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रूस-यूक्रेन युद्ध:यूरोपीय पत्रकारों की भाषा में दिखता 'काले-गोरों' के बीच भेदभाव

रूस-यूक्रेन युद्ध अन्याय के बीच दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी लोगों से ज्यादा अन्याय

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21वीं सदी की एक दूसरे से जुड़ी ग्लोबल इकनॉमी में हम एक ऐसे युद्ध के गवाह बने हैं जिसका तरीका 20वीं सदी में होने वाले आक्रमणों जैसा है और ये 9वीं शताब्दी के ‘Kievan Rus’ के सिद्धांत से चल रहा है, जहां से आज के रूस, यूक्रेन और बेलारूस की पहचान जुड़ी है.

कीव (Kyiv) की पहचान बोल्शेविक, Slavic और कट्टर ईसाइयत भी है. Vladimir I या Volodymyr I ने Kievan Rus पर शासन किया था. अब ये नाम मॉस्को और कीव के दो नेताओं के हैं और इतिहास मजाकिया तरीके से खुद को दोहरा रहा है.

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इस पर बहस की जा सकती है कि क्या ये वो “Darkest Hour” (यहां सिर्फ मैं एक बार चर्चिल को कोट कर रहूं) है, जो 20वीं शताब्दी के मध्य के बाद यूरोप ने देखा है. इस भयानक युद्ध में लोग मिसाइलों के गिरने, सायरन, मार्शल लॉ की घोषणा और अपने छोटे बच्चों को गोद में उठाए रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनकी आंखों में आंसू हैं, चेहरे पर डर है दिल में प्रतिरोध की भावना है और मन में गुस्सा है. ये भले ही अलग अलग दिशाओं में जा रहे हैं लेकिन अपना देश छोड़कर जाने की इनकी वजह एक है.

यहां के मकान मालिकों ने बाहर के देशों से आए अपने यहां रह रहे लोगों को एक ही रात में बेघर कर दिया. ये पश्चिमी देशों की तरफ भाग रहे हैं और इसमें इनकी कोई गलती नहीं है. ये सब एक युद्ध की वजह से हो रहा है, जो वो नहीं चाहते थे, लेकिन अब इसका सामना कर रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि रूस को शांति के लिए युद्ध को रोक देना चाहिए. वहीं यूक्रेन के लोगों को अपनी लड़ाई जारी रखनी पड़ेगी, अगर यहां के लोग ये चाहते हैं कि यूक्रेन बचा रहे.

सीमाओं पर भेदभाव

दुनिया की नजरें पोलैंड से सटे बॉर्डर पर खारकीव से कीव और कीव से Korczowa-Krakovets पर हैं. लाखों लोग अपनी सुरक्षा के लिए यहां से भाग रहे हैं. वहीं उनके साथ हो रहे अन्याय की वजह से उनमें दुख, पीड़ा, आतंक, डर और गुस्सा है.

लेकिन इसमें भी सबसे विडंबना ये है कि यहां अन्याय में भी उनके साथ ज्यादा नाइंसाफी की जा रही है जो दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी मूल के हैं.

ऐसी खबरें आईं कि नस्लीय भेदभाव की वजह से वो वहां से निकल नहीं पा रहे. यहां एक तरह का War-time Hysteria है, सही सूचनाओं की कमी है और गलत सूचनाओं की भरमार है और इसमें क्रेमलिन की साइबर मशीनरी का भी रोल है. साफ है कि ऐसी रिपोर्ट्स आग में घी का काम कर रही हैं और चिंताजनक हैं.

दक्षिण एशिया और अफ्रीका के हजारों स्टूडेंट्स मेडिसिन, इंजीनियरिंग और तकनीक से जुड़े दूसरे फील्ड्स की पढ़ाई करने यूक्रेन जाते हैं. इसकी वजह है कम खर्च में क्वालिटी एजुकेशन. ये सोवियत युग से ही चले आ रहे साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमैटिक्स (STEM) में मजबूती की वजह से है, जो तब से अब तक करीकुलम में बना हुआ है.

लेकिन अब इन हजारों स्टूडेंट्स की महत्वाकांक्षाएं मायूसी में बदल गई हैं. सोशल मीडिया पर एक परेशान करने वाला वीडियो सामने आया, जिसमें अफ्रीकी स्टूडेंट्स हवा में हाथ लहराते हुए चिल्ला कर कह रहे हैं कि उनके पास कोई हथियार नहीं है और वो स्टूडेंट्स हैं. वो भयानक ठंड में फंसे हैं और वहां से निकलना उनके लिए मुश्किल है. ये स्टूडेंट्स अब शरणार्थी हैं, जिनके पास शरण लेने की कोई जगह नहीं.

दुख की बात है कि भेदभाव और पक्षपात की ये अकेली ऐसी रिपोर्ट नहीं है. कुछ रिपोर्ट्स में ये भी कहा गया कि यूक्रेन के लोगों को जाने की इजाजत मिल गई. पूरी दुनिया की यूक्रेन के साथ सहानुभूति है, जहां मानवीय जीवन की कीमत कुछ नहीं रह गई है.

लेकिन इससे भी ज्यादा क्रूर ये है कि अफ्रीकी और एशियाई मूल के स्टूडेंट्स को उस देश को छोड़कर जाने की इजाजत भी नहीं है, जो उनका देश नहीं है और ऐसे समय में वहां ऐसा हो रहा है, जब खुद उस देश के नागरिक वहां से जान बचाने के लिए भाग रहे हैं.

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'नीली आंखों और सुनहरे बालों वाले लोग'

युद्ध की रिपोर्टिंग करते हुए भी कुछ लोगों में घृणा की भावना नजर आ रही है. इन रिपोर्ट्स में मानवीय संकट, तबाही, यूक्रेन के राष्ट्रपति Volodymyr Zelenskyy के साहस और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के गुस्से की कहानियों के अलावा एक दूसरा घातक तत्व भी है और वो है पश्चिमी रिपोर्टिंग का पक्षपात से भरा रवैया. इनमें कुछ धड़ों ने लोगों के एक समूह को ज्यादा प्राथमिकता दी.

मुझे इसकी पहली झलक बीबीसी पर दिखी, जब यूक्रेन के डिप्टी चीफ प्रॉसेक्यूटर David Sakvarelidze ने शायद अनजाने में ही ये कहा, 'मेरे लिए ये बहुत भावुक करने वाला है क्योंकि मैं देख रहा हूं कि नीली आंखों और सुनहरे बालों वाले यूरोप के लोग मारे जा रहे हैं.' ये बात सचमुच अजीब और हैरान करने वाली थी.

हालांकि ये इस तरह का मामला हो सकता है जहां एक व्यक्ति अपने देश के लोगों के बारे में बात कर रहा था, लेकिन इस तरह से नस्लीय पहचान के साथ ये बताना सही नहीं ठहराया जा सकता.

CBS के विदेश संवाददाता Charlie D’Agata ने कहा, 'ये कोई इराक या अफगानिस्तान नहीं है. उनकी तुलना में ये बहुत ही सभ्य यूरोपीय शहर है. विडंबना ये है, उन्होंने कहा कि उन्हें अपने शब्दों को बहुत सोच समझकर चुनना होगा, लेकिन असल में उन्होंने राजनीतिक रूप से सही और सचेत होने की अपनी पूरी समझ को ही छोड़ दिया.

वह अकेले नहीं थे. एक अन्य पत्रकार ब्रिटेन के ITV की Lucy Watson ने भी यही भावनाएं जाहिर कीं जब उन्होंने संवेदनहीनता से कहा, जो सोचा भी नहीं जा सकता, ऐसा कुछ हो गया है. ये कोई विकासशील थर्ड वर्ल्ड देश नहीं, ये यूरोप है.

आप ये कह सकते हैं कि ये सभी रिपोर्टर्स उन जगहों से रिपोर्टिंग कर रहे थे जहां वो युद्ध की भारी तबाही को देख रहे थे, लेकिन अलजजीरा एंकर के कंमेट्स को लेकर आप इस तरह नहीं समझा सकते क्योंकि, उन्होंने स्टूडियो में सुरक्षित बैठे हुए ऐसा कहा. एंकर ने कहा, 'सबसे ज्यादा परेशान करने वाला ये है जिस तरह के कपड़े इन्होंने पहने हैं. ये समृद्ध मध्यम वर्गीय परिवारों से आने वाले लोग हैं. जाहिर तौर पर ये वो शरणार्थी नहीं, जो मिडिल ईस्ट या नॉर्थ अफ्रीका से निकलना चाहते हैं. ये उस यूरोपियन परिवार के जैसे हैं जो आपके घर के ठीक बगल में रहते हैं.'
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यूरोपीय नजरिया

ये कोई छुपा पक्षपात नहीं है, ये भयानक तरह का स्पष्ट पक्षपात है. 9/11 की घटना से पहले दुनिया खास तौर से पश्चिम ने ये माना और इस पर दृढ़ता से यकीन भी किया कि अगर कहीं आतंक था, तो वो इस वजह से क्योंकि, वो क्षेत्र आतंक का राज्य था और ये पश्चिम के आदर्श राज्यों से बहुत दूर है. लेकिन उस भयावह दिन के बाद ये धारणा ध्वस्त हो गई.

ये स्पष्ट पक्षपात है और उस यूरोपीय विचार को दिखाता है, जिसके मुताबिक, आतंक, युद्ध, भुखमरी और अव्यवस्था, ये सब मिडिल ईस्ट, अफ्रीकी देशों या एशिया के दूसरे हिस्सों की ही समस्या हो सकती है.

उन्होंने कहा, 'ये यूरोप है' और ये कहते हुए वह ये भूल गईं कि ये वही महादेश है, जिसने हमें दो विश्वयुद्ध दिए हैं. वो महादेश जहां विश्वयुद्ध के दौरान और बाल्कन में भयावह नरसंहार हुए. वह ये भी भूल गईं कि पुतिन के इस अत्याचार की शुरुआत दशकों पुरानी भूराजनीतिक लड़ाई 'कोल्ड वॉर' का रिक्रिएशन है.

जिस तरह ये कहा गया कि यूरोप सभ्य है और इराक नहीं, ये स्पष्ट है कि इसमें कितना अहंकार और घृणा थी.

मीडिया ये भूल रहा है कि ‘Civilised’ यानी सभ्य शब्द, ‘Civilisation’ यानी सभ्यता से आया है और दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता मेसोपोटामिया की सभ्यता है, जहां बेबीलोन था. आज के आधुनिक युग में ये इराक में है.

बाइबिल में भी जिस गार्डन ऑफ इडन का जिक्र है, जहां एडम-इव और पहली मानवीय उत्पत्ति की बात कही जाती है, इसका स्थान भी तिगरिस और यूफ्रेट्स नदी के बीच कहीं माना गया है. ये नदी आज भी इराक में बहती है. वहीं द्रविड़ इवोल्यूशन में कहा गया है कि पहला इंसान जो धरती पर आया, वो अफ्रीकी महादेश में आया था.

लेकिन यहां जो बात परेशान कर रही है वो इतिहास को अनदेखा करना नहीं है, परेशान करने वाली बात है इस तरह की पूर्वधारणाएं और ऐसी रूढ़िवादिता.
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'किसी यूरोपीय परिवार की तरह नहीं लगते'

यूक्रेन के लोगों को मदद की जरूरत है और शरणार्थियों को निश्चित ही ऐसे समय में राहत मिलनी चाहिए, जब युद्ध की वजह से हर तरफ तबाही नजर आ रही है. लेकिन एक बात हैरान करने वाली है कि जिस तरह के कमेंट कुछ खास देशों के लोगों के लिए सामने आए वो शरणार्थियों में भेदभाव करने वाले हैं और कुछ लोगों को कमतर बता रहे हैं. शरणार्थियों को वहां से बाहर निकालने में ये भी सुनाई दिया, 'कोई भी यूरोपियन फैमिली.'

वहीं ये भी हैरान करने वाली बात है कि साल 2014 में सीरिया के शरणार्थियों के लिए ये देश उतने दयालु नहीं दिखाई दिए या फिर हाल में अफगान के लोगों के लिए. क्या ये इस वजह से था, (जैसा खुले तौर पर अल जजीरा के एंकर ने कहा) क्योंकि वो समृद्ध मध्यम वर्गीय लोग नहीं थे और ऐसे किसी यूरोपीय परिवार की तरह नहीं लगते थे, जो आपके घर के बगल में रह सकता हो?

जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या ने Black Lives Matter मूवमेंट को शक्तिशाली तरीके से फिर से ताजा किया है. इसका प्रभाव ये हुआ है कि इस आंदोलन ने गैर अश्वेत नस्लवाद के दूसरे रूपों पर ध्यान दिलाने में मदद की है, वो बातें जिस पर दशकों से ध्यान नहीं दिया गया था.

लेकिन कोई तब तक नहीं जाग सकता, जब तक वो अपने अवचेतन मन में गहरे तक बसे इस तरह की भेदभाव की भावना को अनदेखा करता रहे. ये अलग बात है कि आपको अपनी गलती के लिए पछतावा हो, लेकिन ये हैरान करने वाला है कि कोई इस तरह से बोल या फिर सोच भी कैसे सकता है?

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