ADVERTISEMENTREMOVE AD

कर्नाटक चुनाव: क्‍या सिद्धारमैया पार लगा सकेंगे कांग्रेस की नैया?

सिद्धारमैया एक क्षेत्रीय क्षत्रप हैं जिनके बड़ा होने की वजह गांधी परिवार के प्रति वफादारी या उसका उपकार नहीं है. 

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

जब 8 मई, 2013 को कर्नाटक विधानसभा चुनावों के परिणाम आने शुरू हुए, कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के ऑफिस के बाहर पार्टी के सीनियर नेताओं का तांता लगने लगा. वो अटकलें लगा रहे थे, साथ ही पत्रकारों से कह रहे थे कि मुख्यमंत्री का नाम तय नहीं है.

तब इस बात की अहमियत नहीं थी कि भंग विधानसभा में विपक्ष के नेता सिद्धारमैया ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने आगे बढ़कर उस विजयी चुनाव अभियान का नेतृत्व किया था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘बाहरी’ मसीहा

असल कांग्रेसी शैली में कयास लगाए जा रहे थे और पत्रकारों के सामने ये स्पष्ट था कि कई कांग्रेसी नेता पद के लिए अपना दावा पेश कर रहे थे.

कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष, तत्कालीन और वर्तमान जी परमेश्वर उन उम्मीदवारों में शामिल थे, पर वह अपने ही क्षेत्र में पराजित हो चुके थे. जिन नामों को जानबूझकर उछाला गया था, उनमें अन्य लोगों के अलावा मल्लिकार्जुन खड़गे और पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली जैसे कांग्रेस के बड़े नेता शामिल थे.

सिद्धारमैया पार्टी के पुराने नेताओं की निगाह में 'बाहरी' थे. कांग्रेस के पारंपरिक नेतृत्व के विपरीत वह आक्रामक कांग्रेस-विरोधी जनता आंदोलन से आए थे और जुलाई 2006 में आकर कांग्रेस को ज्वाइन किया था. वह एक क्षेत्रीय क्षत्रप थे, न कि गांधी परिवार के प्रति वफादारी या उसके उपकार के सहारे बढ़ने वाला नेता. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा से तीखे संघर्ष के बाद वह जनता दल (सेक्युलर) से अलग हो गए थे.

उनकी निकट-मंडली उन्हीं के जैसे जेडी(एस) के पूर्व नेताओं से भरी थी, और वे लोग ही उन तक पहुंच को नियंत्रित करते थे, कांग्रेस के पुराने नेता नहीं. वह एक अहंकारी व्यक्ति और अपने आप में एक नेता, दोनों ही थे. उन्होंने खुद को पुराने कांग्रेसियों के दांव-पेच में शामिल नहीं होने दिया.

पर 2013 में 2018 की तरह ही कांग्रेस को कर्नाटक की सत्ता पर कब्‍जे के लिए सिद्धारमैया जैसे एक करिश्माई नेता और कुशल वक्ता की जरूरत थी. वह अपने साथ एक स्पष्ट जातिगत आधार लेकर आए थे, जिसे कर्नाटक में ‘अहिंदा’ के नाम से जाना जाता है.

जाति और कांग्रेस

अहिंदा सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों का एक समूह है, जो कि कर्नाटक के दो बड़े वोट समूहों को पीछे छोड़ने का एक साधन था – करीब 14 प्रतिशत आबादी वाला लिंगायत मत और वोक्कालिगा जाति के वोटर, जिनकी कुल आबादी में अनुमानित भागीदारी करीब 11 प्रतिशत है.

लिंगायत जो कि विभिन्न उप-मतों में बंटे हैं और जिन्हें अब राज्य सरकार द्वारा अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया है, पूरे कर्नाटक में फैले हुए हैं और राज्य के उत्तरी इलाकों की कई सीटों पर उनकी निर्णायक भूमिका है. वोक्कालिगा जाति राज्य के पुराने मैसूर वाले इलाके में केंद्रित हैं और कावेरी नदी से जुड़े खेतीबारी वाले इलाकों में उनका बोलबाला है.

विडंबना है कि 1970 के दशक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री देवराज अर्स ने अहिंदा जातीय समूह का बड़ी सफलता से इस्तेमाल किया था. (गुजरात में पटेल वोट बैंक के खिलाफ खाम गठजोड़ के समान). पर, सिद्धारमैया अहिंदा जातीय समूह का चेहरा बन गए और अब भी बने हुए हैं.

सिद्धारमैया की छलांग

पुराने नेताओं के प्रतिरोध के बावजूद सिद्धारमैया को आगे करने में पार्टी हाईकमान की निर्णायक भूमिका थी और यह माना जाता है कि राहुल गांधी ने उनका खुलकर साथ दिया था. इससे भी अहम ये कि पिछले पांच वर्षों के दौरान वे उनके साथ रहे. इसका एक कारण इस खतरे की आशंका रही हो कि पद से हटाने पर वह शायद पार्टी को तोड़ डालें, पर जो भी हो पार्टी नेतृत्व ने सिद्धारमैया का साथ दिया और उन्होंने इन पांच वर्षों का इस्तेमाल राज्य में पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत करने में किया.

विगत पांच वर्षों में पार्टी के पुराने नेताओं की खटपट चलती रही और कई बार तो मुख्यमंत्री के साथ उनका संघर्ष खुले में हो रहा था. इसलिए अपनी ही पार्टी द्वारा बेदखल किए गए बगैर उनका पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा करना एक उल्लेखनीय उपलब्धि है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पर उनकी उपलब्धि इससे कहीं अधिक रही है. कांग्रेस नेतृत्व ने दोटूक शब्दों में घोषित किया है कि पार्टी 'उनके नेतृत्व में 2018 का चुनाव लड़ रही है' और पार्टी हाईकमान इस तरह के बयान अक्सर नहीं देता है. इससे एकबार फिर पुष्टि होती है कि सिद्धारमैया ने एक ऐसी पार्टी में साजिशों पर काबू पा लिया है, जिस पर कि अक्सर मजबूत राज्यस्तरीय नेतृत्व को तोड़ने का आरोप लगाया जाता है.

इससे जुड़े और भी सबूत हैं. उदाहरण के लिए, अधिकतर राज्यों में कांग्रेस के चुनावी अभियानों में, राज्य नेतृत्व का चेहरा पोस्टरों में गांधी परिवार को दी जानेवाली प्रमुखता के कारण दब जाता है. पर कर्नाटक में, पोस्टर हों या अन्य माध्यम, सिद्धारमैया का चेहरा सर्वाधिक दिखता है, न कि राहुल गांधी का.

राज्य का नेता

उनके व्यक्तित्व की इतनी मजबूत पुनर्स्थापना के बावजूद, नेताओं के अनुसार वह राहुल गांधी के भरोसेमंद बने हुए हैं. साथ ही, माना जाता है कि पार्टी के टिकटों के बंटवारे में उनकी स्पष्ट दखल है. राज्य के नेताओं को विगत पांच वर्षों में अहसास हो चुका है कि सिद्धारमैया निर्णायक साबित हो सकते हैं और पार्टी हाईकमान से शिकायत करने की धमकियों का उन पर असर नहीं होता है. उन्होंने हाईकमान से नजदीकी वालों को आगे नहीं बढ़ाया है और वह राज्य में कांग्रेस के सत्ताकेंद्र को बेंगलुरु वापस ले आए हैं.

इस चुनाव अभियान में, ऐसा लगता है वह अपने विरोधियों का एजेंडा भी निर्धारित कर रहे हैं. उन्होंने बीजेपी द्वारा अपने फायदे के लिए हिंदू राष्ट्रवाद और देशभक्ति के इस्तेमाल के खिलाफ बहुत सोच-समझकर क्षेत्रीय और भाषाई गौरव का मुद्दा खड़ा कर खुद को कर्नाटक के पैरोकार के रूप में पेश किया है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राज्यध्वज घोषित करने का उनका फैसला, जिसकी कई वर्गों ने आलोचना की, चुनावी फायदे के लिए क्षेत्रीय भावनाओं को उभारने के उद्देश्य से किया गया है और इसने बीजेपी के राज्य नेतृत्व को चुप रहने पर मजबूर कर दिया है.

विजेता की झोली में सबकुछ

लिंगायत मत को धर्म का दर्जा देने के फैसले ने भारतीय जनता पार्टी को हतोत्साहित कर छोड़ा है. लिंगायत समुदाय कर्नाटक में बीजेपी के समर्थन का मुख्य आधार है और पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बीएस येदुरप्पा को राज्य का सबसे प्रभावशाली लिंगायत नेता माना जाता है. येदुरप्पा और उनकी पार्टी अब लगता है अपने मुख्य वोट आधार को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं.

दूसरी तरफ, सिद्दारमैया अपने मित्र से शत्रु बने एचडी देवेगौड़ा और जेडी(एस) के खिलाफ तीखी लड़ाई में लगे हैं जिसने खुद को वोक्कालिगा जाति की पार्टी के रूप में तैयार किया है.

मुट्ठीभर सीटों को छोड़कर, कर्नाटक चुनाव को दो अलग-अलग द्विपक्षीय संघर्षों के रूप में देखे जाने की जरूरत है. पहला कावेरी से लगे इलाकों में, जहां बीजेपी की नगण्य उपस्थिति है, कांग्रेस और जेडी(एस) के बीच; और दूसरा शेष कर्नाटक में, जहां जेडी(एस) की नाममात्र की उपस्थिति है, कांग्रेस और बीजेपी के बीच.

जेडी(एस) और बीजेपी, दोनों सिद्धारमैया को अपना मुख्य शत्रु मानते हैं और उन्हें पराजित देखने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं. यहां यह उल्लेखनीय है कि जेडी(एस) के लिए कांग्रेस नहीं, बल्कि सिद्धारमैया पहले नंबर का शत्रु हैं.

आखिरकार, विजेता की झोली में सबकुछ जाता है और 2018 में यह सिद्धारमैया के लिए खासतौर पर सच है. पराजय के खिलाफ उनके पास कोई बीमा नहीं है, और उनकी खुद की पार्टी उन्हें खत्म कर सकती है, लेकिन यदि वह जीतते हैं, तो निश्चय ही सबकुछ उनका होगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे @TMVRaghav पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें- केंद्र में सरकार तो कर्नाटक में हार, क्या इस बार टूटेगा रिकॉर्ड?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×