्थिति हो सकती है जहां दोनों पक्ष अपनी अधिकतम मांगों को रख रहे हों और किसी बिंदु पर समझौता करने को तैयार हों. अगर वाकई में ऐसा है, तो इसके बड़े भू-राजनीतिक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं.

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अमेरिकी प्रतिक्रिया का विश्लेषण

7 दिसंबर, जिस दिन पर्ल हार्बर डे भी होता है. उस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन के साथ दो घंटे तक टेलीफोनिक वार्ता की. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि अमेरिका ने तत्काल सैन्य प्रतिक्रिया की योजना नहीं बनाई है, लेकिन अमेरिका रूस पर गंभीर आर्थिक प्रतिबंध लगाएगा और यूरोप में नाटो बलों को भी पुनर्स्थापित करेगा. 2014 की तुलना में अमेरिका की प्रतिक्रिया कहीं अधिक मजबूत होगी, उस समय बराक ओबामा राष्ट्रपति थे और बाइडेन उप-राष्ट्रपति थे, तब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था.

रूस अभी भी उस समय लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन है, लेकिन वे इस बार प्रतिबंध और भी ज्यादा कठोर हो सकते हैं. इनमें रूसी स्वामित्व वाली नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन को बंद करना शामिल हो सकता है, जो रूसी गैस को यूरोप तक पहुंचाती है.

इसके अलावा, रूसी कंपनियों को वैश्विक वित्तपोषण तक पहुंचने से रोका जा सकता है और पुतिन का समर्थन करने वाले रूसी कुलीन वर्गों को वित्तीय दंड का सामना करना पड़ सकता है. SWIFT वैश्विक वित्तीय निपटान प्रणाली से रूस को अलग करना, सबसे कठिन कदम हो सकता है. रूस के अलावा यहां सबसे ज्यादा नुकसान यूरोपीय संघ को हो सकता है. रूस यूरोप की 35% गैस की आपूर्ति करता है और इसके पास 350 बिलियन डॉलर की यूरोपीय संघ की संपत्ति है इसके बावजूद यूरोपीय लोगों ने रूसियों का सख्ती से सामना करने के लिए अमेरिका के साथ मिलकर काम किया है.

कुछ मायनों में देखें तो ऐसा लगता है कि जैसे हम चिकेन गेम देख रहे हैं, जिसमें रूसी और अमेरिकी यह देखने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं कि पहले कौन पलक झपकाता है.

"सख्त व्यक्ति" के दृष्टिकोण वाले पुतिन यह अनुमान लगा सकते हैं कि अफगान मामले में शिकस्त मिलने के बाद बाइडेन आसानी से शिकार हो सकते हैं. हालांकि, उस घटना (अफगान घटना) के परिणाम ने अमेरिकी राष्ट्रपति को इस बार अधिक सख्त रुख अपनाने के लिए निश्चित तौर पर प्रभावित किया होगा.

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हालांकि रूसियों के पास एक वैलिड पॉइंट है

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि रूसियों के पास कोई मुद्दा नहीं बचा है. जब शीत युद्ध समाप्त हुआ था, तब अमेरिका ने यह वादा किया था कि जर्मनी के एकीकरण के बाद नाटो के अधिकार क्षेत्र का विस्तार नहीं किया जाएगा. हालांकि अमेरिका ने निर्णय जब लिया तो वह “unipolar moment” के दंभ में उलझ गया था. उसने सोचा कि उसने शीत युद्ध जीत लिया है और कमोबेश उसने वही किया जो वह चाहता था, पूर्व वारसॉ संधि में शामिल सदस्यों को शामिल करने के लिए उसने 1997 में नाटो के विस्तार की प्रक्रिया शुरू की.

यदि रूस युद्ध या सैन्य कार्रवाई करने के मामले में निर्णय लेता है तो तत्कालिक तौर पर इसके परिणाम मृत्यु, विनाश और पश्चिम की ओर जाने वाले शरणार्थियों के रूप में देखने को मिलेंगे. पश्चिमी प्रशिक्षण और रक्षात्मक उपकरणों द्वारा अपनी शक्तियों को मजबूत करने के साथ यूक्रेनी सेना युद्ध में रूसियों को कड़ी टक्कर देगी. इसके साथ ही यह भी चिंता है कि युद्ध अन्य यूरोपीय देशों में फैल जाएगा, जिससे नाटो को हस्तक्षेप या कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. इसके साथ ही परमाणु-हथियार वाले राज्यों के बीच युद्ध या संघर्ष होने से सभी तरह के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं.

भू-राजनीतिक के तौर पर यह संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के साथ रूसी संबंधों का अंत होगा. पश्चिम के साथ किसी भी तरह की फूट या खटास मॉस्को को बीजिंग के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करने के लिए मजबूर करेगी. इसके साथ ही रूसियों को अपनी सीमा पर नाटो की अधिक मजबूत तैनाती का सामना करना पड़ सकता है.

दूसरी ओर, यदि किसी प्रकार का समझौता किया जा सकता है, तो इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे. किसी एक के लिए यह क्रीमिया के बाद के प्रतिबंधों को उठाने और रूस और यूरोप के बीच एक सामान्य सौहार्द का कारण बन सकता है. यह मॉस्को की बीजिंग के करीब जाने की इच्छा को दबा सकता है.

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रूस और अमेरिका के बीच समझौते से भारत को होगा फायदा

इस पूरे परिदृश्य से दो तरह के परिणाम दिखते हैं या तो रूसी आक्रमण या यूएस-रूस समझौता. परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन भारत के लिए उसके महत्वपूर्ण प्रभाव होंगे. रूसी सैन्य कार्रवाई और अमेरिका व उसके सहयोगियों के साथ रूस के संबंध कड़वे होने से भारत पर पश्चिमी गठबंधन और रूस के बीच चयन करने का दबाव होगा. ऐसे में यह भी संभव है कि S-400 खरीद के कारण भारत को CAATSA प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. भारत पर रूस के साथ रक्षा संबंध में कटौती करने का दबाव बनाया जा सकता है. उस परिस्थिति में भारत के लिए इस पर विचार करना आसान नहीं होगा, क्योंकि निकट भविष्य के लिए उसके सशस्त्र बल रूसी पुर्जों और उपकरणों पर निर्भर होंगे.

इसके दूसरी ओर देखें तो अमेरिका और रूस के बीच अगर समझौता होता है तो इससे रूस-चीन संबंधों व रिश्तों में थोड़ा बहुत कमी आ सकती है. इससे भारत को रूस के साथ संबंधों को फिर से स्थापित करने के अपने हालिया प्रयासों पर विस्तार करने का अवसर मिल सकता है. यदि इसके साथ अमेरिका-ईरान संबंधों में समान गर्मजोशी आती है, तो यह भारत, रूस और ईरान के लिए अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन (INSTC) परियोजना पर सहयोग करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जो ईरान-रूस के खिलाफ लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से बाधित है.

(लेखक, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के एक विशिष्ट फेलो हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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