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अमेरिका-रूस तनाव के बीच फंसा भारत अब तक संभल कर चलता रहा, लेकिन आगे मुश्किल राह

अमेरिका के उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह और रूसी विदेश मंत्री लावरोव के बयानों का मतलब समझिए

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रूसी विदेश मंत्री (Russian Foreign Minister) के भारत आने का प्राथमिक कारण यूक्रेन (Ukraine) के मसले पर भारत के निष्पक्ष रुख के लिए भारत का धन्यवाद देना था और अपने लिए भारतीय सपोर्ट जुटाना था, जिस पर रूसी आक्रमण को लेकर अपना रुख बदलने का दबाव हाल के दिनों में बहुत बढ़ गया है.

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यह विदेश दौरा, दुनिया को ये भी दिखाने के लिए था कि रूस (Russia) को अलग थलग करने की कोशिश के बीच रूस के साथ दो ताकतवर देश चीन (China) और भारत (India) हैं. इसके अलावा ब्राजील (Brazil) और साउथ अफ्रीका (South Africa) ने भी इशारा किया है कि यूक्रेन पर उनका नजरिया वही नहीं है जो पश्चिमी देशों का है.

रूसी कार्रवाई और वेस्ट के नजरिए में फंसा भारत

पश्चिमी देश इस संघर्ष को तानाशाही बनाम लोकतंत्र में चुनाव के तौर पर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सब कोई इसी नजरिए से इसे नहीं देखता. वो पश्चिमी देशों के दोहरे रवेयै को ऐसे मौकों पर याद करते हैं. OPEC राष्ट्रों ने अमेरिका के सुझाव कि वो अभी तेल का उत्पादन बढ़ाएं, की जगह रूस के साथ जाने का विकल्प चुना. नई दिल्ली ने तनाव को कूटनीति और बातचीत से खत्म करने की अपील की है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश के तौर पर यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के मुद्दे से उसने खुद को अलग रखा है.

विदेश मंत्रालय की तरफ से विदेश मंत्री एस जयशंकर (S. Jaishankar) के हस्ताक्षर वाली प्रेस रिलीज में कहा गया है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तनाव और हिंसा को खत्म करने पर जोर दिया है. ये जोड़ते हुए भी कि विवाद और मतभेद को सिर्फ कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय कानूनों, संयुक्त राष्ट्र चार्टर, और किसी भी देश की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करके सुलझाना चाहिए.

पूरी रिलीज में जो आखिरी लाइन है वो परेशानी की तरफ इशारा करता है; रूसी कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानूनों, संयुक्त राष्ट्र चार्टर या फिर यूक्रेन की अखंडता का सम्मान नहीं करता. और बिना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से इजाजत लिए किसी देश को इस तरह की ‘स्पेशल मिलिटरी एक्शन’ की इजाजत नहीं है.

लावरोव ने दिल्ली में क्या कहा

विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाकात के बाद रूसी विदेश मंत्री लावरोव (Russian Foreign Minister Sergey Lavrov) ने मीडिया से अपनी बातचीत में कहा कि रूस इस मामले में भारत की मध्यस्थता के लिए तैयार है लेकिन उन्होंने अब तक ऐसा कोई प्रस्ताव या इस तरह की चर्चा नहीं सुनी है. दूसरे शब्दों में कहें तो नई दिल्ली वैश्विक राजनीति और अपनी जटिल परिस्थिति को लेकर संतुष्ट है. दुनिया पर मंडरा रही इतनी बड़ी मुश्किल को दूर करने के लिए सरकार कोई कोशिश नहीं कर रही है, जो खुद भारत के हित में भी हो सकता है.

भारत में विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाकात के बाद लावरोव ने यूक्रेन मसले को संपूर्णता में तथ्यों के आधार पर देखने और एकतरफा दृष्टिकोण नहीं अपनाने के लिए भारत की तारीफ की. उन्होंने गैर पश्चिमी करेंसी में भारत जैसे देशों के साथ व्यापार करने के अपने इरादे के बारे में भी बताया.

उन्होंने कहा कि रूसी सेंट्रल बैंक ने कुछ समय से वित्तीय सूचनाओं के लिए एक सिस्टम तैयार किया है और भारत का अपना सिस्टम है. अब दोनों रुपया-रूबल प्रणाली से तेल, कमोडिटी और हथियारों के सौदे कर सकते हैं. उन्होंने यूक्रेन के साथ चल रही बातचीत में यूक्रेन के ‘न्यूट्रल स्टेटस, नॉन न्यूक्लियर ब्लॉक, नॉन-ब्लॉक’ में रहने को लेकर हुई प्रगति के बारे में भी बताया.

रूसी विदेश मंत्री ने भारत के साथ रिश्तों में मजबूती और भारत के साथ मिलकर एक संतुलित विश्व व्यवस्था के लिए काम करने के ख्याल पर भी जोर दिया.

उन्होंने कहा कि दोनों देश अंतरिक्ष, एनर्जी, और साइंस & टेक्नोलॉजी में मिलकर काम करते रहेंगे. उन्होंने कहा कि रूस भारत को कुछ भी देने को तैयार है जो भारत उनसे खरीदना चाहता है. इससे पहले चीन में उन्होंने कहा था कि रूस, चीन और भारत मिल कर एक मल्टीपोलर वर्ल्ड ऑर्डर और लोकतांत्रिक दुनिया बनाने के लिए काम कर सकते हैं.
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भारत-रूस रिश्ते को अमेरिका कैसे देखता है ?

जहां वाशिंगटन भारत की मजबूरियों को समझता है, विशेष रूप से रक्षा उपकरणों के संबंध में, नई दिल्ली से जिस तरह के बेलगाम शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लिए बढ़िया संकेत नहीं है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक टीवी चैनल से कहा कि वो अपने देश के राष्ट्रीय हित, ऊर्जा सुरक्षा को सबसे पहले रखेंगी. उन्होंने रूस से तेल खरीदने के सवाल पर जवाब दिया कि "मैं इसे क्यों नहीं खरीदूं?" निर्मला सीतारमण ने कहा "मुझे अपने लोगों के लिए इसकी आवश्यकता है".

तेल के सिवाय भारत रूस से सनफ्लावर तेल भी लेता है. वहीं भारत के दौरे पर आए अमेरिका के उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह इसे ऐसे कहते हैं... भारत के लिए जहां कोई लाल लकीर नहीं है वाशिंगटन इसको पसंद नहीं करेगा कि भारत, रूस से अपनी खरीद ज्यादा बढ़ाए.

दूसरे शब्दों में, भारत के लिए ये एक बात थी कि रूस के साथ जरूरत के हिसाब से वो अपना व्यवहार बनाए रखे लेकिन अपने फायदे के लिए स्थिति का फायदा उठाना दूसरी बात होगी.

इसे दूसरे शब्दों में ऐसे समझें कि संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग से परहेज एक बात है, लेकिन रूस को प्रतिबंधों की मार से बचने में मदद करना दूसरी बात होगी. अमेरिका ऐसी स्थिति को बर्दाश्त नहीं करेगा जहां मास्को को अलग-थलग करने के वाशिंगटन के प्रयासों को नई दिल्ली सक्रिय रूप से कम करता दिखे.

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भारत के लिए आगे मुश्किल रास्ता

भारत के लिए संदेश ये है कि वो ये नहीं भूले कि उसकी विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य निरंतर आर्थिक विकास के जरिए अपने करोड़ों लोगों की जिंदगी में बदलाव लाना है. इस प्रयास में, यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए आवश्यक पूंजी और प्रौद्योगिकी का प्रमुख स्रोत अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान से आएगा. यही देश वो प्रमुख बाजार भी होंगे जहां वो अपना माल बेचना चाहते हैं.

पश्चिमी देशों ने रूस पर जो पाबंदियां लगाई थीं उसका असर उतना नहीं हुआ क्योंकि रूस ने पहले ही इसका अनुमान लगा लिया था, लेकिन अब पश्चिमी देशों का गुट रूस पर और अधिक शिकंजा कसेगा. और अब उन देशों पर भी कड़ाई करेगा जो रूस पर लगी नई पाबंदियों के असर को कम करने की कोशिश करेंगे.

पहले भारत इस परेशानी से बच गया था क्योंकि क्योंकि वाशिंगटन अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति के हिस्से के रूप में भारत के महत्व को समझता है लेकिन अब यहां से भारत के लिए रास्ता थोड़ा मुश्किल हो सकता है.

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के एक विशिष्ट फेलो हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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