अमेरिका (USA) शायद रूसी (Russian) राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) को ‘सद्दाम हुसैन’ (Saddam Hussein) बनाना चाहता है और शायद मॉस्को में सत्ता परिवर्तन के सपने देख रहा है.
लेकिन व्लादिमीर पुतिन और सद्दाम हुसैन में एक बहुत बड़ा फर्क है: सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक विनाश के हथियार (डब्ल्यूएमडी) नहीं थे, जैसा कि तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोलिन पावेल और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने दावा किया था, लेकिन पुतिन के पास डब्ल्यूएमडी मौजूद हैं.
अपनी बात साबित करने के लिए क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने सीएनएन से कहा है कि अगर रूस के अस्तित्व को खतरा होता है तो वह न्यूक्लियर हथियार का इस्तेमाल करेगा.बेशक, यह रूस तय करेगा कि उसे कब लगता है कि उसका "अस्तित्व खतरे में है" और कब वह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का सहारा लेगा.
क्या अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनके सलाहकार रूस के प्रति लापरवाही बरत रहे हैं, जबकि बाइडेन ने खुद पुतिन को 'युद्ध अपराधी' कहा है? तो, उस संयम का क्या हुआ, जो अमेरिका और रूस ने शीतयुद्ध और यहां तक कि 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान बरता था. वे हालात तो और उकसाने वाले थे.
पश्चिम के लिए पुतिन नए ‘स्टालिन’ हैं
पश्चिमी मीडिया पुतिन को नए ‘स्टालिन’ के तौर पर देख रहा है.इसकी वजह भी है. पुतिन को सत्ता संभाले 20 साल हो गए हैं और वे अपने प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने के लिए या तो उन्हें जेल भेज देते हैं या उन झूठे आरोप लगाते हैं (जैसा कि एलेक्सेई नवलनी के मामले में देखा गया). वह रूसी ड्यूमा यानी संसद के लोकतांत्रिक ढांचे को अपनी सुविधा के लिए तोड़ते मरोड़ते हैं और वह आखिर में उनके चाकर जैसी हो गई है. कोई किसी तानाशाह के साथ कैसे मुकाबला कर सकता है, एक ऐसा तानाशाह जो परमाणु हथियारों की धमकी देता हो.
अमेरिका और यूरोप ने एक जैसी प्रतिक्रिया दी है- वे संयम दिखाते हुए, आलंकारिक भाषा में रूस का विरोध कर रहे हैं, खासकर यूरोपीय संसद में. यूक्रेन में कोई पश्चिमी सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया गया है, बस सैन्य और आर्थिक सहायता दी गई है. यूक्रेन बहादुरी से रूस से लोहा ले रहा है.
पश्चिम की रणनीति यह है कि पुतिन और रूस को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाए. उत्तर कोरिया के उदाहरण से पता चलता है कि पश्चिम के बहिष्कार के बाद कोई देश सिर्फ एक तानाशाह की अगुवाई में जीवित रह सकता है. पुतिन के नेतृत्व में रूस एक और उत्तर कोरिया बन सकता है.
ऐसा लगता है कि अमेरिका और नाटो ने रूस को यूक्रेन के साथ युद्ध में धकेला है ताकि रूस की सैन्य ताकत की जांच की जा सके और पुतिन को सत्ता से बेदखल किया जा सके.
यह अनुमान लगाने के लिए किसी ज्यादा सोच-विचार की जरूरत नहीं है कि अमेरिका क्रेमलिन में एक दोस्त चाहता है. कुछ समय पहले रूस को अमीर और औद्योगिक देशों के समूह जी-8 का सदस्य बनाया गया था. लेकिन पश्चिम को ऐसा नहीं लग रहा कि पुतिन किसी भी सूरत उनके इशारों पर नाचेंगे.
यह भी सही है कि पुतिन और विश्व के दूसरे नेताओं के बीच रिश्ते बहुत सही नहीं हैं. याद किया जा सकता है कि नवंबर 2001 में बुश जूनियर ने पुतिन को अपने रैंच पर बुलाया था और ऐसा लगा था कि अमेरिकी और रूसी राष्ट्रपतियों के बीच दोस्ती की शुरुआत हो रही है.
लेकिन जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बाद व्हाइट हाउस में तीन राष्ट्रपति रहे- बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन- जबकि पुतिन अब भी क्रेमलिन में मजबूती से विराजमान हैं.
अमेरिकी चुनावों में रूस के दखल से डेमोक्रेट्स नाराज हो सकते हैं
पुतिन पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ और ट्रंप के पक्ष में प्रचार किया था. हालांकि ट्रंप और पुतिन दोनों ने इस आरोप को नकारा था. हो सकता है कि पुतिन के प्रति राष्ट्रपति बाइडेन के कठोर रुख का कारण यही हो. वैसे भी इस बात को लेकर अमेरिका में काफी चिंता जताई गई है कि रूस हैकर्स के जरिए अमेरिकी चुनावों में राजनीतिक हस्तक्षेप करता है.
अब यह विडंबना ही है कि खुद अमेरिका कई देशों में चुनावी परिणामों को प्रभावित करने की कोशिश करता है और उसकी दखल के कई सबूत भी हैं, लेकिन वह अभी तक किसी मामले में धरा नहीं गया है. हां, कई अमेरिकी नेताओं को पूरा विश्वास है कि रूस ने अमेरिकी राजनीतिक प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की है.
डेमोक्रेट्स के मन की पुतिन को लेकर जो नाराजगी है, वह बहुत हद तक अमेरिका की रूस नीति पर असर करती है. लेकिन अमेरिका का मानना है कि असर खतरा रूस की बढ़ती अर्थव्यवस्था है. यूरोप की एनर्जी सप्लाई के एक बहुत बड़े हिस्से पर उसका नियंत्रण है और इस तरह विश्वव्यापी व्यवस्था में रूस एक अभिन्न हिस्सा बन गया है.
यूक्रेन में युद्ध छिड़ने के बाद अमेरिका की बड़ी तेल कंपनी एक्सॉन मोबाइल और यूरोपीय कंपनी शेल ने रूस से तेल न खरीदने का फैसला किया है. पुतिन बाजार में खूब तोलमोल किया करते थे और तेल और गैस के दामों में यूरोपीय देशों से अक्सर बहस करते थे.
यूक्रेन के साथ रूस अफ्रीका और कई दूसरे देशों को गेहूं निर्यात करता था. ऐसा महसूस होता है कि रूस जिस तरह अपने आर्थिक संसाधनों का फायदा उठा रहा था, वह अमेरिका को नागवार था.वह पुतिन की इस मजबूत पकड़ को ढीली करना चाहता है.अमेरिका रूस के 'अस्तित्व' को तो खतरे में नहीं डालना चाहता, लेकिन वह निश्चित रूप से सीरिया, माली और मध्य एशियाई गणराज्यों में रूस के असर को कम करना चाहता है.
14 नवंबर, 2001 को ह्यूस्टन की राइस यूनिवर्सिटी में पुतिन ने एक भाषण दिया था. इसमें उन्होंने इस बात का जिक्र किया था कि खासकर तेल के क्षेत्र में आर्थिक समन्वय की जरूरत के कारण दोनों देशों में एक तार जुड़ सकता है. वैसे भी 11 सितंबर, 2001 की घटनाओं के बाद लगने लगा था कि रूस और अमेरिका करीब आ रहे हैं. लेकिन पिछले 21 सालों में बहुत कुछ बदल चुका है.
(लेखक नई दिल्ली में रहने वाले पॉलिटिकल जर्नलिस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @ParsaJr है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट के लिए न तो उसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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