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रूस-यूक्रेन जंग, कांग्रेस और कश्मीर फाइल्स: असंतोष के दौर में भारत

सहमति बनाने की जगह इसे टालकर कुछ नेता बहुत कामयाब बन रहे हैं.

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हम असहमति और असंतोष के दौर में जी रहे हैं. इन दिनों असहमत होना आसान है. एक तरह से यह परिपक्वता और स्वतंत्रता का संकेत होना चाहिए था लेकिन फिर, दूसरे से असहमति के तरीके और मकसद जो हमें कलह और शत्रुता की ओर ले जाता हैं, वो उस असहमति से अलग है जिसे हम अन्यथा ‘दूसरे से असहमत होने और विचार की आजादी ‘ के रूप में मानते हैं.

हम कहीं ऐसा ना सोचें कि यह सिर्फ भारत की समसामयिक परिस्थितियों के बारे में है. जरा विश्व के अन्य लोकतंत्रों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर नजर डालेंगे तो पता चलेगा सब जगह ऐसा ही कुछ चल रहा है. असहमति बनाना एक सफल नेता की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है लेकिन दुख की बात यह है कि कुछ लोग केवल इसे टालने, लोगों के छिपे हुए डर, लालच, ईर्ष्या, अहंकार और ‘दूसरों को अलग’ रखने की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाकर बहुत सफल हुए हैं.

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हमें लगातार ये बताया जाता रहा है कि "घृणा से अधिक घृणा उत्पन्न होती है और सिर्फ प्रेम सभी से जीतता है" महात्मा गांधी ने अपनी जिंदगी से इसे करके भी दिखाया लेकिन आज जो कुछ हो रहे है वो थोड़ा अचंभित करने वाला है.

हमें दो विश्व युद्धों से कुछ सीखना चाहिए था

रूस-यूक्रेन संघर्ष को देखें, जिसने कई बेगुनाहों को तकलीफें और जान ले लीं, इनमें वो युवा भारतीय मेडिकल छात्र भी हैं जिनका इस संघर्ष से कुछ लेना देना नहीं था. अपने घर में 'द कश्मीर फाइल्स' को कुछ लोगों ने अपनी त्रासदी की कहानी के तौर पर स्वागत किया तो कुछ ने एक ऐतिहासिक घाव को और चौड़ा करने के लिए एक अतिरंजित प्रोपैगेंडा टूल्स बताया. अगर हमें नेल्सन मंडेला के नक्शेकदम पर चलना है तो हमें सत्य को सुलह का अग्रदूत मानना होगा लेकिन सच को तोड़-मरोड़ कर पेश करना पहले छुरा घोंपने और फिर रोने के लिए चाकू घुमाने जैसा है. यह एक रोना-बनाम-दूसरा रोना और "मेरा रोना तुम्हारे से अधिक दर्दनाक है" जैसा सिंड्रोम है.

मानव जाति का इतिहास में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या से अधिक मानवीय त्रासदियों से भरा हुआ है. दो विश्व युद्धों का खामियाजा भुगतने वाली पीढ़ियों ने फिर कभी ऐसी तबाही नहीं होने देने और 'आने वाली पीढ़ियों को युद्ध के संकट से बचाने' का संकल्प लिया. युद्ध में हजारों जानें गंवाने और कोलेटरल डैमेज के बाद हमें युद्ध से सबक लेनी चाहिए थी.

माना जा रहा था कि नागासाकी और हिरोशिमा परमाणु विस्फोट की तबाही के बाद दुनिया में अब और युद्ध नहीं होगा लेकिन लेकिन हमने क्या सबक सीखा? महीनों और कुछ सालों के अंदर ही कोरिया और वियतनाम, लाओस और कंबोडिया, चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध, अफ्रीका और यूरोप में गृह युद्ध, इराक और अफगानिस्तान में जंगें हुईं. कई बार दुनिया महायुद्ध के मुहाने पर आ गई. यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी के समय में क्यूबा मिसाइल संकट ने तो दुनिया को न्यूक्लियर युद्ध के करीब ला दिया था. तब बर्लिन एक ऐसा नाम था जिसे बोलने पर भी पाबंदी जैसा था. आखिर जॉन एफ केनेडी को ये बोलना पड़ा कि वो भी बर्लिन वासी हैं.

उसी दौर में जो जुबानी जंग चलती थी वैसा ही कुछ अब यूक्रेन संकट के दौरान देखने को मिला. रूस ने परमाणु हथियारों को अलर्ट पर रख दिया और नाटो के यूक्रेन को नो फ्लाई जोन देने से रुकना पड़ा.

भारत कब तक तटस्थ रह सकता है?

भारत ने अब तक इस मामले में मुश्किल और नाजुक संतुलन बनाए रखा है. लेकिन एक सबक यह भी है कि अगर चीजें बिगड़ती हैं और हाथ से निकल जाती हैं, तो हम दो विवादित दोस्तों के बीच तटस्थता का लबादा ओढ़े नहीं रह सकते. जैसा कि हमारी महत्वाकांक्षाएं और हमारी स्थिति है वो हमें तटस्थता के विशेषाधिकार की अनुमति नहीं देती, जैसा का नार्डिक देश कर सकते हैं. हमारी नैतिकता हमें हिंसा को दरकिनार कर देखने की इजाजत नहीं देती. क्योंकि मौतें लगातार बढ़ती जा रही हैं. तबाही के मलबे ने परिदृश्य को बेहद खराब कर दिया है. लेकिन जैसा भी हो, यह हमारे विदेश मंत्रालय के लिए चिंतन करने और बातचीत करने का मामला है.

मुझे उम्मीद है कि दुनिया अपने उद्धार का रास्ता खोज लेगी. एक भारतीय के रूप में, कोई भी निश्चित रूप से भारत को एक भूमिका निभाते देखना चाहेगा. परमाणु हथियारों का भंडार घटाने में सीमित सफलता के बावजूद अभी परमाणु हथियारों को समाप्त करने का काम बाकी है. अभी वो दूर का सपना है. संयुक्त राष्ट्र एक अपूर्ण लेकिन उपयोगी मंच बना हुआ है. संयुक्त राष्ट्र में समकालीन दुनिया की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाली सुधारों पर जोर दिया जा रहा है जो कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थितियों से कुछ अलग होगी.

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कांग्रेस अपनी ही दुविधा से जूझ रही है

यहां तक कि जब दुनिया एक साथ शक्ति और शांति की कोशिशें कर रही हैं. हमारा अपना देश अपने इतिहास और राजनीति में सत्य के विवादित संस्करणों से निपटने में फंसा है. मेरी अपनी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो हमारे स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट्र निर्माण की प्रेरक शक्ति रही है, आज जो नाटकीय रूप से बदली सामाजिक हकीकत को स्वीकार करने में जुटी है. आज के संकट पर पार्टी को कई बाहरी लोग नुस्खे दे रहे हैं तो कुछ पार्टी के अंदर से भी आए हैं. 'नुस्खे' शब्द के इस्तेमाल करने का अर्थ यह है कि जब लोग सोचते हैं और मानते हैं कि वो सब जानते हैं जो जानना चाहिए. किसी आम राय से किसी नतीजे पर पहुंचने वाली चर्चा वो नहीं चाहते.

हमारे कई महत्वपूर्ण सहयोगियों ने पार्टी से नाता तोड़ लिया है और उन्हें बाहर एक हरा-भरा चारागाह मिल गया है, जिसकी कभी उन्होंने निंदा की थी. कुछ अन्य लोगों ने रुकने का विकल्प चुना है और पार्टी के भीतर सुने जाने का दबाव डाला हुआ है. हमें पार्टी में उनके भरोसा को मानना चाहिए. साथ ही और आत्मविश्वास देने के लिए हमारे नेतृत्व की सराहना करनी चाहिए. उनकी आवाज जरूर सुनी जाएगी और उनकी सलाह पर ध्यान दिया जाएगा.

फिर भी, जिन लोगों ने ज्यादा हड़बड़ी नहीं दिखाई और पार्टी की राय का इंतजार किया, उन लोगों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. जॉन मिल्टन ने कहा था "वे भी सेवा करते हैं जो खड़े होते हैं और प्रतीक्षा करते हैं". निश्चित रूप से, वे कम नहीं हैं क्योंकि वो उतनी शिकायत नहीं करते हैं.

मानवता को बचाने के लिए सर्वसम्मति हासिल करने में दुनिया में भले ही ज्यादा समय लग सकता है . 'बहुत कम, बहुत देर’ जैसी सूरत ना हो इसकी प्रार्थना करेंगे लेकिन उम्मीद है, हम कांग्रेस के भीतर ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ पर आम सहमति जल्द ही हासिल कर लेंगे. हमारे भरोसे को सही मायने में नहीं समझने वालों के लिए क्योंकि वे 'अंध भक्त' शब्द को लेकर दिग्भ्रमित हैं, उनसे हम यही कहेंगे कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, उम्मीद है कि हम फर्जी को सच से अलग करेंगे. ये दोनों ही आज की जिंदगी का साझा हिस्सा हैं. हम उनका क्या ही कर सकते हैं जिनके पास आंखें तो हैं लेकिन वे देखेंगे नहीं?

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(सलमान खुर्शीद एक नामित वरिष्ठ अधिवक्ता, कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व विदेश मंत्री हैं. वो ट्विटर पर @salman7khurshid हैंडल से ट्वीट करते हैं. यह आर्टिकल उनकी एक राय है और व्यक्त विचार उनके अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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