खुशवंत सिंह ने लिखा भले ही अंग्रेजी में हो, लेकिन मशहूर वे हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी रहे. किताबी दुनिया से वास्ता रखने वाला शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जो इस ‘सौ की उम्र में भी नौजवान’ रहने वाले शख्स को न जानता हो. खुद बेबाक, बिंदास और जिंदादिल और उनका काम गहराई वाला. उनके विषयों का चयन देखिए और समझिए कि इस हंसोड़ शख्स के अंदर कितना दर्द भरा था.
‘ट्रेन टू पाकिस्तान’
यह खुशवंत सिंह का यह वह उपन्यास है, जिससे वे लोकप्रियता के चरम पर पहुंचे. अपने जमाने में यह उपन्यास बेहद चर्चित रहा. मतलब उस जमाने के किताबी लोगों ने इसे पढ़ा जरूर. क्या कमाल की किताब है यह! और लिखा भी तो कमाल के लेखक ने ही. इस किताब को खुशवंत सिंह की ‘महान रचना’ कहा जाता है.
यह किताब विभाजन के बाद लोगों के अंदर से फूटकर रिसने वाले दर्द पर आधारित है. इसमें खुशवंत सिंह ने भावनाओं का जो बांध खोला है, वह गहराई तक हिलोरे मारता प्रतीत होता है. ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ भारत और पाकिस्तान की सीमा पर बसे एक गांव को केंद्र में रखकर लिखा गया है, जहां बंटवारे की वजह से सिख और मुसलमान उदासी से घिर जाते हैं. यह उपन्यास अपने अंदर अनगिनत हृदय-विदारक घटनाओं को समेटे हुए है.
‘दिल्ली’
खुशवंत सिंह ने ‘दिल्ली’ को केंद्र में रखकर इस उपन्यास को रचा है यानी पिछले छह सौ सालों से लेकर आधुनिक समय तक जो भी दिल्ली में ऐतिहासिक रूप से घटा, उसे उन्होंने अपने इस उपन्यास में बयां कर डाला. इसमें मीर तकी मीर का किस्सा भी है और अमीर खुसरो का किस्सा भी, नादिरशाह का किस्सा भी है तो बहादुरशाह से संबंधित घटना को भी उन्होंने बड़े रोचक अंदाज में पेश किया है.
लेखक, उपन्यासकार, इतिहासकार और पत्रकार के रूप में अपनी खास पहचान बनाने वाले खुशवंत सिंह का जन्म 2 फरवरी, 1915 को अविभाजित भारत के पंजाब में हुआ था. कानून की डिग्री ली तो लाहौर में वकालत शुरू कर दी. उनके पिता सोभा सिंह अपने समय के मशहूर ‘कॉन्ट्रेक्टर’ जो थे. सोभा सिंह के बारे में मशहूर था कि वे आधी दिल्ली के मालिक थे. 1951 में खुशवंत सिंह ‘आकाशवाणी’ से जुड़े और इसी साल से 1953 तक भारत सरकार के पत्र ‘योजना’ का संपादन भी किया. अंग्रेजी साप्ताहिक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’, ‘न्यू डेल्ही’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक भी रहे. कुछ साल भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में काम किया और 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे.
मेरा लहूलुहान पंजाब’
जैसा कि नाम से पता चलता है कि यह उपन्यास खुशवंत सिंह ने पंजाब को केंद्र में रखकर लिखा है. इसमें उन्होंने आजादी के बाद पंजाबियों में उपजे रोष, असंतोष और पैदा होने वाली अशांत परिस्थितियों का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है. इसमें उन्होंने पंजाब में होने वाले शरारतपूर्ण राजनीतिक खेल पर खुलकर अपने विचार प्रकट किए हैं. इसके अलावा उन्होंने इसमें पंजाब की कृषि एवं औद्योगिक अर्थव्यवस्था के तहस-नहस हो जाने के कारणों को स्पष्ट करने का प्रयास किया.
खुशवंत सिंह शायर मिजाज आदमी थे. खुलकर बोलने वाले, जरा भी हिचकिचाहट न दिखाने वाले. दोस्तों के बीच बैठकर जोर से ठहाके लगाने वाले. शराब के भी वे बहुत शौकीन थे और इस बात को स्वीकार करने में भी उन्होंने कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई कि उन्हें खूबसूरत महिलाओं का साथ पसंद है, बल्कि उन्होंने बड़े ही सहज और बेबाक अंदाज में यहां तक कह दिया कि उनकी लंबी उम्र का राज भी जवान महिलाओं के साथ रहना है.
‘द हिस्ट्री ऑफ सिख’
खुशवंत सिंह को धर्म में कोई ज्यादा रुचि नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद उन्हें सिख धार्मिक संगीत और कीर्तन सुनना बड़ा अच्छा लगता था. यह बड़ी विचित्र-सी बात लगती है कि जिस शख्स की धर्म में कोई आस्था नहीं थी, उसने उस धर्म को केंद्र में रखकर किताब लिख डाली. खुशवंत सिंह ने ‘हिस्ट्री ऑफ सिख’ नाम से एक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने सिखों के प्रामाणिक इतिहास को उकेरा, जिसके बारे में कहा जाता है कि शायद ही कोई ऐसी दूसरी किताब हो, जिसमें इतने विस्तृत रूप से सिख समुदाय के इतिहास को उकेरा गया हो.
खुशवंत सिंह को ‘पद्मभूषण’ और ‘पद्मविभूषण’ से भी सम्मानित किया गया, ‘पद्मभूषण’ से संबंधित उनके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना भी है. जब स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘स्वर्ण मंदिर’ में सेना को भेजा तो उन्हें यह बात नागवार गुजरी और इसके विरोध में उन्होंने ‘पद्मभूषण’ लौटा दिया.
‘सच, प्यार और थोड़ी शरारत’, ‘बोलेगी न बुलबुल अब’, ‘मेरी दुनिया मेरे दोस्त’, ‘मेरे मित्र : कुछ महिलाएं, कुछ पुरुष’ जैसी पुस्तकों के अलावा अन्य 100 के आस-पास किताबें लिखने वाले खुशवंत सिंह 20 मार्च, 2014 को दूसरी दुनिया के वासी हो गए और पीछे छोड़ गए अपनी किताबों से झांकती बेबाकी, बिंदासपन और जिंदादिली!
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